ऑपरेशन
उत्कर्ष अरोड़ा
ये 1960 की एक अमावस की रात की बात है. तारों से प्रकाश जंगल की ज़मीन की ओर आ तो रहा है पर ज़मीन तक पहुंच नहीं पा रहा है. प्रकाश कहीं उन घने पेड़ों में कैद हो जा रहा है जिन्होंने जंगल को पूरी तरह ख़ुद में समेटा हुआ है. वे घने पेड़ इस जंगल के कई जीवों का घर हैं.
उन जीवों में से दो हैं, एक दस साल का बंदर, गोंडा, जिसका गुलाबी मुंह है और शरीर पूरा धूसर फर से ढका है और उसकी दो साल की बेटी, रेवा, जो बिलकुल गोंडा जैसी दिखती है बस अपने पिताजी से थोड़ी छोटी है.
गोंडा के हाथ में एक सुई है जिसमें एक धागा पिरोया हुआ है. गोंडा सुई को रेवा की बाईं टांग की पिंडली में डालता है और रेवा के ज़ख्म पर आखरी टांका लगा, उसे सी देता है. गोंडा घाव से जुड़े धागे को एक नुकीले कांटे से काट डालता है. रेवा धागा कटने पर हल्का कांपती है.
गोंडा, फिर, रेवा से कहता है, ‘ले, हो गया,’ और अपनी सुई और धागे को कपड़े के एक छोटे टुकड़े में डाल, एक गठरी बना, अपने बाएं हाथ पर बांध लेता है. रेवा, इस दौरान, अपनी टांग को हल्के से वापस खींच के, अपने पिता को धन्यवाद कह के, वहां से चुपके से भागने लगती है कि गोंडा उसे पकड़ लेता है.
गोंडा रेवा से कहता है, ‘रेवा नहीं! हमें अभी वापस घर को निकलना है.’ रेवा गोंडा से कहती है, ‘पर पापा, मैं देखना चाहती हूं कि इन इन्सानों के बीच चल क्या रहा है.’
रेवा पर गोंडा की पकड़ हल्की नहीं पड़ती तो रेवा फिर से चुप-चाप बैठ जाती है और इन्सानों को अपना मुंह मोड़ देखने लग जाती है. उन इन्सानों को जो इस जंगल के बीच बने ईंटों के एक फुटपाथ पर खड़े होते हैं.
तीन जंगली-इंसान, गोदावरी, तप्त और भिक्ष और तीन नए-इंसान, मृणाल, धर्ष और साशा, फुटपाथ पर एक दूसरे के विपरीत खड़े होते हैं. जंगली-इन्सानों के पीछे होता है, एक घना जंगल और नए-इन्सानों के पीछे होती है, उनकी जीप.
साशा, जंगली-इन्सानों से कहता है, ‘अभी भी समय है, जंगल छोड़ दो, वरना...’
भिक्ष साशा को टोकता है, ‘वरना क्या?’ साशा भिक्ष की ओर बढ़ता है. तप्त भिक्ष की बांह पकड़ उसे आगे बढ़ने से रोकता है. साशा अपना वाक्य पूरा करता है, ‘वरना हमें जंगली जानवरों का शिकार करना खूब आता है.’
गोंडा और रेवा, फुटपाथ की यह घटनाएं देख रहे होते हैं. साशा और भिक्ष को देख रेवा थोड़ा डर जाती है और गोंडा की तरफ मुड़ के उससे कहती है, ‘पापा, नए-इंसान अलग हैं. ये इंसान मुझे पसंद नहीं हैं.’
गोंडा रेवा की बात पर हामी भरता है और कुछ क्षण बाद कहता है, ‘पर फिक्र न कर बेटी, मुझे पूरा यकीन है कि जंगली-इंसान इनका कुछ न कुछ उपाय निकाल लेंगे. वह समझदार हैं और सबको साथ लेकर चलते हैं.’ (गोंडा रेवा की सिली चोट की ओर इशारा करता है).
रेवा गोंडा से पूछती है, ‘पर पापा, इन नए-इन्सानों ने तो इतने जीवित पेड़ काट दिये, जंगली-इन्सानों ने इन्हें रोका क्यों नहीं?’
गोंडा, आस-पास देखते हुए, रेवा से मुस्कुराते हुए कहता है, ‘कोई बात नहीं, बेटी. अभी हमारे पास बहुत पेड़ बचे हैं.’ तभी एक इंसान चिल्लाता है. रेवा का ध्यान आवाज़ की ओर खिंचता है.
रेवा गोंडा से पूछती है, ‘पापा, क्या मैं इन्सानों को पास जाकर उन्हें देख सकती हूं?’ गोंडा जवाब देता है, ‘बिलकुल नहीं! अट्ठासीवां जाने, वहां क्या चल रहा है और पहले ही अंधेरा हो चुका है; तुम्हें याद है ना हमें अंधेरे में नहीं दिखता!‘
‘पापा, कृपया मुझे जाने दो. देखो ना वह कितने मज़ाकिया हैं,’ गोंडा से कहते हुए, रेवा, इन्सानों की नकल उतारते हुए, अपने हाथ हवा में ऊपर कर उन्हें अजीबोगरीब तरीके से हिलाती है.
रेवा की यह हरकतें देख, गोंडा उससे कहता है, ‘रेवा, पहले तूने घर से इतनी दूर खेलते-खेलते ख़ुद को चोट मार ली. फिर, तुझे पांच टांके लगाने पड़े और अब भी तू मुझसे पूछ रही है कि क्या मैं इन इन्सानों के तमाशे में शामिल हो सकती हूं?’
रेवा गोंडा की यह डांट सुन अपना खेल बंद करती है और अपना सर नीचे कर उदास हो जाती है. गोंडा, एक गहरी सांस लेकर, रेवा से कहता है, ‘इस जंगल के इंसान हमें शायद ना मारें, मेरी राजकुमारी लेकिन कोई शिकारी जानवर हमें मार के ज़रूर खा सकता है.’
रेवा गोंडा की ओर बड़ी मासूमियत से देखती है और उसे कहती है, ‘पापा, कृप्या मुझे जाने दो. मैं दूर नहीं जाऊँगी.’ गोंडा रेवा से कहता है, ‘तेरा मैं क्या करूं! जा.’
यह सुनते ही रेवा भागते हुए जाती है. गोंडा पीछे से रेवा को पुकारता है, ‘टहनी के अंत पर रुक जाना.’
रेवा हामी भरती है और टहनी के अंत पर पहुंच, वहां बैठ के इन्सानों की ओर देखते हुए सोचती है कि यह इन्सानों के बीच चल क्या रहा है जब एकदम से इन्सानों में हलचल मच जाती है.
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(उत्कर्ष अरोड़ा की कहानी का यह अंश प्रकाशक जगरनॉट बुक्स की अनुमति से प्रकाशित)