घड़ी का समय या समय की घड़ी: कहीं भीड़ में गुम हो गया था
समय का जहाज भी यथावत चलता रहा, और कॉलेज भी ख़त्म हुआ. कभी कभी लगता है हम सबका आपस में मिलना एक अस्थायी घटनाक्रम है और जुदाई हमेशा के लिए स्थायी है.
घड़ी का समय या समय की घड़ी
विवेकभान सिंह झाला
गन्ना और गठरी पुराने मित्र थे. वैसे ये अजीब से नाम उनके असली नाम नहीं थे, ये तो उनके स्कूल के दोस्तों के दिए हुए थे. असली नाम तो था सुहास और मृणाल, जो उनके मां बाप ने प्यार से रखा होगा. लेकिन सुहास था 6.3 फ़ुट का दुबला पतला जंजीर के अमिताभ बच्चन सरीखा गन्ना, दूसरी तरफ मृणाल 5.3 फ़ुट का छोटा और माखन की गठरी सा मोटा और गोरा चिट्टा. दोनों बचपन के लंगोटिए यार. लेकिन स्कूल की दोस्ती स्कूल तक ही रहती थी.
गठरी आता स्कूल बस में 10 किमी दूर से. और अपना गन्ना रहता था स्कूल से बिलकुल सटी कॉलोनी में. तो शाम को स्कूल ख़त्म, दोनों के मिलने का समय ख़त्म. दोनों को फिर सुबह का इंतज़ार रहता. उन दोनों की बनती कोशिश यही रहती थी कि पूरे साल में एक भी छुट्टी नहीं लेनी पड़े. तबीयत नरम भी हो तब भी नहीं, क्योंकि दोस्त से मिलना जरूरी है. ऐसी दोस्ती थी दोनों की. ऐसी दोस्ती को ईश्वर न करे किसी की नज़र लगे.
पर समय का जहाज कहां रुका है साहब, वो तो निरंतर चलता ही रहा, साल दर साल गुजरते गए, कक्षाएं बदलती गईं और आख़िरकार वो दिन भी आ गया जब बारहवीं बोर्ड भी ख़त्म हुआ, उसके कुछ दिन बाद फेयरवेल हुआ और स्कूल ख़त्म. और साथ ही ख़त्म हुआ मिलने का सिलसिला. दोनों दोस्त बिछड़ गए. चौदह साल स्कूल का साथ, एक दिन में ख़त्म. उसके बाद से तो दोनों को न तो खाना भाता ना खेलना. दोनों काफी उदास रहने लगे थे.
लेकिन पिक्चर अभी बाकी थी मेरे दोस्त. स्कूल के बाद कॉलेज भी तो जाना होता है. दोनों का एक ही कॉलेज में बी.एससी. की लिस्ट में नाम आ गया. और फूल और कांटे के अजय देवगन की तरह ऊपर खड़े होकर तो नहीं लेकिन दोनों दोस्त अपने अपने पिताजी के दुपहिया वाहन पे बैठकर अपना अपना फॉर्म जमा कराने कॉलेज में दाखिल हुए. गन्ना अपने पिताजी के बजाज चेतक स्कूटर पर सवार और गठरी अपने पिताजी की कावासाकी बजाज मोटरसाइकिल पर. दोनों ने एक दूसरे को कस के गले लगा लिया. यार की यारी के आगे तो ये सारी ख़ुदाई भी कुछ नहीं. कॉलेज का रंगीन दौर दोनों ने भरपूर जीया.
समय का जहाज भी यथावत चलता रहा, और कॉलेज भी ख़त्म हुआ. कभी कभी लगता है हम सबका आपस में मिलना एक अस्थायी घटनाक्रम है और जुदाई हमेशा के लिए स्थायी है.
गठरी के पिताजी व्यापारी थे, उसे आगे पढ़ने लंदन भेज दिया. गन्ने जी ने यहीं अपने शहर में पोस्ट ग्रेजुएट की और एक कंपनी में नौकरी लग गये. समय का जहाज चलता रहा और गठरी लंदन में नए काम सीख के आया और पिताजी के व्यापार में चार चांद लगा दिए. देखते ही देखते बड़ा नाम कर लिया शहर के उद्योग जगत में. बड़ी बड़ी गाड़ियां ऑडी, मर्सडीज़, जगुआर, रेंजरोवर, और गठरी सेठ की कलाई में रोलेक्स की प्लैटिनम घड़ी, दुबई से पांच लाख में ली थी. दिन भर उस घड़ी को अपने दाएं हाथ से कलाई में घुमाता रहता. कभी बोर्ड मीटिंग कभी विदेश तो कभी उद्घाटनों में फीते काटता फिरता. लेकिन एक शहर में होकर भी दोस्त से मिलना नहीं हो पाता.
बिज़नेस में नाम होने पर, कई टीवी चैनलों पर इंटरव्यू भी हुए गठरी के. ऐसा ही एक इंटरव्यू चल रहा था किसी बिज़नेस न्यूज़ चैनल पर. गन्ने ने देखा तो उसका सीना गर्व से फूल गया, पर अगले ही पल उदास भी हो गया पुराने दिनों को याद करके. उसका दोस्त कहीं भीड़ में गुम हो गया था. फिर अगले ही पल उसे हंसी भी आ गई, गठरी की हरकत देख के, पूरे इंटरव्यू में अपनी रोलेक्स घड़ी को घुमाए जा रहा था. जैसे स्कूल में नया पेंसिल बॉक्स लाता तो पूरे दिन उसे टेबल पर रखा रखता, सबको दिखना चाहिए उसका महंगा चुंबक से बंद होने वाला बॉक्स. इतना बड़ा आदमी बन गया लेकिन आज भी वही दिखाने की आदत.
कुछ दिनों बाद गन्ने की बहन की शादी तय हुई, तो शादी का कार्ड देने वो गठरी के ऑफिस गया. आलीशान तिमंज़िला ऑफिस, बाहर बोटल पाम के ऊंचे पेड़ और उनके नीचे गठरी साहब की चमकीली काली रेंजरोवर खड़ी थी जिसके नंबर थे- 001. कांच सी चमक रही थी लेकिन फिर भी एक लड़का कपड़ा लिए उसे घिसे जा रहा था. फिर सिक्यूरिटी से गन्ने का पास बना, गार्ड ने साहब की सेक्रेटरी से फ़ोन पे इजाजत ली, तब कहीं जाकर लिफ्ट से तीसरे माले पे पहुंचे. बाहर सुनहरे मेटल के अक्षरों से लिखा था- मृणाल मित्तल. आखिरी बार ये नाम कॉलेज के फेयरवेल में सुना था जब स्टेज पर जूनियर्स ने सब सीनियर्स के बारे में कुछ टाइटल्स बनाए थे.
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(विवेकभान सिंह झाला की कहानी का यह अंश प्रकाशक जगरनॉट बुक्स की अनुमति से प्रकाशित)