चोल राजवंश, राजदंड, नेहरू और अब मोदी..., बीच में है लोकसभा की 39 सीटें
सेंगोल को भले सरकार राजनीति मुद्दा नहीं बनाने की बात कह रही हो, लेकिन इसकी एंट्री से सियासी चर्चा तेज है. सवाल पूछा जा रहा है कि क्या बीजेपी सेंगोल के जरिए द्रविड़ पॉलिटिक्स साध रही है?
आजादी के 75 साल बाद राजदंड का प्रतीक सेंगोल राजनीतिक बहस के केंद्र में है. मोदी सरकार ने सेंगोल को संसद की नई बिल्डिंग में स्पीकर कुर्सी के पास रखने का फैसला किया है. सेंगोल चोल वंश के वक्त काफी प्रसिद्ध था और इसके बाद से ही तमिलनाडु की जनता से इसका भावनात्मक जुड़ाव है.
संसद में सेंगोल लगाए जाने पर विवाद भी शुरू हो गया है. सपा सांसद एसटी हसन ने कहा- एक धर्म का धार्मिक चिह्न संसद भवन में लगाने से दूसरे धर्म के लोगों की भावनाएं आहत होंगी. संसद के भीतर सभी धर्मों के धर्म चिह्न लगाए जाने चाहिए. गृहमंत्री अमित शाह ने इसे राजनीति से ऊपर का मामला बताया है.
सेंगोल को भले सरकार राजनीति मुद्दा नहीं बनाने की बात कह रही हो, लेकिन जिस तरह इसकी एंट्री हुई है उससे सियासी चर्चा तेज है. सत्ता के गलियारों में इस बात की चर्चा है कि क्या बीजेपी सेंगोल के जरिए तमिलनाडु की राजनीति साधने की कोशिश कर रही है?
सियासत, सेंगोल और संसद उद्घाटन के राजनीति मायने को इस स्टोरी में विस्तार से जानते हैं...
पहले कहानी सेंगोल की
सेंगोल यानी राजदंड एक सिंबलजिसके ऊपरी सिरे पर नंदिनी विराजमान हैं. यह धन-संपदा और वैभव का प्रतीक भी है. तमिल परंपरा में सेंगोल राजा को याद दिलाता है कि उसके पास न्यायपूर्ण और निष्पक्ष रूप से शासन करने के लिए एक डिक्री है.
सेंगोल का इतिहास मौर्य और गुप्त वंश काल से ही शुरू होता है, लेकिन यह सबसे अधिक चोल वंश शासन काल में चर्चित हुआ. भारत के दक्षिण भाग में चोल साम्राज्य (907 से 1310 ईस्वी) का शासन रहा. इस वंश में राजेंद्र चोल (प्रथम) और राजाराज चोल जैसे प्रतापी राजा हुए.
तमिल साहित्य के इतिहास में चोल शासनकाल को स्वर्ण युग की संज्ञा दी जाती है. चोल राजाओं का राज्याभिषेक तंजौर, गंगइकोंडचोलपुरम्, चिदम्बरम् और कांचीपुरम् में होता था. उस वक्त पुरोहित राजाओं को चक्रवर्ती उपाधि के साथ ही सेंगोल सौंपते थे.
चोल साम्राज्य में राजा ही सर्वोच्च न्याय अधिकारी होते थे. राजा विद्वानों और मंत्रियों के सहारे 2 तरह की सजा सुनाते थे. इसमें पहला, मृत्युदंड और दूसरा आर्थिक दंड. आर्थिक दंड में सोने के सिक्के लिए जाते थे.
चोल साम्राज्य की स्थापना राजा विजयालय ने की थी. उन्होंने सत्ता में आने के लिये पल्लवों को हराया. मध्यकाल चोलों के लिए पूर्ण शक्ति और विकास का युग था. इसी दौरान चोल शासकों ने दक्षिण भारत के साथ-साथ श्रीलंका पर भी कब्जा जमा लिया था.
कुलोतुंग चोल ने मजबूत शासन स्थापित करने के लिये कलिंग (ओडिशा) पर भी कब्जा कर लिया था. राजेंद्र चोल (तृतीय) इस राजवंश के अंतिम शासक थे.
चोल राजवंश के बाद दक्षिण की सत्ता में विजयनगर साम्राज्य स्थापित हो गया और धीरे-धीरे सेंगोल का इतिहास पुराना होता गया. आजादी के वक्त सेंगोल फिर से चर्चा में आया था.
राजगोपालाचारी, नेहरू और सेंगोल
1946 के खत्म होते-होते यह तय हो गया था कि कभी भी ब्रिटिश की सत्ता भारत से समाप्त हो सकती है. वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने सत्ता हस्तांतरण की प्रक्रिया के बारे में पंडित नेहरू से जानकारी मांगी.
माउंटबेटन ने नेहरू से पूछा कि ब्रिटिश सत्ता जब यहां से जाएगी, तो प्रतीक के रूप में आपको क्या सौंपा जाएगा? माउंटबेटन के सवाल का जवाब खोजने के लिए नेहरु ने राजगोपालाचारी की मदद ली.
राजगोपालाचारी नेहरू की अंतरिम सरकार में मंत्री रह चुके थे. राजगोपालाचारी ने काफी रिसर्च के बाद सेंगोल के बारे में नेहरू को बताया. सहमति बनने के बाद उस वक्त थिरुवावदुथुरई आधीनम् के तत्कालीन प्रमुख अंबलवाण देसिगर स्वामी को इसका भार सौंपा गया.
सेंगोल बनने के बाद देसिगर स्वामी ने अपने सहायक पुजारी कुमारस्वामी तंबीरन को सत्ता हस्तांतरण की प्रक्रिया पूरी करने के लिए दिल्ली भेजा. 14 अगस्त 1947 को रात 11 बजे के बाद तंबीरन ने सेंगोल माउंटबेटन को दिया.
माउंटबेटन इसके बाद सेंगोल पंडित नेहरू को सौंपा. मौजूद लोगों की तालियों की गड़गड़ाहट से हॉल में गूंज उठा. तमिलनाडु से आए पुजारियों ने सेंगोल पर पवित्र जल छिड़का और श्लोक गायन के साथ इसका स्वागत किया.
(Photo- Indian Govt)
कुछ दिन बाद सेंगोल को प्रयागराज के म्यूजियम में रखने के लिए भेज दिया गया. तब से सेंगोल प्रयागराज के म्यूजियम में ही रखा है. पिछले साल तमिलनाडु महोत्सव के दौरान इसका जिक्र तेजी से छिड़ा था, जिसके बाद केंद्र सरकार एक्टिव हो गई.
लोकसभा की 39 सीटों को साधने की रणनीति
कर्नाटक में हार के बाद से ही बीजेपी ने दक्षिण के तमिलनाडु और तेलंगाना पर फोकस बढ़ा दिया है. बीजेपी को 2024 के चुनाव में तमिलनाडु में बेहतर परफॉर्मेंस की उम्मीद है. जयललिता के निधन के बाद ही वहां विपक्ष की कुर्सी खाली है.
पार्टी की कमान तेजतर्रार अन्नामलाई के पास है. अन्नामलाई ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कन्याकुमारी से चुनाव लड़ने के संकेत भी दिए थे. अन्नामलाई ने कहा था कि प्रधानमंत्री ने क्षेत्रीय बाधा को पार कर लिया है.
कहा जा रहा है कि बीजेपी तमिलनाडु को लेकर कई रणनीति पर काम कर रही है. ऐसे में सेंगोल को तमिलनाडु की 39 सीटों को साधने के रूप में भी देखा जा रहा है.
2019 में तमिलनाडु की 39 में से एक भी सीट बीजेपी नहीं जीत पाई थी. 2014 में बीजेपी को कन्याकुमारी सीट पर जीत मिली थी. हालांकि, 2019 में तमिलनाडु की 5 सीटों पर बीजेपी दूसरे नंबर पर रही थी, उनमें कोयंबटूर, शिवगंगा, रामनाथपुरम, कन्याकुमारी और थुटीकुड्डी सीट शामिल हैं.
तमिलनाडु ही फोकस पर क्यों, 2 प्वॉइंट्स...
तमिलनाडु की सीमा दक्षिण भारत की 3 राज्यों की सीमा से लगी हुई है. इनमें आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और केरल शामिल हैं. इन राज्यों में लोकसभा की 100 सीटें हैं, जिसमें से बीजेपी के पास सिर्फ 25 है.
जयललिता के निधन के बाद तमिलनाडु में विपक्ष पूरी तरह कमजोर पड़ गई है. बीजेपी को जड़ें जमाने के लिए यही आसान मौका दिख रही है. जयललिता की पार्टी के साथ बीजेपी का गठबंधन है.
सेंगोल से सधेगा द्रविड़ पॉलिटिक्स?
55 साल से तमिलनाडु की सत्ता में द्रविड़ पॉलिटिक्स का दबदबा है और द्रविड़ राजनीति करने वाली पार्टियों DMK और AIADMK की ही सरकार बनती है. अभी एमके स्टालीन के नेतृत्व में डीएमके की सरकार है. द्रविड़ पार्टियां केंद्र की सत्ता में भी दखल रखती है.
1998 में जयललिता ने अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार गिरा दी थी. 2004 और 2009 में करुणानीधि ने कांग्रेस को समर्थन देकर सबको चौंका दिया था.
तमिलनाडु में द्रविड़ पॉलिटिक्स की वजह से बीजेपी वहां जड़ें जमाने में अब तक कामयाब नहीं हुई है. हाल के वर्षों तक कांग्रेस का हाल भी काफी बुरा था.
हाल ही में 2 विवाद ने तमिलनाडु में बीजेपी की मुश्किलें भी बढ़ा दी थी. पहला, भाषा और दूसरा तमिझगम का विवाद था.
भाषा विवाद- अप्रैल 2022 में एक कार्यक्रम के दौरान अमित शाह ने कहा था कि अलग-अलग राज्यों के लोगों को एक दूसरे से अंग्रेजी की बजाय हिंदी में बात करनी चाहिए. शाह के इस बयान का तमिलनाडु में पुरजोर विरोध हुआ.
सत्ताधारी दल डीएमके के कार्यकर्ताओं ने कई जगहों पर प्रदर्शन किया. खुद मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने अमित शाह के इस बयान को देश की एकता को तोड़ने वाला बताया.
स्टालिन ने कहा कि दिल्ली के लोग देश की विविधता खत्म करने की कोशिश कर रहे है, लेकिन हम इसे होने नहीं देंगे. तमिलनाडु में भाषा विवाद सालों पुराना है.
द्रविड़ आंदोलन के प्रणेता 1944 में पेरियार रामास्वामी ने तमिल को अलग राष्ट्रीय भाषा देने की मांग की गई थी. हालांकि, संविधान में हिंदी के साथ तमिल समेत कई भाषाओं को आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया.
इसके बाद हिंदी को जब राष्ट्रीय भाषा बनाने की बात कही गई तो 1960 के दशक में तमिलनाडु में उग्र प्रदर्शन हुए, जिसके बाद तत्कालीन सरकार ने इसे रोक दिया.
तमिझगम विवाद- तमिलनाडु में यह विवाद तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि की ओर से शुरू किया गया. राज्यपाल ने एक कार्यक्रम में तमिलनाडु के बदले तमिझगम नाम रखने का सुझाव दिया था.
रवि ने कहा था, तमिलनाडु का अर्थ होता है- तमिलों का देश या राष्ट्र, जबकि तमिझगम का मतलब है- तमिल लोगों को घर. राज्यपाल के इस बयान के बाद सत्ताधारी दल के नेता उबल पड़े और बीजेपी पर निशाना साधने लगे.
द्रविड़ पॉलिटिक्स की वजह से 1967 में मद्रास का नामाकरण तमिलनाडु हुआ था.
इन दोनों विवादों के बाद सेंगोल के राजनीतिक केंद्र में आने के बाद माना जा रहा है कि बीजेपी अपनी छवि तमिलनाडु में बदलने की कोशिश कर रही है, जिससे लोकसभा चुनाव में फायदा उठाया जा सके.
तमिलनाडु जनता की भावनाएं सेंगोल से जुड़ी हुई है. वहीं चोल वंश शासन काल को को तमिलनाडु के लोग स्वर्ण काल के रूप में याद करते हैं. कुल मिलाकर चोल राजवंश का भावनात्मक असर अभी भी तमिलनाडु में है.
ऐसे में माना जा रहा है कि बीजेपी सेंगोल और चोल रावजंवश के मुद्दे को उठाकर कर तमिलनाडु में द्रविड़ पॉलिटिक्स को कुंद करने की रणनीति पर काम कर रही है.
तमिलनाडु फोकस पर क्यों, रणनीति क्या है?
1. तमिलनाडु में ब्राह्मण वोटरों की संख्या करीब 3 प्रतिशत है, जो लोकसभा की 2-3 सीटों को सीधे प्रभावित करती है. द्रविड़ पॉलिटिक्स की वजह से ये हाशिए पर हैं. हालांकि, जयललिता के रहते तमिलनाडु में ब्राह्मण एआईएडीमके का कोर वोटर था. कभी यह वोटबैंक राजगोपालाचारी की वजह से कांग्रेस के पास था.
बीजेपी अब इन वोटरों को अपने पाले में लाने की जुगत में है. सेंगोल और संसद में कर्मकांड के सहारे भावनात्मक रूप से ब्राह्मण वोटरों में पैठ बनाने की कोशिश कर रही है. अगर बीजेपी इसमें कामयाब हो गई तो तमिलनाडु की राजनीति में पैठ बनाने में पार्टी कामयाब हो जाएगी.
2. 2022 में यूपी चुनाव से पहले बीजेपी ने काशी कॉरिडोर के जरिए हिंदुत्व की भावनाओं को साधने का प्रयास किया था. बीजेपी का यह प्रयास काफी सफल रहा था. बीजेपी उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में सरकार रिपीट करने में सफल रही थी.
काशी कॉरिडोर की कमान खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संभाली थी. 2020 में बिहार चुनाव से पहले दिल्ली के हाट में प्रधानमंत्री मोदी का लिट्टी चोखा खाते वीडियो वायरल हुआ था. इसे बिहारी भावनाओं से जोड़ा गया.
3. जयललिता के निधन के एआईएडीएमके काफी कमजोर हुआ है. विधानसभा चुनाव के बाद निकाय चुनाव में भी पार्टी को करारी हार मिली. इसके उलट बीजेपी को यहां काफी फायदा मिला.
बीजेपी नगर निगम में 1.6%, नगरपालिका में 1.4% और नगरपंचायत में 3% सीटें जीतने में कामयाब रही है. जयललिता के बाद करिश्माई नेताओं के पीछे भागने का ट्रेंड खत्म हुआ है. ऐसे में बीजेपी समीकरण के सहारे पैठ बढ़ाने की कोशिश में है.