सिद्धारमैया का 'अहिन्दा' फॉर्मूला जिसके आगे येदियुरप्पा और देवगौड़ा भी हुए थे चित, कांग्रेस भी झुकी?
वकालत से राजनीति में आए सिद्धारमैया अपने राजनीतिक फॉर्मूले से पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा और बीएस येदियुरप्पा को भी चित कर चुके हैं. 2013 में सिद्धारमैया की वजह से खरगे सीएम नहीं बन पाए थे.
मीडिया में आ रही खबरों की मानें तो 60 घंटे बाद कांग्रेस हाईकमान ने कर्नाटक में मुख्यमंत्री का विवाद सुलझा लिया है. कर्नाटक में फिलहाल मुख्यमंत्री की कुर्सी सिद्धारमैया को सौंप गई है. सूत्रों के मुताबिक सिद्धारमैया अपने चिर-प्रतिद्वंदी शिवकुमार को पीछे छोड़कर लगातार दूसरी बार मुख्यमंत्री बनेंगे.
वकालत से राजनीति में आए सिद्धारमैया अपने राजनीतिक फॉर्मूले से पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा और बीएस येदियुरप्पा को भी चित कर चुके हैं. धरम सिंह की सरकार जाने के बाद कर्नाटक की सियासत में सिद्धारमैया के 'अहिन्दा' फॉर्मूले ने कांग्रेस में जान फूंकने का काम किया.
2023 के चुनाव परिणामों में भी सिद्धारमैया की अहिन्दा (अल्पसंख्यक, पिछड़ा वर्ग, दलित वर्ग) फॉर्मूले की छाप दिखाई दी. सीएसडीएस-लोकनीति सर्वे के मुताबिक कांग्रेस को मुस्लिम, दलित, आदिवासी और ओबीसी समुदाय के वोट सबसे अधिक मिले हैं.
कांग्रेस ने इस बार जेडीएस के वोटबैंक वोक्कालिंगा में भी सेंध लगाई है. वोक्कालिंगा समुदाय के 49 फीसदी वोट कांग्रेस को मिले हैं. कांग्रेस अध्यक्ष डीके शिवकुमार वोक्कालिंगा समुदाय से ही आते हैं.
सिद्धारमैया का अहिन्दा फॉर्मूला क्या है?
2004 के कर्नाटक में कांग्रेस और बीजेपी किसी को भी पूर्ण बहुमत नहीं मिली, जिसके बाद कांग्रेस-जेडीएस ने मिलकर सरकार बनाई. उस वक्त सिद्धारमैया जेडीएस कोटे से सरकार में नंबर-2 उपमुख्यमंत्री बने. सिद्धारमैया दूसरी बार मुख्यमंत्री बनने से चूक गए थे.
उपमुख्यमंत्री बनने के बाद सिद्धारमैया ने अहिन्दा यानी अल्पसंख्यातारु (अल्पसंख्यक), हिंदूलिद्वारू (पिछड़ा वर्ग) और दलितारु (दलित वर्ग) फॉर्मूले पर काम करने लगे. अहिन्दा समीकरण के तहत सिद्धारमैया का फोकस राज्य की 61 प्रतिशत आबादी थी.
सिद्धारमैया का यह प्रयोग उस वक्त काफी पॉपुलर होने लगा. इसके बाद देवेगौड़ा को अपने बेटे की राजनीतिक भविष्य की चिंता सताने लगी. देवेगौड़ा ने सिद्धारमैया को पार्टी से निकाल दिया. सिद्धारमैया इस फॉर्मूले को लेकर कांग्रेस में शामिल हो गए.
कर्नाटक में दलित, आदिवासी और मुस्लिमों की आबादी 39 फीसदी है, जबकि सिद्धारमैया की कुरबा जाति की आबादी भी 7 प्रतिशत के आसपास है. 2009 के बाद से कांग्रेस कर्नाटक में इसी समीकरण के सहारे राज्य की राजनीति में मजबूत पैठ बनाए हुई है.
सिद्धारमैया के इसी फॉर्मूले की वजह से 2013 में भी कांग्रेस की सरकार बनी. फॉर्मूले को भुनाकर सिद्धारमैया भी कांग्रेस में बड़े पदों पर पहुंचे और 2009 से ही विधानसभा में विधायक दल के नेता हैं.
सिद्धारमैया का अहिन्दा फॉर्मूला क्यों हिट?
बीजेपी की लिंगायत-ब्राह्मण और जेडीएस के वोक्कालिंगा वोट बैंक के मुकाबले अहिन्दा की आबादी अधिक है. 2018 में कम सीट आने के बावजूद कांग्रेस का वोट प्रतिशत बीजेपी से अधिक था. इस बार भी कांग्रेस को 43 प्रतिशत वोट मिला है.
5 प्रतिशत वोट बढ़ने की वजह से इस बार कांग्रेस की करीब 60 सीटें बढ़ गई हैं. कर्नाटक की सियासत में सिद्धारमैया की पैठ कल्याण-कर्नाटक और मुंबई-कर्नाटक एरिया में है.
कांग्रेस इस बार मुंबई-कर्नाटक की 7 जिलों की 48 में से 30 सीटों पर जीत हासिल की है, जबकि हैदराबाद कर्नाटक के 55 में से करीब 40 सीटों पर कांग्रेस को जीत मिली है. इन इलाकों में सिद्धारमैया ने ही कांग्रेस उम्मीदवारों के लिए मोर्चा संभाला था.
शिवकुमार पर सिद्धारमैया का पलड़ा कैसे पड़ा भारी, 2 प्वॉइंट्स
1. वरिष्ठता का मसला- 75 साल के सिद्धारमैया 45 साल से राजनीति में है और संगठन-सरकार में टॉप पोस्ट पर रह चुके हैं. सिद्धारमैया कर्नाटक में 2 बार उपमुख्यमंत्री और एक बार मुख्यमंत्री रह चुके हैं. सिद्धारमैया ने हाईकमान से एक मौका और देने की अपील की थी.
इसके अलावा, सिद्धारमैया को संगठन चलाने का भी तजुर्बा है. सिद्धारमैया कांग्रेस और जेडीएस में प्रदेश अध्यक्ष रह चुके हैं. इस वजह से उनके पास विधायकों का समर्थन भी है. सिद्धारमैया ने चुनाव के बाद उम्र का हवाला देकर सिर्फ 2 साल के लिए मुख्यमंत्री की कुर्सी मांगी, जिसे हाईकमान ने स्वीकार कर लिया.
कांग्रेस हाईकमान सिद्धारमैया को नाराज कर किसी भी तरह से अहिन्दा वोटबैंक से हाथ नहीं धोना चाहता है, इसलिए उनके रिटायर होने तक एक समझौते के तहत मुख्यमंत्री की कुर्सी सिद्धारमैया को दे दी.
2. विधायकों का समर्थन- बेंगलुरु में कांग्रेस हाईकमान की ओर से भेजे गए ऑब्जर्वर ने सीक्रेट बैलेट के जरिए विधायकों की राय ली. मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक 75 से अधिक विधायकों ने सिद्धारमैया के पक्ष में वोट किया.
सिद्धारमैया के मुकाबले शिवकुमार का पलड़ा काफी कमजोर रहा. शिवकुमार के समर्थक 66 विधायकों के समर्थन का दावा करते रहे. हालांकि, अंत में शिवकुमार ने सभी 35 विधायकों के नेता होने की बात कही.
वोटिंग की वजह से हाईकमान सिद्धारमैया की दावेदारी को खारिज नहीं कर पाया. हाईकमान को कर्नाटक में ऑपरेशन लोटस का भी डर सता रहा था. इसलिए हाईकमान ने रिस्क नहीं लिया और शिवकुमार के बदले सिद्धारमैया के नाम पर ही मुहर लगा दी.
3. लोकसभा चुनाव पर फोकस- कांग्रेस 2013 और 2018 में सरकार बनाने के बावजूद लोकसभा चुनाव में बढ़िया परफॉर्मेंस नहीं कर पाई थी. इसलिए हाईकमान इस बार ज्यादा सतर्क है. कर्नाटक में लोकसभा की 28 सीटें हैं, जिसमें से 2019 में कांग्रेस को सिर्फ एक सीटें मिली थी.
कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे भी गुलबर्ग से चुनाव हार गए थे. अध्यक्ष का गृहराज्य होने की वजह से कांग्रेस ने कर्नाटक में इस बार 20 सीटें जीतने का लक्ष्य रखा है. कांग्रेस कर्नाटक में इसी उर्जा के साथ चुनाव में जाने की रणनीति पर काम कर रही है.
इसमें शिवकुमार और सिद्धारमैया सबसे फिट हैं. कांग्रेस 2024 तक सिद्धारमैया और शिवकुमार की जोड़ी को बनाए रखना चाहती है. कांग्रेस के इस प्रयोग में सिद्धारमैया शिवकुमार पर 20 पड़ गए.
सिद्धारमैया के अब 3 किस्से
येदियुरप्पा के मुख्यमंत्री बनने में अड़ंगा लगाया- साल 2004 के चुनाव में कांग्रेस सत्ता में वापसी करने से चूक गई. एसएम कृष्णा के नेतृत्व में कांग्रेस दूसरे नंबर की पार्टी बन गई. 58 सीट जीतकर 5 साल पुरानी जेडीएस किंगमेकर बन गई.
केंद्र में सरकार खोने के कारण बीजेपी किसी भी तरह कर्नाटक की सत्ता में आना चाह रही थी. जेडीएस से बातचीत भी शुरू हुई, लेकिन सिद्धारमैया ने इसे सफल नहीं होने दिया. जेडीएस ने एक बयान जारी कर कहा कि धर्मनिरपेक्ष पार्टी के साथ ही गठबंधन किया जाएगा.
इसके बाद बीजेपी बैकफुट पर आ गई और सरकार बनाने से चूक गई. समझौते के तहत कांग्रेस के धरम सिंह मुख्यमंत्री बने और जेडीएस कोटे से सिद्धारमैया उपमुख्यमंत्री. हालांकि, पुत्रमोह में फंसे देवेगौड़ा को सिद्धारमैया ज्यादा दिनों तक रोक नहीं पाए.
2006 में जेडीएस और बीजेपी का गठबंधन हो गया और एचडी कुमारस्वामी मुख्यमंत्री बने. हालांकि, एक साल के बाद येदियुरप्पा भी मुख्यमंत्री बनने में कामयाब रहे. इसी बीच सिद्धारमैया ने जेडीएस से अपनी राह अलग कर ली.
बगावत के बाद मैसूर में देवगौड़ा को चित किया- 2005 में सिद्धारमैया ने बीजेपी को समर्थन की रणनीति का विरोध किया और देवगौड़ा के खिलाफ ही मोर्चा खोल दिया. देवगौड़ा ने सिद्धारमैया को पार्टी से बर्खास्त कर दिया, जिसके बाद सिद्धारमैया ने विधानसभा की सदस्यता से भी इस्तीफा दे दिया.
सिद्धारमैया देवगौड़ा के गढ़ मैसूर के चामुंडेश्वरी से विधायक थे. इस्तीफा देने के बाद कांग्रेस के टिकट पर सिद्धारमैया मैदान में उतरे. सामने थे जेडीएस के एम शिवाबासप्पा. शिवाबासप्पा के समर्थन में देवगौड़ा उनके बेटे कुमारस्वामी और येदियुरप्पा तीनों ने कैंपेन किया.
उपचुनाव में सिद्धारमैया अकेले मोर्चा पर डटे रहे. सिद्धारमैया के लिए चुनाव परिणाम संजीवनी का काम किया और वे 257 वोट से जीतने में सफल रहे. इसके बाद चांमुडेश्वरी से सिद्धारमैया कभी नहीं जीत पाए.
वोटिंग में खरगे को मात दी, नरेंद्र मोदी ने उठाया मुद्दा- 2013 में कांग्रेस पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में वापसी की. कांग्रेस में मुख्यमंत्री पद के 3 दावेदार थे. 1. सिद्धारमैया 2. मल्लिकार्जुन खरगे और 3. जी परमेश्वर
कांग्रेस हाईकमान ने उस वक्त मधुसूदन मिस्त्री, जितेंद्र सिंह और लुइज़िन्हो फलेरियो को ऑब्जर्वर बनाकर बेंगलुरु भेजा. सीक्रेट वोटिंग कराई गई, जिसमें सिद्धारमैया को सबसे ज्यादा मत मिले. सिद्धारमैया इसके बाद कर्नाटक के मुख्यमंत्री बने.
2018 चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस मुद्दे को उठाया था. मोदी ने कलबुर्गी की एक रैली में कहा था कि 2013 में कांग्रेस ने खरगे के चेहरे को चुनाव में आगे किया, लेकिन मुख्यमंत्री बनाने की बात आई तो कई जगह से पानी पीकर आए सिद्धारमैया को कुर्सी सौंप दी.
जाते-जाते सिद्धारमैया के राजनीतिक सफर के बारे में जानिए...
1978 में मैसूर तालुका से जीत दर्ज करने के साथ ही सिद्धारमैया एक्टिव पॉलिटिक्स में आए. 1983 के चुनाव में उन्होंने जनता पार्टी के तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष एचडी देवगौड़ा से चामुंडेश्वरी सीट से टिकट मांगने गए, लेकिन देवगौड़ा ने टिकट देने से इनकार कर दिया.
सिद्धारमैया इसके बाद निर्दलयी मैदान में उतर गए. तेजतर्रार भाषण और रणनीति की वजह से देवगौड़ा के गढ़ चामुंडेश्वरी से सिद्धारमैया चुनाव जीतने में सफल रहे. उन्होंने इसके बाद रामकृष्ण हेगड़े सरकार को अपना समर्थन दे दिया.
1985 के मध्यावधि चुनाव में जनता पार्टी के टिकट पर सिद्धारमैया चामुंडेश्वरी से जीतने में सफल रहे. इस बार उन्हें कैबिनेट में भी शामिल किया गया. सिद्धारमैया 1989 में चामुंडेश्वरी सीट से चुनाव हार गए, जिसके बाद उन्होंने संगठन में काम करना शुरू कर दिया.
1992 में सिद्धारमैया को जनता दल का प्रदेश महासचिव बनाया. 1994 के चुनाव में सिद्धारमैया फिर से विधायक बनने में सफल रहे. देवगौड़ा सरकार में उन्हें वित्त मंत्री बनाया गया. 2 साल बाद ही देवगौड़ा प्रधानमंत्री बनकर दिल्ली चले गए.
देवगौड़ा के उत्तराधिकारी चयन की बात जब सामने आई तो सिद्धारमैया रेस में सबसे आगे थे, लेकिन जेएच पटेल सीएम बनने में सफल रहे. कैबिनेट में सिद्धारमैया को उपमुख्यमंत्री बनाया गया.
1999 आते-आते जनता दल में टूट हो गई और देवगौड़ा ने जनता दल सेक्युलर का गठन किया. सिद्धारमैया देवगौड़ा के साथ चले गए. उन्हें जेडीएस कर्नाटक की कमान मिली. 1999 में जेडीएस कर्नाटक में 10 सीटें जीतने में सफल रही.
2004 के चुनाव में जेडीएस को 58 सीटें मिली और पार्टी ने कांग्रेस को समर्थन दे दिया. सिद्धारमैया कांग्रेस के साथ उपमुख्यमंत्री बनने में कामयाब रहे. इधर, जेडीएस के भीतर कुमारस्वामी का वर्चस्व बढ़ता जा रहा था.
2005 में समर्थन को लेकर देवगौड़ा और सिद्धारमैया के बीच अनबन हो गई. सिद्धारमैया जेडीएस से निकाले गए. इसके बाद उन्होंने कांग्रेस का दामन थाम लिया.
2009 में कांग्रेस ने येदियुरप्पा को चुनौती देने के लिए सिद्धारमैया को नेता प्रतिपक्ष बनाया. सिद्धारमैया 2013 में कांग्रेस को सत्ता में वापस लाने में सफल रहे. सिद्धारमैया 2013 में पहली बार कर्नाटक के मुख्यमंत्री बनने में कामयाब रहे.