बिहार: देश के पूर्व दिवंगत प्रधानमंत्री राजीव गांधी भारत में कंप्यूटर युग की शुरुआत करना चाहते थे. उस वक्त लोगों ने रोज़गार छिनने और दूसरी परेशानियों का हवाला देकर इसका विरोध किया. नब्बे के दशक में बिहार के मुख्यमंत्री रहे लालू यादव से जब पत्रकारों ने आईटी (इन्फोर्मेशन टेक्नोलोजी) के बारे में पूछा, तो लालू ने जान बूझकर कहा कि आईटी माने इनकम टैक्स? लालू ने यह भी कहा था कि हमारे वोटर ना तो अखबार पढ़ते हैं और ना ही टीवी देखते हैं. आईटी-वाईटी तो बहुत दूर की कौड़ी है. उस वक्त बहुत सारे राजनेता वोटर की पृष्ठभूमि के आधार पर काम करते थे. माने जाति, आर्थिक आधार इत्यादि.
जब देश की ज़्यादातर पार्टियां जातियों के अंक-गणित और समीकरणों पर काम कर रही थीं, उस वक्त बीजेपी ने इन सभी के साथ-साथ नए तकनीक पर आधारित वर्चुअल दुनिया में कदम रख दिया था और सोशल मीडिया पर पहुंच बनाने में कामयाब हो रही थी. 2014 के लोक सभा चुनाव में बीजेपी ने तमाम पार्टियों को पीछे धकेल दिया.
जब नरेंद्र मोदी ने जनवरी, 2009 में ट्विटर पर अपना अकाउंट खोला, तो उस वक्त विरोधी रहे नीतीश कुमार ने चुटकी लेते हुए कहा था कि यह चीं-चीं चें-चें क्या होता है? दरअसल ट्विटर का अर्थ होता है चिड़ियों का चहचहाना जिसकी आवाज़ चीं-चीं, चें-चें जैसी सुनाई पड़ती है. पर नीतीश जल्द ही समझ गए और उन्होंने भी अपना अकाउंट मई, 2010 में खोल लिया. आज उनके पांच मिलियन से ज़्यादा फॉलोवर हैं. वहीं, लालू यादव ने भी ट्विटर अकाउंट खोल कर ट्वीट करना शुरू कर दिया. लालू के भी पांच मिलियन से ज़्यादा फॉलोवर हैं. हर पार्टी अब सोशल मीडिया की महत्ता समझती है और उसका इस्तेमाल करती है. आम आदमी पार्टी ने भी इसका भरपूर इस्तेमाल कर अपनी पहुंच बढ़ाई. हालांकि राजनीति में ट्विटर के सफल इस्तेमाल के लिए अमरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा को श्रेय जाता है, जिन्होंने 2008 के अपने चुनाव में इसका उपयोग किया. बाद में नरेन्द्र मोदी ने भारत में वही किया.
बिहार के डिप्टी सीएम सुशील मोदी समेत बीजेपी के छोटे-बड़े नेता सोशल मीडिया के तमाम प्लेटफॉर्म पर मिल जाएंगे. हाल ही में अमित शाह ने बिहार में वर्चुअल रैली कर अपनी पहुंच का एहसास कराया. रैली के बाद एक डाटा ज़ारी किया गया, जिसमें यह जताने की कोशिश की गई कि बीजेपी के पास डिजिटल रूप में कितने लोगों तक पहुंच है. आजकल बिहार में नीतीश की पार्टी जदयू पहली बार तकनीक के इस्तेमाल को लेकर अपने कार्यकर्ताओं को ट्रेनिंग दे रही है. बिहार के प्रखंड और पंचायत स्तर तक के नेताओं से वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के ज़रिए संपर्क किया जा रहा है. साथ ही वाट्सएएप ग्रुप, फेसबुक जैसे माध्यम से जुड़ने के लिए प्रोत्साहित भी किया जा रहा है. लोक जनशक्ति पार्टी के नेता चिराग पासवान हों या आरजेडी के तेजस्वी यादव, जन अधिकार पार्टी के पप्पू यादव, रालोसपा के उपेंद्र कुशवाहा या बिहार कांग्रेस के नेता, सभी काफी एक्टिव हैं. कांग्रेस ने तो औपचारिक तरीके से डिजिटल सदस्यता ग्रहण करवाने के लिए मुहीम ही छेड़ रखी है.
इन मामलों में चुनाव स्ट्रैटजिस्ट रहे प्रशान्त किशोर ने तो कई प्रयोग भी किए. अब स्थिति यह है कि ट्विटर पर न सिर्फ किसी को ट्रोल कराया जाता है, बल्कि ट्रेंड भी कराया जाता है. यानी जिसकी जितनी बड़ी वर्चुअल सेना होगी उसकी शान उतनी ही बड़ी होगी. भले ही मतदान केंद्र में ईवीएम मशीन पर नतीजा जो आए पर डिजिटल दुनिया में लड़ाई इसी तरह से होती रहेगी.
मतदान केंद्र पर तो लोगों को पहुंचना पड़ेगा पर वोट किसे दें, इसमें जो पार्टी मतदाताओं के दिमाग में जितने प्रभावशाली तरीके से छाप छोड़ जाएगा उसका पलड़ा भारी रहेगा. डिजिटल या वर्चुअल दुनिया धीरे-धीरे प्रजातंत्र में पांचवे स्तंभ के रूप में उभर रहा है, क्योंकि इस दुनिया में टू-वे संवाद होता है. लोगों को रियल टाइम में सभी जानकरी और कमेंट भी मिलते रहते हैं. इसलिए इस बार बिहार चुनाव में सभी पार्टियां वर्चुअल सेना तैयार करने में जुटी हुई हैं. कारण यह भी है कि इसमें नई पीढ़ी की दिलचस्पी ज़्यादा है, इसलिए उन्हें अपने साथ लाने की कोशिशें भी तेज हो गई हैं. नीतीश कुमार ने सात निश्चय योजना के तहत बिहार के सभी विश्वविद्यालयों में इंटरनेट फ्री में दिया. बिहार सरकार की योजना के तहत हर पंचायत में भी हाई-स्पीड इंटरनेट पहुंचाई जा रही है. यह कितना कारगर है इसका पूरा आकलन अभी नहीं हो सका है.
इंटरनेट की स्थिति जो भी हो, बिहार में वर्चुअल पॉलिटिक्स का आगाज़ हो चुका है. बीजेपी ने कोरोना काल में भी एलइडी स्क्रीन लगाकर लोगों को जोड़ ही लिया. तरीका अच्छा है पर लोग क्या स्क्रीन पर भाषण सुन कर मान जाएंगे? बिहार में डिजिटल खाई है. उसको पाटने में इस तरह की रैली कितनी कारगर होगी यह चंद महीने में पता चल जाएगा. पर बिहार ही नहीं पूरे देश में बिहार चुनाव को राजनीति के रिइंवेंट होने के लिए याद किया जाएगा. कह सकते हैं डिजिटल माध्यम ने राजनीति को नया विस्तार दिया है और इसे लोगों के लिए सहभागी बनाया है. डिजिटल खाई की बात जरूर हो रही है पर यह भी समझा जाना चाहिए कि उसको पाटने के लिए राजनीतिक पार्टियों में कई लोग इंफ्लुएंसर्स के रोल में होते हैं, जो जनता और पार्टी के बीच सेतु का काम करते हैं.
कोरोना की वजह से ही सही पर ये राजनीति के बदलने का दौर है, क्योंकि पॉलिटिक्स पहले ही वर्चुअल हो चुका है. यूं भी कह सकते हैं कि इस काल में डिजिटल माध्यम प्रजातंत्र के पांचवे स्तम्भ के तौर पर बड़ी मजबूती से उभरा है. पर कोरोना महामारी ने सभी पार्टियों को डिजिटल सेना तैयार करने की चुनौती दे दी है.