नई दिल्ली: कैराना उपचुनाव में बीजेपी के आला नेताओं को दलितों से बड़ी आस थी. 20-30% दलित उन्हें हर हालत में मिलने की उम्मीद थी. इसके अलावा EVM पर हाथी का निशान न होने पर उन्हें उम्मीद थी कि बटन फूल पर यानी कमल पर ही दबेगा और, ऐसा मानना बीजेपी की नासमझी भी नहीं था. परंपरागत तौर पर दलित ने कभी भी नल यानी आरएलडी को वोट नहीं किया है. उल्टा, जाटों की पार्टी माने जाने वाली रालोद को हमेशा हराने के काम किया है.


लेकिन, कैराना उपचुनाव में दलितों ने जिस तरह खीजकर बीजेपी के खिलाफ न सिर्फ वोट किया, बल्कि आरएलडी को कुबूल कर लिया, वो बेहद चौंकाने वाला है. पश्चिमी यूपी में जाटों और दलितों की कभी पटरी बैठी नहीं है. इसलिए, कभी भी ये वोटबैंक एक नहीं हुआ और इसीलिए, बीजेपी मान कर चल रही थी कि दलित उत्साहित होकर नल को वोट नहीं करेगा. लेकिन, दलित, घर से निकला भी और वोट भी बीजेपी के खिलाफ किया.


दलित वोटों के चलते और थानाभवन विधानसभा सीट हार गई बीजेपी


दलित वोटों के चलते ही बीजेपी नकुड़, गंगोह और थानाभवन विधानसभा सीट हार गई. दलितों के भरोसे ही बीजेपी को नकुड़ और गंगोह सीट पर भारी बढ़त की उम्मीद थी. लेकिन, आरएलडी प्रत्याशी तबस्सुम हसन को सबसे ज़्यादा बढ़त नकुड़ और गंगोह से ही मिली. इसकी वजह दलितों का वोट रहा.


दलितों की बीजेपी से चिढ़ की वजह


पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में हुए दलितों और ठाकुरों के बीच हुए जातीय दंगों का असर कम नहीं हुआ है. दलित इस मामले में अपने साथ हुई नाइंसाफी के खिलाफ खुलकर बोलते हैं. इसके अलावा हाल में भारत बंद के दौरान दलितों पर थोक भाव में हुए मुकदमे, भीम आर्मी के संस्थापक चंद्रशेखर का जेल में होना भी एक बड़ा कारण है. इसके अलावा भीम आर्मी का नकुड़ और गंगोह में बीजेपी के लिए प्रचार भी वोटों के नुकसान का सबब बना.


कैराना चुनाव के नतीजों को दलितों की इसी नाराजगी से जोड़कर देखा जा सकता है. तबस्सुम हसन की जीत से साफ है कि बदले माहौल में दलित और मुसलमान एकसाथ आए हैं और सबसे अहम बात की ये जाट पार्टी के झंडे तले एक हुए हैं.


दलितों को करीब लाने की तमाम कोशिशें की गईं


हालांकि ऐसा भी नहीं है कि बीजेपी दलितों के इस गुस्से से वाकिफ नहीं थी. दलितों को करीब लाने की तमाम कोशिशें की गईं. बीजेपी के केंद्रीय मंत्री से लेकर विधायक नेता तक दलितों बहुल इलाकों में जाकर रात्रि विश्राम और उनके यहां खाना-पीना किया. लेकिन बीजेपी की इन कोशिशों का ज्यादा असर नहीं देख गया. ज्यादातर इलाकों के दलित समुदाय के लोगों ने इसे बेवजह का दिखावा माना.


बीजेपी से दलित समुदाय नाराज था और मुसलमान हमेशा से नाराज रहे हैं


दलित समुदाय नाराज था और मुसलमान हमेशा से नाराज रहे हैं. दो समुदायों की नाराजगी ने आरएलडी के उम्मीदवार तबस्सुम हसन के लिए जीत का रास्ता तैयार कर दिया.समाजवादी पार्टी और बीएसपी के साथ आने और उसके बाद इस गठजोड़ से आरएलडी के हाथ मिलाने के बाद से ही ये साफ हो गया था कि बीजेपी के सामने मुश्किल आने वाली है. वोटों का अंकगणित साफ था. कैराना लोकसभा सीट पर तकरीबन 16 लाख वोटर्स हैं. इनमें 5 लाख मुस्लिम, 4 लाख पिछड़ी जाति (जाट, गुर्जर, सैनी, कश्यप, प्रजापति और अन्य शामिल) और करीब ढाई लाख वोट दलितों के हैं. इसमें डेढ़ लाख वोट जाटव दलित के हैं और 1 लाख के करीब गैरजाटव दलित मतदाता हैं.