लखनऊ: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मऊ की चुनावी रैली में कटप्पा और बाहुबली का जिक्र किया था. उस बयान ने खूब सुर्खियां बटोरी थीं, पीएम के उसी बयान को ध्यान में रखकर अगर यूपी की जनता को कटप्पा मान लें और राजनैतिक पार्टियों को बाहुबली, तो दो सवाल उठना लाजमी है कि आखिर वो दो बाहुबली कौन होगें जिसे यूपी की कटप्पा यानि जनता मार देगी और दूसरा ये कि आखिर कटप्पा ने बाहुबली को क्यों मारा ?  मैं जनता को कटप्पा इसलिए मान रहा हूं क्योंकि कटप्पा की वफादारी किसी व्यक्ति के प्रति नहीं बल्कि सिंहासन (लोकतंत्र) के प्रति है, ये सियासी कटप्पा 5 साल में एक बार निकलता है लेकिन जब इसकी वोटरूपी तलवार चलती है तो अच्छे-अच्छों के तख्त पलट जाते हैं.


राजनीतिक दलों ने समीकरण साधने में नहीं छोड़ी कोई कसर


सबसे पहले दोनों सवालों के जवाब समीकरण के जरिए तलाशने की कोशिश करते हैं क्योंकि नेता जानते हैं कि सियासत सलीके से नहीं बल्कि समीकरण से चलती है. 2017 के विधानसभा चुनाव में सभी राजनीतिक दलों ने समीकरण साधने में कोई कसर नहीं छोड़ी. आज बात उन्हीं समीकरणों की होगी, सिलसिलेवार होगी, एक-एक धागा खोलकर रख देने वाली होगी.

शुरुआत कांग्रेस से करते हैं, आज की तारीख में कांग्रेस को वो जीरो माना जा रहा है जो किसी भी नंबर के आगे लग जाए तो बड़ा...बहुत बड़ा हो जाता है. 2007 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 8.67 फीसदी वोट मिले और 2012 में कांग्रेस का वोट शेयर बढ़कर 11.63 फीसदी हो गया था. इसके बावजूद मेरा मानना है कि यूपी में कांग्रेस का कोई बड़ा वोट बैंक नहीं हैं. कांग्रेस के जितने भी प्रत्याशी जीते वो अपने दम पर, अपने नाम पर जीते, चाहे वो इलाहाबाद उत्तरी से अनुग्रह नारायण सिंह हों, चाहे मथुरा से प्रदीप माथुर हों या कानपुर के किदवई नगर से अजय कपूर हों या देवरिया के रुद्रपुर से अखिलेश प्रताप सिंह या फिर रामपुर खास से लगातार 9 बार जीतते आए प्रमोद तिवारी और उपचुनाव में उनकी बेटी आराधना हों.  सबको अपने काम और अच्छी छवि की वजह से जीत मिली. ऐसे में जितने भी पोल पंडित कांग्रेस का वोट बैंक एसपी को ट्रांसफर होने का गणित लगाकर अखिलेश की जीत का दावा कर रहे हैं यकीनन वो 11 मार्च को गलत साबित होने वाले हैं.


अखिलेश ने 36 दिनों में की 200 से ज्यादा रैलियां


अगर समाजवादी पार्टी चुनाव जीतती है तो उसकी सिर्फ और सिर्फ एक वजह अखिलेश यादव का नेतृत्व होगा, जिसमें उनकी अर्द्धांगिनी डिंपल यादव ने बखूबी साथ निभाया है. अखिलेश ने इस चुनाव में जीतोड़ मेहनत की है, 36 दिनों में 200 से ज्यादा रैलियां की जिसका नतीजा ये हुआ कि अखिलेश को सनबर्न हो गया, चेहरा सांवला पड़ गया. वाकई स्टार प्रचारक होना कोई आसान काम नहीं!

रही बात राहुल गांधी की तो उनमें वो धार नहीं है, ना ही उनकी अपील का कोई बड़ा असर होता दिख रहा है. कांग्रेस ने शीला दीक्षित को आगे लाकर ब्राह्मणों को साधने की कोशिश जरूर की थी लेकिन गठबंधन के बाद वो गणित भी फेल हो गया. 4 बार अखिलेश के साथ हुई साझा रैलियों में अखिलेश जिंदाबाद के नारे गूंजते रहे, कई मौकों पर मैंने गौर किया कि अखिलेश कार्यकर्ताओं से राहुल के नारे लगाने का इशारा करते दिखे.

एसपी के मुस्लिम वोट बैंक में BSP ने की बड़ी सेंधमारी


इसमें कोई शक नहीं है कि कांग्रेस को एसपी के वोटबैंक का फायदा मिल सकता है, लेकिन कांग्रेस के साथ का फायदा एसपी को मिलता है या नहीं ये तो देखने वाली बात होगी. दोनों का गठबंधन सिर्फ और सिर्फ एक वजह हुआ था कि मुस्लिम वोट रत्ती भर भी खिसकने ना पाएं. दोनों ने कोशिश बहुत की लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं है कि इस बार अखिलेश की राह आसान नहीं हैं, बीएसपी ने 100 मुस्लिम उम्मीदवार उतार कर एसपी के मुस्लिम वोट बैंक में बड़ी सेंधमारी की है. 26 विधानसभा सीटें ऐसी हैं जहां एसपी-बीएसपी के मुस्लिम उम्मीदवारों की सीधी टक्कर है जिसका निश्चित रूप से बीजेपी को फायदा मिल सकता है.

वैसे बीजेपी की राह में भी कम कांटे नहीं हैं बीएसपी ने कमल खिलने के रास्ते पर भी अपना हाथी खड़ा कर दिया है, इसमें जो बड़ा समीकरण है जिस पर कम ही लोगों का ध्यान गया वो ये कि बीएसपी ने 113 सवर्णों को टिकट दिया है जिनमें 66 ब्राह्मण हैं जो बीजेपी के लिए मुसीबत का सबब बन सकता है, पोल पंडित मानते हैं कि सवर्ण वोट (करीब 20 फीसदी) ज्यादातर बीजेपी को ही मिलता है लेकिन इस बार बीएसपी भी कुछ खेल करने में कामयाब दिखती नजर आ रही है. रही बात बीएसपी की तो मायावती का पूरा जोर दलित और मुस्लिमों को साधने पर ही रहा जिससे पार्टी को दूसरे वर्गों का वोट 2007 के तर्ज पर मिलना लगभग ना के बराबर है, बीएसपी कानून व्यवस्था के मोर्चे पर खुद को खरी बताती है लेकिन मुख्तार अंसारी जैसे बाहुबली को टिकट देने से उसकी इस छवि पर भी धक्का लगा है.

बीजेपी के सीधे लड़ाई में होने से त्रिकोणीय हो गया मुकाबला


कुल मिलाकर यूपी चुनाव में पेंच अब भी फंसा है, अब बीजेपी भी वो बीजेपी नहीं रही, 2014 के लोकसभा चुनाव ने सारे सियासी समीकरण पलट कर रख दिए हैं. 2014 में बीजेपी को 328 सीटों पर बढ़त मिली थी और इस बार भी बीजेपी को प्रधानमंत्री मोदी के नाम का बड़ा फायदा मिलता दिख रहा है, जाहिर सी बात है कि इस बार बीजेपी के सीधे लड़ाई में होने से मुकाबला त्रिकोणीय हो गया है. सभी पार्टियों ने चुनाव जीतने के लिए कोई कसर छोड़ी नहीं, मायावती ने जमकर जनसभाएं की, बीजेपी की तरफ से पीएम मोदी खुद मोर्चा संभाला तो उधर अखिलेश ने रैलियों का रेला लगा दिया.

खैर नतीजे कुछ भी हों, लेकिन अखिलेश ने भारतीय राजनीति में अपना कद बहुत बड़ा कर लिया, अगर नतीजे एसपी के पक्ष में गए तो बड़ी बात नहीं होगी कि 2019 में मोदी के खिलाफ अखिलेश के नाम की भी चर्चा होने लगे. अखिलेश ने बने बनाए ढर्रे को तोड़ते हुए ना जाति की बात की और ना ही धर्म की. वोट मांगा तो अपने काम और विकास के नाम पर. अखिलेश ने ना ही पिता मुलायम की तरह मुसलमानों का हितौषी बनने की कोशिश की और ना ही मायावती की तरह दलित और मुस्लिम वोटरों को साधने की कोशिश की और ना ही बीजेपी की तरह हिंदुत्व की छवि बनाने की कोशिश की. हां, अखिलेश ने काशी विश्वनाथ मंदिर में पूजा-पाठ कर समाजवादी पार्टी की कट्टर मुस्लिम समर्थक छवि को तोड़ने की कोशिश जरूर की.

किस बाहुबली के गर्दन पर गिरती है चुनावी कटप्पा की तलवार ?


यूपी के इस सियासी दंगल में अखिलेश का सीधा मुकाबला बीजेपी के सबसे बड़े नेता और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से था, पीएम ने अपनी हर रैली में अखिलेश पर निशाना साधा और अखिलेश ने भी सामने आकर पटलवार करते हुए सीधा हमला बोला. करीब 1 महीने से ज्यादा चले इस महायुद्ध में जीत किसी की भी हो 11 मार्च 2017 की तारीख ऐतिहासिक होने वाली है. वो तारीख किसी का कद बढ़ा सकती है तो किसी का घटा भी, ये भी हो सकता है कि किसी का सियासी करियर भी खत्म कर दे. इंतजार बहुत हो चुका, अब फैसले की घड़ी है, मुझे भी बेसब्री से इंतजार है. देखना होगा इस चुनावी कटप्पा की तलवार किस बाहुबली के गर्दन पर गिरती है ?

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आकड़ें लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)