बीएसपी के मामूली नेता से पार्टी में मायावती के बाद नंबर दो का नेता बने जयप्रकाश का राजनैतिक सफ़र अब ख़त्म समझिए. जिस जयप्रकाश को पार्टी के कार्यकर्ता तो छोड़िये नेता तक भी नहीं जानते थे वो कैसे बहिन जी के बाद बीएसपी में सबसे ताक़तवर नेता बन गए थे?
तीन महीने पहले मायावती ने जयप्रकाश सिंह को बीएसपी का उपाध्यक्ष बनाया था. बहिनजी ने अपने भाई आनंद कुमार को हटा कर उन्हें ये ज़िम्मेदारी दी थी. उन्हें राज्य सभा सांसद वीर सिंह के साथ पार्टी का नेशनल कोऑर्डिनेटर भी बनाया गया था.
पहली बार बीएसपी में ये पद बनाया गया था. पार्टी के संविधान के मुताबिक़ अध्यक्ष के बाद सबसे बड़ा पद और क़द उपाध्यक्ष का ही होता है. जयप्रकाश न तो कभी सांसद रहे, न ही विधायक. बीएसपी संगठन में भी में उन्हें कभी बड़ी ज़िम्मेदारी नहीं दी गई थी.
राज्य और ज़िला स्तर की छोड़िए, वे बीएसपी में कभी बूथ या सेक्टर के प्रभारी तक नहीं रहे. इसीलिए जब बहिन जी ने जब एक अनजान नेता को सीधे पार्टी का उपाध्यक्ष बना दिया तो सब हैरान रह गए. अधिकतर नेताओं और कार्यकर्ताओं ने तो उनका नाम तक नहीं सुना था लेकिन बहिन जी का फ़ैसला तो समझिए पत्थर की लकीर होती है.
जयप्रकाश सिंह दलित समाज में जाटव जाति के हैं. मायावती भी उसी बिरादरी की हैं. वे गौतमबुद्ध नगर के दादरी इलाके के रहने वाले हैं. अब आप सोच रहे होंगे कि आख़िर बहिनजी ने कैसे जय प्रकाश को ढूँढा. मायावती से जयप्रकाश को धर्मवीर अशोक ने मिलवाया था.
बुलंदशहर के रहने वाले अशोक बीएसपी के एमएलसी हैं. साथ ही राजस्थान में पार्टी के प्रभारी भी. बहिन जी से कह कर उन्होंने जयप्रकाश को अपनी टीम में शामिल कर लिया था. अशोक के साथ रह कर जयप्रकाश राजस्थान का काम देखने लगे थे.
अशोक जब भी मायावती से मिलते, जयप्रकाश की तारीफ़ करना नहीं भूलते थे. एक दिन बहिनजी ने जयप्रकाश को बुलाया उनसे लंबी बातचीत की.
कहते हैं कामयाबी कभी कभी सर पर सवार हो जाती है. जयप्रकाश सिंह के साथ भी ऐसा ही हुआ. बीएसपी का उपाध्यक्ष और नेशनल कोऑर्डिनेटर बनते ही उन्होंने देश भर का दौरा शुरू कर दिया. महाराष्ट्र में 4, तमिलनाडु में 2, कर्नाटक में 3, केरल में 2 और आँध्र प्रदेश में भी 2 बैठकें की.
यूपी में उनहोंने वीर सिंह के साथ मिल कर लखनऊ में बीते सोमवार के पहली मीटिंग की थी. दूसरी बैठक मंगलवार को वाराणसी में होनी थी लेकिन उससे पहले ही अपने बड़बोलेपन के चक्कर में जयप्रकाश सिंह का काम लग गया.
पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच मंच से भाषणों में वे खुद को ‘जय’ और साथी नेता वीर सिंह को ‘वीरू’ बताते थे. कहते ते जय और वीरू मिल कर अगले चुनाव में ‘गब्बर सिंह’ का सफ़ाया कर देंगे. मोदी को जयप्रकाश भाषणों में गब्बर कहा करते थे लेकिन क़िस्मत को तो कुछ और ही मंज़ूर था. गब्बर के बदले जय का सफ़ाया हो गया. जयप्रकाश को न माया मिली और न ही वीरू का साथ.