यूपी चुनाव में ऊंट किस करवट बैठेगा? सभी दल जातिगत समीकरण में उलझे!
लखनऊ: जीत अखिलेश की, हार मुलायम की या दोनों की जीत? यह वक्त इसके मंथन का नहीं क्योंकि चुनाव सिर पर हैं. लेकिन सवाल एक ही है परिवारवाद की छांव तले, पले, बढ़े और राजनीति में स्थापित हुए अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश में राजनीति की किसी नई धारा को बढ़ाएंगे या फिर, यादववाद के कुनबे का नया वटवृक्ष फैलाएंगे?
विकास के रोल मॉडल के रूप में अखिलेश ने बनाई छवियह प्रश्न अभी अनुत्तरित है लेकिन यूपी की राजनीतिक तासीर को जानने-परखने वाले इस बात से गुरेज नहीं करते हैं कि विकास के रोल मॉडल के रूप में अखिलेश ने केवल साढ़े 4 सालो में जो विकासवादी, जनप्रिय छवि बनाई है उसका भरपूर और खुला समर्थन पार्टी में तथा अंदर-बाहर, अपना वर्चस्व बनाए रखने की कवायद में मिला. पारिवारिक कलह में बैठे बिठाए मतदाताओं में अखिलेश के पक्ष में संदेश भी गया और लोगों की सहानुभूति भी मिली.
सच है तो केवल इतना कि जो काम मुलायम और अखिलेश के सिपहसलार भी नहीं कर पाए वो चुनाव आयोग ने कर दिया. भले ही इसकी बुनियाद एसपी अखाड़े के अविजित पहलवान खुद मुलायम ने दस्तावेजों की जंग में फिसड्डी बन ही क्यों न रखी हो! लेकिन, एसपी की अंदरूनी कलह से निश्चित रूप से अखिलेश को ऐन चुनावों के समय जो फायदा हुआ है, भारतीय राजनीति में एक नया अध्याय होगा.
...क्योंकि हारे मुलायम नहीं उनके सिपहसालार हैं
पार्टी पर अखिलेश के वैधानिक अधिकार के बाद, इतना तो दिखने लगा है कि उत्तर प्रदेश का चुनावी संघर्ष कड़ा, सीधा और रोचक होगा. पारिवारिक विग्रह और घात-प्रतिघात का खेल भी चलेगा क्योंकि हारे मुलायम नहीं उनके सिपहसालार हैं. हाल के तमाम उदाहरणों से यह साफ है और फिलाहाल दिख भी रहा है कि मुलायम सिंह तटस्थ हैं, आगे बढ़कर अखिलेश का साथ देंगे.
हां, सबसे बड़ी पार्टी बनकर, सत्ता तक पहुंचने का सपना संजोए बीजेपी की चुनौतियां बढ़ेंगी. निश्चित रूप से देश का बड़ा राज्य होने के नाते उत्तर प्रदेश पर सबकी निगाहें हैं जिसमें समाजवादियों की अंतर्कलह को दूसरी पार्टियां सांसें थामें देख रहीं थीं. चुनाव आयोग के फैसले से सिवाए अखिलेश खेमे, साथ में चुनावी वैतरणी पार करने को लालायित 27 सालो से सत्ताविहीन कांग्रेस और सत्ता सुख की आस लगाए बनने जा रहे महागठबंधन के घटकों को छोड़ सबके समीकरण बिगड़ते दिख रहे हैं.
BSP भी दलित-मुस्लिम कार्ड को लेकर बेहद संजीदा
यूपी के चुनावों में जातिगत समीकरण मुख्य होते हैं इसलिए बीजेपी का टिकट वितरण सबसे चुनौती भरा होगा. सत्ता तक पहुंचाने में मुस्लिम मतदाताओं की अहम भूमिका होगी है जिनका प्रतिशत 17 है. यह भी छुपा नहीं है कि 1990 के दशक में, मंदिर मुद्दे के बाद मुस्लिमों ने लामबंद होकर समाजवादी पार्टी के पक्ष में मतदान किया था. अब फिर से अखिलेश की निगाहें इन्हीं समीकरणों पर होंगी लेकिन इस बार बहुजन समाज पार्टी भी जहां दलित-मुस्लिम कार्ड को लेकर बेहद संजीदा है वहीं सवर्णो को लुभाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी है.
14 अप्रैल 1984 को स्थापना के बाद पहले ही चुनाव में बीएसपी को 9.41 प्रतिशत वोट मिले जो 2007 में बढ़कर 30.43 प्रतिशत हुए और 206 सीटों पर विजयश्री मिली. लेकिन 2012 में लगभग 5 प्रतिशत वोट कम होकर 25.91 पर आया और बीएसपी सत्ता की दौड़ में बाहर हो गई. शायद को इसी को सुधारने, 113 सवर्ण तथा 97 मुस्लिम प्रत्याशियों को टिकट देकर बीएसपी ने भी अंक गणित का नया समीकरण रख दिया है.
चर्चाओं में है BSP से टूटकर BJP में आए स्वामी प्रसाद मौर्य की नाराजगी
अस्तित्व की इसी लड़ाई में संघर्शषील कांग्रेस, एसपी का साथ मिल जाने से मुस्लिम मतदाताओं का रुझान अपनी ओर करने बहुत ही नपा-तुला कदम रख प्रभाव बढ़ा रही है. यदि परंपरागत मुस्लिम-यादव मतदाताओं का झुकाव पूर्ववत एसपी की ओर रहता है तो फायदा अखिलेश के महागठबंधन को तय है. वहीं बीजेपी को भी कमतर आंकना बेमानी होगा पर सच यह भी है कि बीएसपी से टूटकर बीजेपी में आए स्वामी प्रसाद मौर्य की नाराजगी चर्चाओं में है.
बताते हैं कि 40 सीटों पर समझौते के साथ आए मौर्य, कुशवाहा और मौर्य समाज के 3-4 प्रतिशत मतों के दम पर, कम से कम 45 से 50 सीटों पर अपना प्रभाव दिखा सकते हैं. लेकिन बीजेपी के रणनीतिकार केवल जिताऊ प्रत्याशियों पर दांव लगाते दिख रहे हैं ऐसे में सभी से संतुलन नामुमकिन होगा? बहरहाल 2014 के लोकसभा चुनावों के प्रदर्शन का अनुभव बीजेपी के साथ जरूर है पर वक्त बदल गया है.
इसी सोशल इंजीनियरिंग पर टिका है उत्तर प्रदेश का सारा खेल
54 प्रतिशत पिछड़ों को एकजुट करना सबकी चुनौती है. बीजेपी ने इसे ही आधार बनाकर, नरेंद्र मोदी को पिछड़ा चेहरा बताकर, यूपी को लुभाया था. जाहिर है यही संदेश अब भी पहुंचाया जाएगा. इसी रणनीति के तहत केशव प्रसाद मौर्य को बीजेपी का अध्यक्ष बनाया गया हो तथा मोदीजी ने हाल की जनसभाओं में खूब महत्व भी दिया. उत्तर प्रदेश का सारा खेल इसी सोशल इंजीनियरिंग पर टिका है और इतना साफ है कि चुनाव एसपी गठबंधन, बीएसपी, बीजेपी के बीच न केवल त्रिकोणीय होगा बल्कि 2019 के आम चुनावों की आधारशिला भी होगा. अगली बाजी कौन मारेगा इसके लिए थोड़ा इंतजार जरूरी है.