श्रीनगर: कोरोना लॉकडाउन का असर आम लोगों की ज़िन्दगी को पहले से ही प्रभीवित कर चुका है लेकिन अब आने वाले दिनों में इसका असर कई परंपरागत कामों को भी अपनी चपेट में ले रहा है. गर्मियां शुरू होने से पहले लाखों की संख्या में गुज्जर और बकरवाल समुदाय के लोग पहाड़ो में भेड़- बकरियां चराने जाते हैं लेकिन इस साल शायद ऐसा नहीं हो सकेगा. क्योंकि अभी तक सरकार ने यह फैसला नहीं लिया है कि इन लोगों को जम्मू से कश्मीर और लदाख जाने कि अनुमति होगी या नहीं.


विभिन गुज्जर और बकरवाल संगठनों ने जम्मू-कश्मीर के गुज्जर और बकरवाल समुदाय को इस साल सीजनल माइग्रेशन (मौसमी प्रवास) ना करने को कहा है और सरकार की तरफ से जारी दिशा निर्देशों का पालन करने की सलाह दी है. इन संगठनों ने और जम्मू-कश्मीर के उप राज्यपाल गिरीश चंद्र मुर्मु को चिट्टी लिख कर सभी लोगों से बात चीत कर इस मामले पर कोई ठोस कदम उठाने का भी आग्रह किया है.


चिठ्ठी में सरकार से कहा गया है कि जम्मू के मैदानी इलाको में गर्मी बढ़ने के साथ ही गुज्जर,बकरवाल , गड्डी और सिपी जनजातियों के लोग अपने पेशों के साथ हिमालय के उपरी इलाकों में जाने की तयारी में है - और यह लोग जम्मू से कश्मीर घाटी के विभिन जिलों से होते हुए लद्दाख के द्रास और कारगिल तक भी जाएंगे जहां वह अगेल पांच महीने गुज़ारेंगे. लॉकडाउन और कोरोना के खतरे को देखते हुए प्रशासन जल्द ही कोई ठोस कदम उठाये.


इस सीजनल पलायन के लिए जामिया गली, गोरा बट्टा, नननसार, रोपड़ी दनहाल पास, बनहाल पास और मुगल रोड का इस्तेमाल होता है और यह सारे इलाके बंद होने के चलते एक बड़ी समस्या का खतरा है. और अगर सरकार ने जल्दी कोई फैसला नहीं लिया तो आने वाले एक-दो दिनों में बड़ी संख्या में यह गुज्जर और बकरवाल जम्मू कश्मीर की सड़कों पर होंगे जिससे कोरना से लड़ी जाने वाली जंग भी खतरे में पड़ सकती है.


जम्मू कश्मीर में ट्राइबल मामलो के झनकार और गुजज्र पहाड़ी नेता डॉ जावेद राही के अनुसार ऐसे माहोल में जब कि पूरे देश में लोगो पर किसी भी तरह के आने जाने पर प्रतिबंद लगा हुवा है और कोरोना का खतरा इसी समय चरम पर है - ऐसे में अगर समुदाय से जुड़े लोग अपने माल मवेशियों के साथ लम्बी यात्रा पर जाते है तो संक्रमण का बहुत जायदा खतरा है.


डॉ राही के अनुसार ऐसे में गुजार और बकरवाल समुदाय को सरकार की तरफ से हरी झंडी मिलने तक कम से कम अपनी वार्षिक यात्रा को रोक देना चाहिए.


पारंपरिक तोर पर पर गुज्जर और बकरवाल समुधाय अप्रैल महीने कि शुरुवात में ही अपनी यात्रा शुरू कर देते है और अगेल 40-45 दिनों में पैदल चल कर पहाड़ो में अपने अपने निर्दारित सिथानो पर पहुँच जाते है. आम तो पर यह सीथल उप्परी पहाड़ी ईलाको में होते है.


लेकिन अगर सरकार यात्रा को रोकने का फैसला लेती है तो ईन समुदाय को बारी नुक्रेसान की आशंका है. मैदानी ईलाको में गर्मी के चलते ईन के जानवरों को खाने पीने की कमी होगी जिस से लाखो की संख्या में मवेशी बूख पियास से मर जाए गे. ईसी लिए सरकार को जल्द ही कोई फैसला लेना पड़ेगा.


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