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स्वास्थ्य व्यवस्था का बुरा हाल: देश में 11000 मरीजों पर सिर्फ एक डॉक्टर, जानिए- मेडिकल दुर्दशा की पूरी सच्चाई

नेशनल हेल्थ प्रोफाइल (2018) के अनुसार भारत में औसतन 11,000 लोगों की आबादी के लिए एक एलोपैथिक सरकारी डॉक्टर मौजूद है. भारत में स्वास्थ्य व्यवस्था को लेकर कई ऐसे चौंकाने वाले आंकड़े हैं जिन्हें जानकर आपको पता चल जाएगा कि भारत की चिकित्सा व्यवस्था स्वयं इमरजेंसी वार्ड में है.

नई दिल्ली: किसी भी देश की तरक्की करने के लिए सबसे महत्वपूर्ण चीज उस देश के नागरिकों का स्वस्थ्य रहना है लेकिन इन दिनों भारत की चिकित्सा व्यवस्था स्वयं इमरजेंसी वार्ड में नजर आ रही है. बिहार में जिस तरह चमकी बुखार ने कहर बरपाया है उसने एक बार पिर स्वास्थ्य विभाग की पोल खोल कर रख दी है. एक अरब से अधिक आबादी वाले देश में डॉक्टरों की कमी और बदहाल स्वास्थ्य व्यवस्था ने फिर सबका ध्यान खींचा है.

बिहार में अब तक चमकी बुखार से 140 से ज्यादा बच्चों की मौत हो गई है. इस घटना ने सरकारी अस्पतालों में बदइंतजामी का नजारा भी दिखा दिया. बिहार की घटना ने एक सवाल जो उठाया है वह यह कि देश में आखिर कितने लोग हैं जो आर्थिक रूप से इतने सक्षम हैं कि निजी अस्पतालों और निजी डॉक्टरों से इलाज करा सकें और जो सक्षम नहीं है उनको सरकार सरकारी अस्पताल में अच्छी स्वास्थ्य सुविधा क्यों नहीं मुहैया करवा पा रही है. क्यों पूरे देश के अस्पतालों में डॉक्टरों की कमी है ?. क्यों समय पर उपचार के लिए जरूरी दवाई नहीं मिल पाती ?.

बिहार में अब तक 140 बच्चों की मौत

बिहार में चमकी बुखार यानि एक्यूट इन्सैफेलाइटिस सिंड्रोम (एईएस) से मरने वाले बच्चों की संख्या बढ़ कर अब 140 हो गयी है. मुजफ्फरपुर श्रीकृष्ण मेडिकल कालेज अस्पताल में बुधवार को पांच और बच्चों की मौत हो गई. इन पांच बच्चों को मिलाकर उनके अस्पताल में मरने वाले बच्चों की संख्या अब 95 हो गयी है.

क्या आपको मालूम है कि भारत जैसे विकासशील देश में औसतन 11,000 की आबादी पर सिर्फ एक डॉक्टर उपलब्ध है और दूरदराज के क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाओं की अनुपलब्धता यहां एक चिंता का विषय है. मलेरिया, डेंगू, मधुमेह और कैंसर जैसी गंभीर बीमारियों के साथ देश लंबे समय से संघर्ष कर रहा है लेकिन इसके बावजूद सरकार ने स्वास्थ्य क्षेत्र की उपेक्षा की. इस क्षेत्र में कोई खास ध्यान नहीं दिया गया. देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का केवल 1 प्रतिशत हिस्सा स्वास्थ्य में लगता है, जो वैश्विक औसत 6 प्रतिशत से बहुत कम है.

स्वास्थ्य विभाग की बदहाली

दूरदराज के क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाओं (विशेष रूप से उपचारात्मक) की गैर-उपलब्धता की सबसे बड़ी वजह डॉक्टरों की कमी है.  WHO के अनुसार, हजार लोगों की आबादी पर एक डॉक्टर का होना ज़रूरी है लेकिन भारत के कई ऐसे राज्य हैं जहां ऐसा नहीं हैं. नेशनल हेल्थ प्रोफाइल (2018) के अनुसार भारत में औसतन 11,000 लोगों की आबादी के लिए एक एलोपैथिक सरकारी डॉक्टर मौजूद है. बिहार जैसे राज्य में स्थिति सबसे खराब है जहां एक डॉक्टर 28,391 लोगों की आबादी की सेवा करता है. बिहार के बाद दूसरे नंबर पर सबसे खराब स्थिति उत्तर प्रदेश की है जहां प्रति डॉक्टर 19,962 मरीज हैं. वहीं देश की राजधानी दिल्ली में 2203 मरीजों पर एक डॉक्टर उपलब्ध है.

सिर्फ डॉक्टर नहीं अस्पताल की भी कमी

चिंता की एक और वजह अस्पतालों की अपर्याप्त संख्या भी है. देश में कुल 23,582 अस्पताल जिनमें 7,10,761 बेड हैं. 1.3 अरब आबादी वाले देश के लिए यह काफी नहीं है. भारत में औसतन सरकारी अस्पताल का एक बिस्तर 1,908 लोगों के लिए है, जबकि यह स्थिति बिहार में सबसे खराब है जहां 8,789 मरीजों के लिए एक बेड है. झारखंड में 6,502 मरीजों पर एक बेड है.

घरेलू बजट का एक चौथाई इलाज पर खर्च करते हैं लोग

डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट में बताया गया है देश की आबादी का कुल 3.9 प्रतिशत यानि 5.1 करोड़ भारतीय अपने घरेलू बजट का एक चौथाई से ज्यादा खर्च इलाज पर ही कर देते हैं, जबकि श्रीलंका में ऐसी आबादी महज 0.1 प्रतिशत है, ब्रिटेन में 0.5 फीसदी, अमेरिका में 0.8 फीसदी और चीन में 4.8 फीसदी है.

आजादी के बाद से ही देश में रोटी, कपड़ा और मकान इंसान की बुनियादी जरूरतें बताई गई लेकिन कभी स्वास्थ्य जैसे महत्वपूर्ण बुनियादी जरूरत पर किसी ने ध्यान नहीं दिया. अच्छा स्वास्थ्य और उसे बनाए रखना देश की प्रगति के लिए बेहद जरूरी है और उसके लिए डाक्टरों की कमी को दूर करना समय की पहली जरूरत है.

कम डॉक्टर और ज्यादा मरीज होने की वजह से नहीं मिलता ज्यादा समय

भारत में डॉक्टर औसतन महज दो मिनट ही अपने मरीजों को देखते हैं. इस बात की पुष्टि एक वैश्विक अध्ययन में की गई है. अध्ययन में कहा गया है कि दुनिया के 15 देश जहां विश्व की आधी आबादी निवास करती है, वहां प्राथमिक चिकित्सा परामर्श पांच मिनट या इससे भी कम होता है. ब्रिटेन की चिकित्सा पर आधारित पत्रिका ‘बीएमजे ओपन’ में कहा गया है कि भारत में प्राथमिक चिकित्सा परामर्श का समय 2015 में दो मिनट था, जबकि पड़ोसी देश पाकिस्तान में 2016 में यह महज़ 1.79 मिनट का रहा.

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