Explained: क्यों आज भी प्रासंगिक हैं सावरकर, कैसे उन्हें याद करती है आज की राजनीतिक पार्टियां ?
हम सबने अपनी-अपनी इतिहास की किताबों में पढ़ा है कि भारत की आजादी का पहला बड़ा आंदोलन 1857 में हुआ था. इस आंदोलन को भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम के तौर पर दर्ज करने का श्रेय विनायक दामोदर सावरकर को जाता है.
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विनायक दामोदर सावरकर 28 मई, 1883 को महाराष्ट्र के नासिक में पैदा हुआ वो आदमी, जो अपनी मौत के करीब 54 साल बाद भी प्रासंगिक है. अभी की सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी आजादी के आंदोलन में उस शख्स की भागीदारी की बदौलत भारत रत्न की मांग करती है, तो कांग्रेस उस आदमी के माफीनामे पर सवाल करती है. इन सारे किंतु-परंतु के दौरान इस शख्सियत के बारे में बात करना तब और भी ज़रूरी हो जाता है, जब सत्ताधारी पार्टी बीजेपी और विपक्षी कांग्रेस गाहे-बगाहे इस एक नाम के सहारे अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने की कोशिश करती हैं. जब ऐसे शख्स का 137वां जन्मदिन हो तो उसके बारे में बात करना और भी ज्यादा ज़रूरी हो जाता है.
हम सबने अपनी-अपनी इतिहास की किताबों में पढ़ा है कि भारत की आजादी का पहला बड़ा आंदोलन 1857 में हुआ था. इस आंदोलन को भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम के तौर पर दर्ज करने का श्रेय विनायक दामोदर सावरकर को जाता है. जिन्होंने 1909 में एक किताब लिखी. इसका नाम था 'द इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस-1857'. इसी किताब ने 1857 की लड़ाई को भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम घोषित किया था. ये सावरकर का पहला ऐसा बड़ा काम था, जिसे स्वतंत्र भारत में स्वीकार्यता मिली थी.
28 मई, 1883 को महाराष्ट्र के एक चितपावन ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए सावरकर शुरुआत से ही क्रांतिकारी थे. पुणे के फर्ग्युसन कॉलेज में पढ़ाई के दौरान आंदोलनों की वजह से सावरकर को कॉलेज ने बाहर का रास्ता दिखा दिया था. तब तक सावरकर अपने भाई गणेश के साथ मिलकर अभिनव भारत सोसाइटी बना चुके थे. उस वक्त बाल गंगाधर तिलक महाराष्ट्र में अपने ऊरूज पर थे. उन्होंने सावरकर के बारे में सुना और उन्हें श्यामजी कृष्ण वर्मा से कहकर पढ़ाई के लिए छात्रवृत्ति दिलवा दी. 1906 में वो लंदन चले गए, ताकि लॉ पढ़ सकें. उन्होंने पढ़ाई तो की लेकिन उससे ज्यादा आंदोलन किए. 'इंडियन सोशियोलॉजिस्ट' और 'तलवार' में उन्होंने कई आर्टिकल लिखे, जो बाद में कोलकाता के 'युगांतर' में भी छपे. लेकिन सावरकर को वीर लगाने के पीछे जो सबसे बड़े तर्क दिए जाते हैं, उनकी बुनियाद में दो अंग्रेज अफसरों की हत्याएं हैं.
1 जुलाई, 1909 को मदनलाल धींगरा ने विलियम कर्जन की लंदन में गोली मारकर हत्या कर दी. धींगरा को गिरफ्तार किया गया और उन्हें फांसी दे दी गई. इस हत्याकांड के पीछे नाम आया सावरकर का, लेकिन सबूत नहीं मिल पाए. हालांकि उनकी मौत के बाद कुछ ऐसे दस्तावेज सामने आए, जिसमें दावा किया गया कि धींगरा को पिस्तौल सावरकर ने ही दी थी और कहा था कि अगर हत्या न कर पाओ तो फिर अपना चेहरा मत दिखाना. दूसरी हत्या नासिक के कलेक्टर रहे जैकसन की हुई थी. आरोप लगा गणेश दामोदर सावरकर पर. उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. जांच में अंग्रेजों ने दावा किया कि विनायक सावरकर ने ही लंदन से अपने भाई को पिस्टल भेजी थी, जिससे जैकसन की हत्या हुई थी. फिर 1910 में ही सावरकर को भी लंदन में गिरफ्तार कर लिया गया. अंग्रेज उन्हें पानी के जहाज एसएस मौर्य से लंदन से भारत ला रहे थे. फ्रांस के मार्से बंदरगाह के पास विनायक सावरकर जहाज के टॉयलेट में बने होल के कूदकर भाग गए. लेकिन वो ज्यादा दूर नहीं जा पाए. फ्रांस की पुलिस ने उन्हें पकड़ लिया और अंग्रेजों के हवाले कर दिया.
मुकदमा चला और फिर सावरकर को कालापानी की सजा हो गई. 25-25 साल की दो सजाएं और इन सजाओं को काटने के लिए मिली अंडमान की सेल्युलर जेल की 13.5*7.5 की कोठरी नंबर 52. तारीख थी 11 जुलाई, 1911. अभी दो महीने से भी कम का वक्त गुजरा कि विनायक दामोदर सावरकर ने अपना पहला माफीनाम लिखा. लेकिन अंग्रेजों ने उसपर अमल नहीं किया. अगले करीब 9 साल 10 महीनों के दौरान सावरकर ने कुल 6 माफीनामे लिखे. अंग्रेजों से रहम की मांग की, रिहाई की मांग की. कहा कि अंग्रेजों के उठाए गए कदमों से उनकी संवैधानिक व्यवस्था में उनकी आस्था पैदा हो गई है और अब उन्होंने हिंसा का रास्ता छोड़ दिया है. अंग्रेजों ने उनके माफीनामे पर सुनवाई की. अंडमान से निकालकर पुणे की यरवदा जेल में शिफ्ट कर दिया. करीब तीन साल तक सावरकर वहां बंद रहे. फिर अंग्रेज उन्हें अपनी दो शर्तों पर रिहा करने के लिए राजी हो गए-
# सावरकर को पांच साल तक रत्नागिरी जिले में ही रहना होगा.
# निजी या सार्वजनिक रूप से राजनीतिक गतिविधियों में अगले पांच साल तक भाग नहीं ले सकते.
जेल से बाहर आए सावरकर ने अब खुद को प्रासंगिक बनाए रखने के लिए हिंदुत्व का सहारा लिया. किताब लिखी. नाम था 'हिंदुत्व - हू इज हिंदू?' इस किताब के जरिए सावरकर ने पहली बार हिंदुत्व को एक राजनीतिक विचारधारा के तौर पर इस्तेमाल किया. अभी हाल ही में आई वैभव पुरंदरे की किताब 'सावरकरः दि ट्रू स्टोरी ऑफ दि फादर ऑफ दि हिंदुत्व' में इस बात का विस्तार से जिक्र किया गया है. हिंदुत्व की इस विचारधारा का एक तबके ने खुलेआम स्वागत किया. यही वजह थी कि जेल से निकलने के बाद सावरकर जब तब के बॉम्बे और अब के मुंबई पहुंचे, तो उन्हें हिंदू महासभा का अध्यक्ष बना दिया गया और उन्हें हिंदू हृदय सम्राट की उपाधि से नवाज दिया गया. तब तक हिंदुस्तान अपनी आजादी की लड़ाई लड़ ही रहा था और मोहम्मद अली जिन्ना की टू नेशन थ्योरी अस्तित्व में नहीं आई थी.
साल 1937 में गुजरात के अहमदाबाद में हिंदू महासभा का 19वां अधिवेशन चल रहा था. सावरकर उसके अध्यक्ष थे. भाषण देते हुए उन्होंने कहा था कि हिंदू और मुसलमान दो अलग-अलग देश हैं. ये पहली बार था, जब हिंदू और मुसलमान को दो अलग-अलग देश बताया गया. इसी थ्योरी को आगे बढ़ाया मोहम्मद अली जिन्ना और उनकी मुस्लिम लीग ने. 1940 में जिन्ना ने अलग पाकिस्तान की बात की, जो 1947 में अमल में भी आ गई. हालांकि इससे पहले 1942 में जब भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हुआ, तब भी सावरकर ने हिंदुओं से इस आंदोलन का विरोध करने की बात की थी. आजादी के बाद 30 जनवरी, 1948 को जब नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी की गोली मारकर हत्या कर दी, तो सावरकर को भी हत्या के षड्यंत्र के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया.
जब लोगों को पता चला कि महात्मा गांधी की हत्या में सावरकर का भी हाथ है, तो उन्होंने सावरकर के घर पर तोड़-फोड़ की और पत्थर फेंके. लेकिन एक साल से भी कम वक्त में सावरकर के ऊपर से मुकदमा खारिज़ हो गया. फरवरी, 1949 में वो बरी हो गए. लेकिन उसके बाद कुछ वक्त तक उनकी प्रासंगिकता खत्म हो गई. उन्हें फिर से प्रासंगिक बनाया इंदिरा गांधी ने. 1970 में डाक टिकट जारी किया. फिर चिट्ठी लिखी. चिट्ठी लिखी गई थी वीर सावरकर ट्रस्ट को. इस चिट्ठी में इंदिरा गांधी ने वीर सावरकर को भारत का सपूत बताया था और आजादी के आंदोलन में योगदान को सराहा. ट्रस्ट के लिए 11,000 रुपये भी दिए थे. इससे एक कदम और आगे बढ़कर साल 2000 में अटल बिहारी वाजपेयी ने सावरकर को भारत रत्न देने की मांग की थी. राष्ट्रपति के पास इसका प्रस्ताव भी भेजा था, लेकिन तब के राष्ट्रपति रहे केआर नारायणन ने वाजपेयी सरकार के इस प्रस्ताव को खारिज़ कर दिया था.
हालांकि उस वक्त प्रधानमंत्री रहे वायपेयी की पहल पर संसद के सेंट्रल हॉल में विनायक दामोदर सावरकर की तस्वीर लग गई थी और ये तस्वीर महात्मा गांधी की तस्वीर के ठीक सामने है. यानि कि अगर आप महात्मा गांधी को श्रद्धांजलि देते हैं तो आपकी पीठ सावरकर की ओर होगी और अगर आप सावरकर को श्रद्धांजलि देते हैं तो आपकी पीठ महात्मा गांधी की तरफ होगी. जबकि एक तथ्य ये है कि महात्मा गांधी की हत्या के लिए बने कपूर आयोग ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि महात्मा गांधी की हत्या में सावरकर का हाथ था. लेकिन ये रिपोर्ट तब सामने आई, जब सावरकर की मौत हो चुकी थी. रही बात प्रासंगिकता की, तो 26 मई, 2014 को नरेंद्र मोदी जब पहली बार प्रधानमंत्री बने तो वो संसद के सेंट्रल हॉल में पहुंचे और सावरकर की फोटो के सामने सिर झुकाकर श्रद्धांजलि दी.
बाकी तो महाराष्ट्र की राजनीति में जब भी उठापटक होती है, बीजेपी और शिवसेना को सावरकर याद आ ही जाते हैं. हर बार उनके लिए भारत रत्न की मांग होती है और चुनाव बीतने के साथ ही ये मांग भी ठंडे बस्ते में चली जाती है. फिलहाल एक बार फिर से महाराष्ट्र की सियासत नई करवट ले रही है. और इस दौरान भी अगर विनायक दामोदर सावरकर का नाम रखकर कोई सियासी चाल चली जाती है, तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी.
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