गोरखपुर: अमर शहीद बंधू सिंह का 161वां बलिदान दिवस आज, सात बार अंग्रेजों ने फांसी पर लटकाया- बार-बार टूट जाता था फंदा
मान्यता के अनुसार अंग्रेजों ने बंधू सिंह को अलीनगर स्थित एक पेड़ पर फांसी देने का सात बार प्रयास किया. हर बार फांसी का फंदा टूट जाता था. मंदिर में भक्तों द्वारा सच्चे मन से मांगी गई हर मुराद पूरी होती हैं.
गोरखपुरः अमर शहीद बंधु सिंह देश के ऐसे शहीद का नाम है, जिन्होंने 1857 की क्रांति में अहम योगदान दिया. आज उनका 161वां बलिदान दिवस है. गोरखपुर और आसपास के क्षेत्र के युवाओं के दिल में स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई की ऐसी चिंगारी जगाई, जो बाद में ज्वाला बन गई. ऐसे युवाओं के देशप्रेम के जज्बे के परिणामस्वरूप देश 15 अगस्त 1947 को आजाद हुआ. ऐसी मान्यता है कि अंग्रेजों ने शहीद बंधू सिंह को 25 साल की उम्र में सात बार फांसी के फंदे पर लटकाया, लेकिन तरकुलवा मां की कृपा से उनका फंदा टूट गया. उसके बाद उन्होंने मां जगतजननी देवी का ध्यान कर आठवीं बार खुद फांसी के फंदे पर झूल गए.
पूर्वी उत्तर प्रदेश खासकर गोरखपुर का 1857 की क्रांति में अहम रोल रहा है. इस क्रान्ति के गरम दल के क्रांतिकारियों में चौरीचौरा के डुमरी बाबू गांव निवासी अमर शहीद बंधू सिंह का अंग्रेजों में बेहद खौफ था. बंधू सिंह का जन्म एक मई 1833 को हुआ था. मान्यता के अनुसार अंग्रेजों ने बंधू सिंह को अलीनगर स्थित एक पेड़ पर फांसी देने का सात बार प्रयास किया. हर बार फांसी का फंदा टूट जाता था. आठवीं बार मां जगतजननी का ध्यान कर फांसी के फंदे को चूमते हुए उन्होंने कहा, ''हे मां अब मुझे मुक्ति दो.'' इसके बाद अंग्रेजों की कोशिश कामयाब हुई.
अलीनगर स्थित विशालकाय पेड़ पर 12 अगस्त 1858 को क्रांतिकारी बंधू सिंह को फांसी के फंदे पर लटकाया गया. उसी वक्त यहां से 25 किमी दूर देवीपुर के जंगल में उनके द्वारा स्थापित मां की पिंडी के बगल में खड़ा तरकुल का पेड़ का सिरा टूटकर जमींन पर गिर गया. इस टूटे तरकुल के पेड़ से खून की धारा निकल पड़ी. यहीं से इस देवी का नाम माता तरकुलहा के नाम से प्रसिद्द हो गया. मंदिर में भक्तों द्वारा सच्चे मन से मांगी गई हर मुराद पूरी होती हैं. 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से पहले इस इलाके में जंगल हुआ करता था. यहां पास से गोर्रा नदी बहती थी. जो अब नाले में तब्दील हो चुकी है.
यहीं पर पास में डुमरी रियासत के बाबू बंधू सिंह ने अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोल रखा था. उन्होंने अंग्रेजों को देश से भगा देने का संकल्प लिया था. अंग्रेजों को सबक सिखाने के लिए वे गोर्रा नदी के जंगलों में रहा करते थे. नदी के तट पर तरकुल (ताड़) के पेड़ के नीचे पिंडियां स्थापित कर वे देवी की उपासना किया करते थे. देवीपुर की यह देवी बाबू बंधू सिंह की इष्ट देवी रही हैं. जो उनके शहीद होने के बाद तरकुलहा देवी के नाम से प्रसिद्द हैं. शहीद बंधू सिंह के परिजन बीजेपी नेता अजय सिंह ने उनके 161 बलिदान दिवस पर अलीनगर में आयोजित श्रद्धांजलि सभा के दौरान कहा, ''जब बंधू सिंह बड़े हुए तो उनके दिल में भी अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आग जलने लगी. बंधू सिंह गुरिल्ला लड़ाई में माहिर रहे हैं. छह भाइयों में सबसे बड़े बंधु सिंह ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ पहला बिगुल उस समय बजाया, जब इस क्षेत्र में भयंकर अकाल पड़ा था.
उसी समय अंग्रेजों का सरकारी खजाना बिहार से लादकर आ रहा था. बंधू सिंह अपने सहयोगियों के साथ मिलकर उसे लूट लिया और गांववालों में बांट दिया. हताश होकर अंग्रेजों ने इनकी डुमरी रियासत पर तीन तरफ से हमले किए. जिसमें बंधू सिंह के भाइयों करिया सिंह, दलसिंह, हममन सिंह, विजय सिंह और फतेह सिंह ने अंग्रेजों का कड़ा मुकाबला किया, लेकिन अंततः शहीद हो गए. अंग्रेजों ने बंधु सिंह का घर ध्वस्त कर रियासत जला डाली. उसके बाद बंधु सिंह जंगलों में रहने लगे. जब भी कोई अंग्रेज उस जंगल से गुजरता, बंधू सिंह उसकी गर्दन धड़ से अलग कर उसका सिर मां शक्ति स्वरूपा पिंडी पर चढ़ा देते थे. अंग्रेजों के धड़ को पास के कुएं में डाल देते थे.
पहले तो अंग्रेज अफसर ये समझते रहे कि सैनिक जंगलों में जंगली जानवरों का शिकार हो रहे हैं. बाद में धीरे-धीरे उन्हें भी पता लग गया कि अंग्रेज सिपाही बंधू सिंह के हाथों बलि चढ़ाएं जा रहे हैं. अंग्रेजों ने बंधू सिंह की तलाश में जंगल में एक बड़ा तलाशी अभियान चला दिया. बंधू सिंह को आखिरकार अंग्रेजों ने पकड़ लिया. कोर्ट में उन्हें पेश किया गया और फैसले के बाद 12 अगस्त 1858 को गोरखपुर के अलीनगर चौराहे पर सरेआम उन्हें फांसी दी गई. तरकुलवा देवी मंदिर के पुजारी दिलीप त्रिपाठी बताते हैं कि बंधु सिंह को उधर फांसी का फंदा लगा और इधर तरकुल के पेड़ का सिरा टूट गया. उसमें से खून की धारा काफी देर तक बहती रही.
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