मेरठ: 31 साल लंबी कानूनी लड़ाई के बाद मेरठ के हाशिमपुरा नरसंहार मामले में दिल्ली हाईकोर्ट का फैसला पीड़ितों को उनके रिसते जख्मों पर मरहम जैसा नहीं लगता. लोग इस फैसले से खुश नजर नहीं आए.
72 साल की जरीना ने कहा कि वारदात के वक्त जो जवान थे, वो आज जिंदगी के आखिरी पड़ाव पर हैं. घर का मुखिया गया तो जिंदगी जार-जार होकर रह गई. सरकार से न तो मदद मिली और न कानूनी सहारा. ऐसे में जो इंसाफ मिला है वह नाकाफी है.
जरीना के सामने जैसे ही हाशिमपुरा नरसंहार का जिक्र हुआ, आखों से आंसू बह निकले. सुबह से टेलीविजन से सामने बैठीं जरीना के चेहरे पर हाईकोर्ट के फैसले के बाद सुकून नहीं दिखा. उन्होंने साफ कहा कि ये इंसाफ काफी नहीं है.
उन्होंने कहा,"मैंने तो कानून और अल्लाह से कातिलों के लिए मौत की सजा मांगी थी." जरीना ने इस वारदात में जब अपने शौहर जहीर अख्तर और 17 साल के बेटे जावेद को खोया. उनके शौहर अपने पीछे 9 बच्चों को छोड़ गये थे. बमुश्किल बच्चों की परवरिश हो पाई.
जरीना कहती हैं कि जो हमारे इस दुनिया से चले गये उनको हम देख नहीं सकते, लेकिन आरोपियों को सजा मिलने के बाद भी उनके घरवाले उनसे जेल में मिल सकते हैं. इस सजा को हम सजा नहीं मानते. आरोपियों को मौत की सजा मिलनी चाहिए.
गौरतलब है कि 22 मई 1987 को मेरठ के हाशिमपुरा इलाके में दंगों के बाद तैनात पीएसी जवानों ने 42-45 मुसलमान नौजवानों को तलाशी और पूछताछ के नाम पर उनके घरों से निकाला और एक ट्रक में भरकर मुरादनगर नहर पर ले गये.
ट्रक में बैठे नौजवानों पर पीएसी के जवानों ने गोलियां चलाई और उन्हें मारने के बाद उनकी लाशें गंगनहर में फेंक दीं. इस वारदात में 3 लोग जिंदा बच गए जो बाद में कानूनी प्रक्रिया में वारदात के चश्मदीद बने.