Kumbh Mela 2019 के लिए तीर्थागण बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं. लाखों-लाख भक्त इस कुंभ मेले में आएंगे. ऐसे में आज हम आपको कुंभ का इतिहास, महत्व और कुंभ से जुड़ी मान्यताओं के बारे में बताने जा रहे हैं . कुंभ का शाब्दिक अर्थ कलश होता है. इसका पार्याय पवित्र कलश से होता है. इस कलश का हिन्दू सभ्यता में विशेष महत्व है. कलश के मुख को भगवान विष्णु, गर्दन को रूद्र, आधार को ब्रम्हा, बीच के भाग को समस्त देवियों और अंदर के जल को संपूर्ण सागर का प्रतीक माना जाता है. यह चारों वेदों का संगम है. इस पर्व का संबध समुंद्र मंथन से है तो इसलिए इसका अर्थ घड़ा भी होता है.

कुंभ का इतिहास

कुंभ का इतिहास 850 साल पुराना है. ऐसा माना जाता है कि इसकी शुरुआत आदि शकराचार्य ने की थी. वहीं कई अन्य कथाओं के मुताबिक माना जाता है कि कुंभ की शुरुआत समुद्र मंथन के आदिकाल से ही गई थी. मंथन में निकले अमृत का कलश हरिद्वार, इलाहबाद, उज्जैन और नासिक के स्थानों पर ही गिरा था, इसीलिए इन चार स्थानों पर ही कुंभ मेला हर तीन बरस बाद लगता आया है. 12 साल बाद यह मेला अपने पहले स्थान पर वापस पहुंचता है.

ऐसा कहा जाता है कि एक बार इन्द्र देवता ने महर्षि दुर्वासा को रास्ते में मिलने पर जब प्रणाम किया तो दुर्वासाजी ने प्रसन्न होकर उन्हें अपनी माला दी, लेकिन इन्द्र ने उस माला का आदर न कर अपने ऐरावत हाथी के मस्तक पर डाल दिया. जिसने माला को सूंड से घसीटकर पैरों से कुचल डाला. इस पर दुर्वासाजी ने क्रोधित होकर इन्द्र की ताकत खत्म करने का श्राप दे दिया. तब इंद्र अपनी ताकत हासिल करने के लिए भगवान ब्रह्मा और भगवान शिव से संपर्क किया, जिन्होंने उन्हें विष्णु भगवान की प्रार्थना करने की सलाह दी, तब भगवान विष्णु ने क्षीरसागर का मंथन करके अमृत निकालने की सलाह दी. भगवान विष्णु के ऐसा कहने पर संपूर्ण देवता दैत्यों के साथ संधि करके अमृत निकालने के यत्न में लग गए.

समुद्र मंथन के दौरान सबसे पहले विष निकला जिसे शिव जी ने पी लिया. जब मंथन से अमृत दिखाई पड़ा तो देवता, शैतानों के गलत इरादे समझ गए, देवताओं के इशारे पर इंद्र पुत्र अमृत-कलश को लेकर आकाश में उड़ गया. इसे लेकर 12 दिनों तक राक्षसों और देवों के बीच युद्ध हुआ. इसी लड़ाई में अमृत पात्र से अमृत चार अलग-अलग जगहों पर गिर गया. ये जगह है इलाहाबाद, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन. तभी से ऐसा माना जाता है कि इन जगहों पर अद्भुत शक्तियां हैं और इसलिए यहां कुंभ का आयोजन होता है.

कब से शुरू हुआ कुंभ मेला

इस सवाल के जवाब में अनेक तरह की भ्रांतिया फैली है. कुछ विद्वान गुप्त काल में कुंभ के सुव्यवस्थित होने की बात करते हैं. परन्तु प्रमाणित तथ्य सम्राट शिलादित्य हर्षवर्धन 617-647 ई. के समय से प्राप्त होते हैं. बाद में श्रीमद आघ जगतगुरु शंकराचार्य तथा उनके शिष्य सुरेश्वराचार्य ने दसनामी संन्यासी अखाड़ों के लिए संगम तट पर स्नान की व्यवस्था की.