मेरठ: कैराना से बीजेपी ने मृगांका सिंह की बजाय प्रदीप चौधरी को प्रत्याशी बनाया है. आज मृगांका सिंह के पक्ष में एक महापंचायत के एलान किया गया है लेकिन लगता नहीं कि बीजेपी टिकट बदलने के मूड में है. पश्चिमी यूपी की सियासत के जानकार इसे हुकुम सिंह परिवार की सियासत पर विराम मान रहे हैं.


शनिवार दोपहर बाद जब बीजेपी ने उम्मीदवारों की लिस्ट जारी की तो उसमें मृगांका सिंह का नाम नहीं था. मृगांका की जगह गंगोह से तीसरी बार विधायक प्रदीप चौधरी को बीजेपी ने कैराना से प्रत्याशी बनाया है. मृगांका सिंह 2018 में हुए कैराना उपचुनाव में गठबंधन की प्रत्याशी तबस्सुम हसन से हार गईं थीं. माना जा रहा है कि इस बार भी तबस्सुम हसन के गठबंधन प्रत्याशी के तौर पर मैदान में आने के बाद मृगांका का सियासी गणित कमजोर पड़ गया था.


मृगांका सिंह इससे पहले कैराना विधानसभा सीट से भी चुनाव लड़ चुकी हैं. अपने पिता के जीवित रहते उन्होंने यह चुनाव लड़ा और हार गईं. 2017 के इस चुनाव में उनका मुकाबला तबस्सुम हसन के बेटे और सपा प्रत्याशी नाहिद हसन से था. तब मृगांका के चचेरे भाई अनिल चौहान ने बीजेपी से बगावत कर दी थी और राष्ट्रीय लोकदल के टिकट पर चुनाव लड़ा था. अनिल चौधरी की तरफ वोट डाइवर्ट हो जाने के बाद मृगांका की हार सुनिश्चित हो गई.


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कैराना लोकसभा सीट पर हुकुम सिंह के परिवार का दबदबा लंबे अरसे से रहा है. कैराना की सियासत हुकुम सिंह और मुनव्वर हसन के परिवार के इर्द-गिर्द घूमती है. इलाके के लोग बताते हैं कि हसन और सिंह परिवार एक जमाने में एक ही गुर्जर खानदान का हिस्सा थे. मुनव्वर हसन के पूर्वजों ने मुस्लिम धर्म अपना लिया और मुस्लिम गुर्जर बन गए. हुकुमसिंह हिंदू गुर्जर समुदाय से ताल्लुक रखते थे. सेना की नौकरी छोड़ने के बाद हुकुम सिंह ने राजनीति में कदम रखा था.



हुकुम सिंह सात बार विधायक और एक बार सांसद चुने गए. मृगांका सिंह ने उनके निधन के बाद उनकी राजनीतिक विरासत संभाली थी. चूंकि वो दो बार चुनाव हार चुकी थीं लिहाजा पार्टी इस बार उन पर भरोसा नहीं कर पाई. शायद यही वजह रही कि इस चुनाव में मृगांका सिंह को टिकट ना मिल सका. हालांकि मृगांका सिंह का कहना है कि उप चुनाव हारने के बाद उन्होंने इलाके में जमीनी तौर पर काम किया है और पार्टी को मजबूत बनाया है. पार्टी के निर्णय पर उन्होंने बस इतना कहा कि उन्हें ऐसी उम्मीद नहीं थी.


हुकुम सिंह 1974 में लोकदल से पहली बार विधायक बने. कांग्रेस और भाजपा के टिकट पर 13 बार उन्होंने विधानसभा और लोकसभा के चुनाव लड़े. 2009 में वह बसपा प्रत्याशी और मुनव्वर हसन की पत्नी तबस्सुम हसन से हार गए थे. 2014 लोकसभा में हुकुम सिंह ने तबस्सुम हसन के पुत्र नाहिद हसन को हराया था. 2013 में मुजफ्फरनगर और शामली में हुए दंगों के दौरान उन्होंने अखिलेश सरकार के खिलाफ सड़क से लेकर सदन तक मोर्चा खोला और कैराना से हिंदुओं के पलायन को बड़ा मुद्दा बनाया था.


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