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लोकसभा चुनाव 2019: मथुरा-वृंदावन की विधवाओं के जीवन में क्या कभी कुछ बदलाव हो पाएगा?

वृंदावन की संकरी गलियों में आपको विधवायें भीख मांगती, भंडारे की लाइन में या बीस रूपये के लिये घंटों किसी आश्रम या मंदिर में भजन गाती दिख जायेंगी. कौन सा चुनाव इनका जीवन बदल पाएगा.

वृंदावन: क्या मथुरा, वृंदावन की पांच-छह हजार विधवाएं मतदान करेंगी? पिछले लोकसभा चुनाव में तो इनके पास मतदाता पहचान पत्र भी नहीं थे लेकिन इस बार राज्य सरकार द्वारा संचालित निराश्रय सदनों में रहने वाली करीब 60 प्रतिशत विधवाओं के पास मतदाता पहचान पत्र हैं. लेकिन यक्ष प्रश्न यह है कि क्या वे मतदान करेंगी. क्योंकि इनमें से अधिकतर को लगता है कि इससे जीवन के परेशानियां खत्म नहीं होंगी.

90 साल की सुधा दासी को याद नहीं है कि उन्होंने आखिरी बार मतदान कब किया था और ना ही वह आगामी लोकसभा चुनाव में मतदान करेंगी क्योंकि उनका मानना है कि इससे ना तो उनकी परेशानियां खत्म होंगी और ना ही जिंदगी की जद्दोजहद. यह सिर्फ एक सुधा की कहानी नहीं बल्कि वृंदावन में रहने वाली सैकड़ों विधवाओं की यही सोच है. सुधा पश्चिम बंगाल से है और पिछले पांच दशक से कृष्ण की नगरी में है. वृंदावन की संकरी गलियों में आपको उनके जैसी कई विधवायें भीख मांगती, भंडारे की कतार में या बीस रूपये के लिये घंटों किसी आश्रम या मंदिर में भजन गाती दिख जायेंगी.

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मथुरा लोकसभा क्षेत्र के वृंदावन, गोवर्धन, राधाकुंड इलाके में करीब पांच-छह हजार विधवायें रहती हैं जिनमें से अधिकतर पश्चिम बंगाल, ओडिशा और झारखंड से हैं. संख्या में कम होने के कारण वे किसी राजनीतिक दल का वोट बैंक नहीं हैं.

कुछ विधवाएं निजी गैर सरकारी संगठनों के आश्रमों में या किराये के कमरों में रहती हैं जिनके पास मतदाता पहचान पत्र नहीं है. एनजीओ अधिकारियों का कहना है कि सीमित संसाधनों में उनके लिये यह बनवा पाना आसान नहीं है. एक एनजीओ की अधिकारी ने कहा कि औपचारिकताओं को पूरा करना आसान नहीं है क्योंकि कुछ माताजी (वृंदावन में अमूमन उन्हें इसी नाम से बुलाया जाता है) बहुत बुजुर्ग हैं."

दूसरी ओर अपनी जिंदगी से आजिज आ चुकी इन महिलाओं को भी मतदान के मौलिक अधिकार को हासिल करने में कोई दिलचस्पी नहीं है. झारखंड की जमुना दासी ने कहा कि मैं क्यों वोट दूं. इससे क्या फर्क पड़ेगा. क्या मुझे खाना और मकान मिलेगा. मेरी जिंदगी बर्बाद है और आखिरी सांस तक रहेगी. मुझे चुनाव से कुछ लेना देना नहीं है.

पिछले 40 साल से वृंदावन में रह रही त्रिपुरा की मिलन देवी को याद नहीं कि आखिरी बार उन्होंने कब मतदान किया था. 75 बरस की मिलन ने कहा कि मुझे नहीं पता कि मैंने कभी वोट डाला भी था या नहीं. हमारे अपनों ने हमारी परवाह नहीं की तो सरकार क्यों करे.

उत्तराखंड की निर्मला अपने दोनों बेटों की मौत के बाद यहां आई और अब मंदिरों में मिलने वाले भंडारे पर या भीख मांगकर गुजारा करती है. उन्होंने कहा कि मेरे पास मतदाता पहचान पत्र नहीं है. मुझे पता है कि हमारे यहां महिला सांसद हैं लेकिन उससे क्या. सरकारों के पास बड़े मसले हैं. हम किसी के लिये महत्वपूर्ण नहीं.

राज्य सरकार से 1850 रूपये मासिक अनुदान और 35 किलो राशन के अलावा सरकारी आश्रमों में रहने वाली कुछ विधवाओं को त्रैमासिक पेंशन भी मिलती है . लेकिन इन आश्रमों से बाहर रहने वाली सैकड़ों विधवाओं के लिये यह दशकों से चला आ रहा ‘रोटी, कपड़ा और मकान ’ का संघर्ष है जो सरकारें बदलने पर भी नहीं बदला.

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