मेरठ: 2019 में मेरठ से लोकसभा कौन पहुंचेगा? इन दिनों जिले के हर गली-मुहल्ले में इसी बात की चर्चा है. वर्तमान लोकसभा सांसद और बीजेपी प्रत्याशी ने यहां से लगातार दो बार पार्लियामेंट का चुनाव जीता. लेकिन 2017 के स्थानीय निकाय चुनाव से बीजेपी के रंग फीके प़ड़ने शुरू हो गये. गठबंधन और कांग्रेस ने भी मेरठ से मजबूत उम्मीदवार उतारे हैं लिहाजा इस बार राजेन्द्र अग्रवाल के लिए यहां का मैदान मारना आसान नहीं होगा.
राजेन्द्र अग्रवाल की जड़ें राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ से जुड़ी हुई है. शायद इसीलिए 2009 से लेकर अब तक उनके तमाम विरोधी, पार्टी को उनका विकल्प नहीं दे पाये. 2009 में अग्रवाल उस वक्त सांसद बने जब देश में कांग्रेस का बोलबाला था और प्रदेश में बीएसपी की पूर्ण बहुमत वाली सरकार थी. 2014 लोकसभा चुनाव में उन्हें फिर से पार्टी का चुनाव चिन्ह मिला और उन्होंने मोदी लहर में अपनी जीत दर्ज की. पार्टी ने इस बार भी उन पर यकीन जताया है लेकिन इस बार गठबंधन के सामने उनकी लड़ाई और कठिन हो गई है.
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सपा, बसपा और रालोद के गठबंधन के प्रत्याशी के तौर पर हाजी याकूब बसपा के चुनाव चिन्ह से चुनावी मैदान में है. बसपा सुप्रीमो मायावती के करीबी होने के साथ हाजी याकूब बसपा की सरकार में मंत्री भी रह चुके है और इस चुनाव के कई महीनों पहले से सियासी जमीन को मजबूत कर रहे है. उनके पास दलित-मुस्लिम वोटबैंक का जादुई समीकरण है जो उन्हें उनकी मंजिल तक पहुंचा सकता है. ऐसे में तगड़े वोटबैंक से पार पाने के लिए राजेन्द्र अग्रवाल को चुनावी चाणक्यों का सहारा लेना होगा.
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कांग्रेस पार्टी कई लोकसभा चुनावों से हाशिये पर है. फिल्मी दुनिया से नगमा जैसा चेहरा भी यहां कोई मैजिक नहीं कर सका. इसीलिए इस बार नगमा ने पार्टी से टिकट हासिल करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. कांग्रेस ने पहले स्थानीय नेता ओपी शर्मा को टिकट दिया था लेकिन बाद में शर्मा का टिकट काटकर गाजियाबाद के उद्योगपति और कांग्रेसी नेता हरेन्द्र अग्रवाल को दे दिया गया. अपने पिता यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री बाबू बनारसी दास की राजनैतिक पृष्ठभूमि के सहारे हरेन्द्र अग्रवाल चुनावी मैदान में हैं.
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वरिष्ठ पत्रकार नितिन सबरंगी बताते है कि कांग्रेस पार्टी ने संगठन को मजबूत करने में लंबे समय से कोई कोशिश नहीं की. इसीलिए उनका वोटबैंक लगातार खिसकता रहा. अंदरूनी गुटबाजी ने भी पार्टी को कमजोर किया है. गुटबाजी तो बीजेपी में भी है लेकिन पार्टी की गुटबाजी वहां सामने नहीं दिखती. ऐसे में नुकसान तो दोनों को होगा मगर चुनौती बीजेपी के सामने ज्यादा है. वह इसलिेए कि 10 साल से इस सीट पर उसी का कब्जा है. अगर बीजेपी अपनी जीत बरकरार न रख सकी तो उसके लिए यह केवल सीट खोना भर नहीं, प्रतिष्ठा खोने जैसा होगा.
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अंग्रेजी अखबार के पत्रकार पीयूष राय कहते है कि गठबंधन के वोटबैंक के सामने बीजेपी की चुनौतियां बहुत बढ़ गई है. अबकी खास बात यह है कि कोई दूसरा मुस्लिम प्रत्याशी भी चुनाव मैदान में नहीं है. ऐसे में मुस्लिम वोटर्स के पास याकूब का कोई विकल्प नहीं. बीजेपी को जमीनी तौर पर अपने वोटरों को मनाना होगा. 10 साल जो काम नहीं हुए, उन शिकायतों को अपने लिए वोट में बदल पाना बीजेपी के लिए बड़ी चुनौती है. दलित-मुस्लिम के चक्रव्यूह को तोड़ने को तोड़ना करिश्मे जैसा होगा.
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