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महराजगंज सीट पर त्रिकोणीय हुआ मुकाबला, गठबंधन-कांग्रेस और बीजेपी में कड़ी टक्कर

महराजगंज क्षेत्र के कस्बों से गांवों तक राष्ट्रीय मुद्दे चर्चा में तो हैं. लेकिन, अंतत: जातीय गणित मजबूत दिखती है. यह पिछड़ी बहुल सीट हैं. जहां तकरीबन 60 फीसदी आबादी पिछड़े वर्ग की है. अकेले पटनवार जाति के लोग 25 प्रतिशत से ज्यादा हैं.

महराजगंजः बीजेपी प्रत्‍याशी पंकज चौधरी आठवीं बार चुनाव मैदान में हैं. पहले दो बार वे चुनाव हार गए थे. वहीं पांच बार वे महराजगंज से चुनाव जीतकर संसद पहुंच चुके हैं. इसमें उन्‍होंने बार जीत की हैट्रिक भी लगाई है. लेकिन, इस बार मुकाबला काफी रोचक हो गया है. गठबंधन ने जहां सपा से प्रत्‍याशी पूर्व सांसद अखिलेश सिंह को मैदान में उतारा है. तो वहीं कांग्रेस ने पूर्व सांसद हर्षवर्धन की पुत्री सुप्रिया श्रीनेत को टिकट दिया है. अखिलेश सिंह ने साल 1999 में और हर्षवर्धन ने 2009 में बीजेपी प्रत्‍याशी पंकज चौधरी को शिकस्‍त दी थी.

सांसद पंकज चौधरी बीजेपी के टिकट पर 1991 से 1998 तक लगातार तीन चुनाव जीत कर हैट्रिक लगा चुके हैं. उसके बाद 2004 और 2014 में भी वह सांसद चुने गए. इस बार उनका मुकाबला गठबंधन के प्रत्याशी सपा नेता अखिलेश सिंह से है, जिन्होंने 1999 में ये सीट जीती थी. कांग्रेस की सुप्रिया श्रीनेत पत्रकारिता का करिअर छोड़ कर चुनाव में उतरी हैं. उनके पिता हर्षवर्धन दो बार (1989 और 2009) इस सीट से सांसद चुने गए थे. शिवपाल यादव की पार्टी प्रसपा ने बाहुबली पूर्वमंत्री अमरमणि त्रिपाठी की बेटी तनुश्री त्रिपाठी को प्रत्याशी बनाया था. दिलचस्प बात ये है कि प्रसपा द्वारा तनुश्री को प्रत्याशी घोषित करने के एक दिन बाद जारी लिस्ट में कांग्रेस ने उन्हें अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया था.

उसके बाद उनकी जगह कांग्रेस ने सुप्रिया श्रीनेत को उम्मीदवार बना दिया. अंतत: तनुश्री ने चुनाव के लिए पर्चा ही नहीं भरा. मुख्य मुकाबले में बीजेपी, गठबंधन और कांग्रेस ही हैं. महराजगंज में कुल 19,12,910 मतदाता हैं. इनमें 10,21,199 पुरुष, 9,91,448 महिला और 263 थर्ड जेंडर हैं. महराजगंज में पांच विधानसभा सीटें महराजगंज सदर, फरेंदा, सिसवा, नौतनवां और पनियरा है. साल 1989 में महाराजगंज जिला बना. इसके पहले ये गोरखपुर का भाग था. 1952 के पहले लोकसभा चुनाव में महराजगंज गोरखपुर का हिस्सा था.

महराजगंज का पहला सांसद निर्दलीय रहा है. साल 1957 में पहली बार महराजगंज लोकसभा सीट बनी और निर्दलीय प्रो. शिब्बन लाल सक्सेना ने सभी दलों को हरा कर जीत हासिल की थी. उन्होंने यह सफलता 1971 में भी दोहराई. महराजगंज लोकसभा सीट के तहत आने वाले पांच विस क्षेत्र में चार पर बीजेपी का कब्जा है. एक सीट नौतनवां पर निर्दलीय अमनमणि त्रिपाठी विधायक हैं.

महराजगंज क्षेत्र के कस्बों से गांवों तक राष्ट्रीय मुद्दे चर्चा में तो हैं. लेकिन, अंतत: जातीय गणित मजबूत दिखती है. यह पिछड़ी बहुल सीट हैं. जहां तकरीबन 60 फीसदी आबादी पिछड़े वर्ग की है. अकेले पटनवार जाति के लोग 25 प्रतिशत से ज्यादा हैं. निषाद, ब्राह्मण और मारवाड़ी 10-10 प्रतिशत के करीब हैं. प्रत्याशी से कार्यकर्ता और मतदाता तक मुद्दों की बात करते हैं. लेकिन जातिगत राजनीति प्रभावी दिखती है.

साल 1957 में प्रो. शिब्बन लाल सक्सेना निर्दल उम्‍मीदवार के तौर पर चुनाव लड़े और जीतकर संसद पहुंचे. 1962 और 1967 में कांग्रेस के महादेव प्रसाद, 1971 में निर्दल प्रो. शिब्‍बन लाल सक्‍सेना, 1977 में लोकदल के टिकट पर फिर प्रो. शिब्‍बन लाल सक्‍सेना को जीत हासिल हुई. 1980 में अशफाक हुसैन कांग्रेस के टिकट पर जीते. 1984 में कांग्रेस के जितेंद्र सिंह ने जीत हासिल की. साल 1989 में जनता दल के टिकट पर हर्षवर्धन ने जीत हासिल की. 1991, 96 और 1998 में पंकज चौधरी बीजेपी के टिकट पर जीत हासिल हैट्रिक के साथ संसद पहुंचे. 1999 में अखिलेश सिंह को सपा के टिकट पर जीत हासिल हुई. साल 2004 में एक बार फिर बीजेपी के पंकज चौधरी की जीत हुई. साल 2009 में कांग्रेस के टिकट पर हर्षवर्धन जीते. 2014 में मोदी लहर में बीजेपी के पंकज चौधरी को जीत हासिल कर संसद पहुंचने का मौका मिला.

2014 का रिजल्‍ट

पंकज चौधरी, बीजेपी 4,71, 542

काशीनाथ शुक्ल, बसपा 2,31, 084

अखिलेश सिंह, सपा 2,13, 974

चुनावी मुद्दे

बकाया गन्ना भुगतान

गड़ौरा चीनी मिल पर किसानों का 2014 से 2016 तक का 46 करोड़ रुपये बकाया है. बार-बार आश्वासन के बाद भी बकाया भुगतान नहीं हुआ. अब नए सिरे से मिल की संपत्ति नीलाम कर भुगतान की तैयारी है.

जिला मुख्यालय तक नहीं पहुंचे रेल के पहिए...

महराजगंज देश के उन थोड़े से जिलों में एक है, जहां मुख्यालय तक रेल के पहिए नहीं पहुंचे हैं. जिला मुख्यालय को रेल लाइन से जोड़ने का मुद्दा दशकों से उठाया जा रहा है. रेलवे ने महराजगंज को रेल लाइन से जोड़ने के लिए घुघली-फरेंदा रेल मार्ग का खाका खींचा है. इस योजना के मुताबिक रूट पर कुल सात स्टेशन होंगे. यह योजना फाइलों पर हर बजट के दौरान बनती-बिगड़ती है. हर चुनाव में यह मुद्दा उछलता है. हर दल इसे भुनाता है. लेकिन, महराजगंज रेल लाइन से नहीं जुड़ पाता.

रोहिन बैराज

नौतनवा तहसील की सिंचाई व्यवस्था रोहिन नहर प्रणाली पर निर्भर है. इसके लिए हर साल रोहिन नदी में मिट्टी से बांध बनाया जाता है. सिंचाई के बाद उसे गिरा दिया जाता है. इस प्रक्रिया में हर साल लाखों का वारा-न्यारा होता है. रोहिन नहर पर बैराज निर्माण की मांग कई दशक पुरानी है। अभी तक बैराज निर्माण की दिशा में कोई ठोस पहल नहीं हो सकी.

वन संपदा के मामले में सबसे समृद्धा जिला है महराजगंज

जंगल किनारे तार बाड़ वन संपदा के मामले में महराजगंज पूर्वांचल में सबसे समृद्ध है. यहां की सोहगीबरवा सेंक्चुरी अपनी विविधता के लिए विख्यात है. वन्य जीवों के कारण जंगल के किनारे के किसानों की फसल चौपट हो जाती है. किसान पूरी-पूरी रात जगकर फसलों की रखवाली करते हैं. इसके बाद भी फसल सुरक्षित नहीं रहती है. इससे निचलौल, सदर, नौतनवां और फरेंदा तहसील के हजारों किसान प्रभावित हैं. करीब एक लाख किसान तार-बाड़ लगाने की मांग कर रहे हैं.

बाढ़ से निजात नहीं

महराजगंज जिला रोहिन, राप्ती, छोटी गंडक, चंदन और प्यास नदी की बाढ़ से हर साल प्रभावित होता है. करीब आधी आबादी बाढ़ की चपेट में रहती है. अभी तक बाढ़ बचाव के लिए ठोस पहल नहीं हो सकी है. रोहिन के बंधे जर्जर हैं. पानी का दबाव कम करने के लिए कई जगहों पर काम भी हुआ, लेकिन चंदन और प्यास के तटबंधों की मरम्मत नहीं हो सकी.

गणेश चीनी मिल

फरेंदा की पहचान गणेश चीनी मिल से रही है. इसे 1994 में बंद कर दिया गया. 2014 के चुनाव में वादा किया गया था कि जीत के बाद मिल को चलवाएंगे. लेकिन, अभी तक मिल बंद ही है. 2017 के विधानसभा चुनाव में वादा किया गया कि चीनी मिल की जगह कपड़ा मिल का प्रस्ताव भेजा गया है. जल्द ही नई यूनिट शुरू होगी. लेकिन. ये वायदा भी पूरा नहीं हो सका है.

गड़ौरा चीनी मिल

निजी क्षेत्र की जेएचबी गड़ौरा चीनी मिल ने इस बार पेराई नहीं की. गन्ना आवंटन की मांग को लेकर प्रबंधन ने मिल चलाने से इनकार कर दिया. निचलौल तहसील क्षेत्र का करीब 57 लाख टन गन्ना सूखने की कगार पर पहुंच गया. किसानों का दबाव पड़ने पर शासन ने यहां का गन्ना कुशीनगर, घोसी की छह मिलों को आवंटित किया. खरीद केंद्र भी शुरू हुए. लेकिन, गन्ने की उठान नहीं हो सकी.

घुघली चीनी मिल

जिले में औद्योगिक क्रांति की शुरुआत करने वाले घुघली की पहचान 1926 में स्थापित चीनी मिल से थी. लेकिन, 1999 में मिल बंद हो गई. आश्वासन दिए गए कि मिल चलेगी. लेकिन, मिल नहीं चली. अलबत्ता 2010 में बसपा सरकार ने मिल को बेच दिया.

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