महोबा: लॉकडाउन की निशानी 'रिक्शे' को सहेज कर रखेंगे प्रवासी मजदूर रामचरन, 3 दिन तक बच्चे को नहीं मिली रोटी
कोरोना वायरस की वजह से लोगों को तमाम परेशानियों का सामना करना पड़ा है. कोरोना काल में सबसे ज्यादा मुसीबतें प्रवासी श्रमिकों को झेलनी पड़ी हैं. ऐसी ही व्यथा महोबा के रहने वाले रामचरन की भी है. रामचरन ने बताया कि रिक्शा न होता तो वह परिवार के साथ अपने घर न आ पाता. इसीलिए इसे जीवन भर सहेज कर रखेगा.
महोबा: वैश्विक महामारी कोरोना वायरस को फैलने से रोकने के लिए लगाए गए राष्ट्र व्यापी 'लॉकडाउन' के दौरान अपने घरों को लौटने वाले लाखों प्रवासी मजदूरों में महोबा जिले के बरा गांव का रामचरन भी शामिल है. रामचरन अपने 9 रिश्तेदारों को रिक्शे में दिल्ली से बरा गांव तक लाया था. अब वह इस 'रिक्शे' को लॉकडाउन की निशानी के तौर पर सहेज कर जीवन भर रखना चाहता है.
महोबा जिले के कबरई विकास खण्ड के बरा गांव का रामचरन पेशे से मजदूर है. जनवरी के प्रथम सप्ताह में कैंसर से पत्नी चंदा की मौत के बाद उसके इलाज की खातिर लिए कर्ज के करीब एक लाख रुपये चुकाने की खातिर वह अपने छह साल के बच्चे को लेकर साढ़ू व भतीजे के परिवार के साथ बेलदारी करने दिल्ली चला गया था.
लेकिन इसके बाद हालात बदल गए और कोरोना की वजह से लॉकडाउन लागू हो गया. लॉकडाउन मे फंसे होने की वजह से रामचरन को गांव वापस आने के लिए काफी जद्दोजहद करनी पड़ी. दिल्ली जाने से पहले वह अपनी पांच साल की बच्ची आरती और 12 साल के बेटे दयाशंकर को 65 वर्षीय मां रज्जी के पास घर छोड़ गया था.
रामचरन बताता है कि पत्नी चंदा काफी समय से कैंसर की बीमारी से ग्रस्त थी और इसी साल जनवरी के प्रथम सप्ताह में इलाज के अभाव में उसकी मौत हो गयी. उन्होंने बताया कि गांव में साहूकारों से पांच रुपए प्रति सैकड़े ब्याज की दर से एक लाख रुपये कर्ज लेकर उसका (पत्नी) इलाज भी करवाया, लेकिन बाद में पैसे के अभाव में इलाज बंद हो गया और उसकी मौत हो गयी.' इसी कर्ज भरने के लिए मकर संक्रांति के बाद वह अपने छह साल के बेटे रमाशंकर को लेकर मजदूरी करने दिल्ली चला गया और वहां मकान निर्माण में बेलदारी की मजदूरी करने लगा था.
रामचरन ने बताया कि, 'कोरोना महामारी को फैलने से रोकने के लिए हुए लॉकडाउन की वजहस से मजदूरी बंद हो गयी. एक हफ्ते तक तो किसी तरह समय गुजर गया, लेकिन इसके बाद बच्चे तक को भी तीन दिन रोटी नहीं नसीब हुई. बकौल रामचरन, 'लॉकडाउन घोषित होने पर सभी प्रकार के वाहन बंद हो गए थे और साथी मजदूर पैदल अपने घरों को लौटने लगे थे. ऐसी स्थिति में उसने अपने भवन निर्माण के ठेकेदार से मदद मांगी. ठेकेदार ने गांव लौटने के लिए बालू-सीमेंट ढोने वाला एक ठेला रिक्शा मुफ्त में दे दिया.'
रामचरन बताता है कि इसी रिक्शे में वह अपने साढ़ू और भतीजे के परिवार को लेकर तथा गृहस्थी का कुछ सामान लादकर सात मई को दिल्ली से चला और 14 मई को घर पहुंचा. उसने कहा कि, 'करीब छह सौ किलोमीटर के सफर में कई जगह पुलिस ने हम पर डंडे भी बरसाए, लेकिन कोसीकलां की पुलिस ने इंसानियत दिखाई. वहां की पुलिस ने सभी 9 लोगों को खाना खिलाने के बाद रिक्शा सहित एक ट्रक में बैठाकर आगरा तक भेजा, फिर आगरा से गांव तक हम रिक्शे से ही घर आये'
रामचरन ने बताया कि, 'बारी-बारी से तीनों पुरुष रिक्शा खींचते थे, कई बार परिवार की दो महिलाओं ने भी रिक्शा खींचा था. रामचरन कहता है कि 'यह रिक्शा लॉकडाउन की 'निशानी' है'. यदि यह रिक्शा न होता तो वह परिवार के साथ अपने घर न आ पाता. इसीलिए इसे जीवन भर सहेज कर रखेगा.'