मेरठ: मेरठ के राजकीय बालगृह में 10 साल के बच्चे के साथ कुकर्म के मामले में अफसरों की कार्रवाई पर सवाल खड़े हुए है. अफसरों ने जांच तो खुद की, मगर केस का वादी (शिकायतकर्ता) 14 साल के उस बच्चे को बना दिया जो खुद बालगृह का निवासी है और अपनी देखभाल तक करने के साधन उसके पास नहीं है. मुकदमे की एफआईआर के लिए अफसरों ने इस बच्चे को हथियार ही नहीं बनाया, केस की एफआईआर महज 34 शब्दों की जानकारी में समेटकर रख दिया है. इसमें घटना की जानकारी तक ठीक से नहीं दी गई है. अफसरों की यह लचर कार्रवाई आरोपी के बच निकलने का रास्ता देती है.


34 शब्दों की एफआईआर से कैसे मजबूत होगा केस


23 अगस्त 2018 को मेरठ के नौचंदी थाने में दर्ज केस संख्या 675/18 में जिस बच्चे को वादी बनाया गया है, उसकी उम्र 14 साल है. उसके नाम के आगे बाल अपचारी लिखा गया है और उसका निवास बाल संप्रेक्षण गृह दर्ज है. आईपीसी की धारा 377 के अन्तर्गत दर्ज इस मुकदमें में तहरीर का जो मजमून है उसमें केवल 34 शब्द लिखे गये हैं. ये शब्द केवल तीन लाइनों में खत्म हो जाते हैं. समझा जा सकता है कि इन लाइनों में वादी 14 साल के बच्चे ने क्या लिख पाया होगा.


बाल अधिकारों का हनन है 'बाल अपचारी' लिखना


राष्ट्रीय बाल आयोग ने बालकों के अधिकारों के लिए बाकायदा नियम-कानून तय कर रखे हैं. पुलिस इनका बखान तो हर थाने में करती है, लेकिन उनका पालन नहीं करती. इस केस में भी पुलिस ने यह जानते हुए कि बालगृह में वह बच्चे रखे जाते है जिनका कानून तोड़ने वालों से कोई वास्ता नहीं होता, एफआईआर में वादी के नाम के आगे 'बाल अपचारी' लिखा है. 'बाल अपचारी' उसे कहते है जो भारतीय दंड संहिता के अन्तर्गत नाबालिग रहते हुए कानून का उल्लघंन करता है. किसी निर्दोष बच्चे के नाम के आगे ऐसा लिखना बाल अधिकारों का हनन है.


बच्चों को वादी बनाने का नहीं है प्रावधान


ऐसे मामलों में बच्चे को वादी नहीं बनाया जा सकता. बालगृह के अंदर होने वाले अपराध को दर्ज कराने की जिम्मेदारी गृह अधीक्षक की होती है. बाल अधिकारों की पैरोकार 'वात्सल्य' संस्था के मीडिया प्रतिनिधि अंजनी सिंह कहते है कि अगर गृह अधीक्षक पर आरोप है तो जिला प्रोबेशन अधिकारी या फिर जिलाधिकारी की ओर से नियुक्त कोई भी मजिस्ट्रेट या अफसर इस कार्रवाई को कर सकता है. बालक को अगर वादी बना देगें तो वह केस की पैरवी नहीं कर सकेगा. ऐसे में इसका लाभ आरोपी को मिल सकता है. मेरठ बालगृह में जो कार्रवाई की गई, वह नियम विरूद्ध है इसकी शिकायत राष्ट्रीय बाल आयोग और महिला एवं बाल कल्याण विभाग से की जा रही है.


पाक्सो न लगाना पुलिस की बड़ी लापरवाही


'वात्सल्य' के मीडिया प्रवक्ता अंजनी सिंह ने बताया कि इस केस में पाक्सो एक्ट की धाराएं न लगाना पुलिस की बड़ी लापरवाही है. बालकों से जुड़े लैंगिक अपराध में इस एक्ट के इस्तेमाल के लिए पुलिस को कड़े निर्देश हैं. खासकर जब मामला बच्चों के केअरटेकर या फिर ऐसे अफसरों के आरोपी होने से जुड़ा हुआ हो, जो बच्चों के प्रति जिम्मेदार हैं तो एक्ट की धारा 5 और धारा 9 में इसके खास प्रावधान है. एसपी सिटी कुमार रणविजय सिंह ने बताया कि इस मामले में विवेचनाधिकारी के खिलाफ जांच शुरू की गई है. केस में धाराएं ठीक न लगाने के पीछे क्या मंशा रही, उसकी जांच कर कड़ी कार्रवाई की जायेगी.


डेढ़ महीने अफसर दबाये रहे बालगृह में हुआ कृत्य

राजकीय बालगृह में रह रहे मासूम बच्चे के साथ बालगृह के ही एक संविदाकर्मी ने कुकर्म किया. यह सिलसिला करीब 2 महीने तक जारी रहा. आरोपी धमकियां देता और बच्चे के साथ दरिंदगी करता. जिलाधिकारी के मुताबिक इस घटना की जानकारी मामला खुलने के डेढ़ महीने पहले बालगृह के अधीक्षक और जिला प्रोबेशन अधिकारी को थी. मगर घटना को दबाने की कोशिश की गई. बाल कल्याण समिति के मजिस्ट्रेट के निरीक्षण के दौरान 21 अगस्त को यह मामला खुला. जिलाधिकारी समेत विभाग से जुड़े अफसरों को रिपोर्ट भेजकर कार्रवाई की संस्तुति की गई थी. आनन-फानन में केस दर्ज करके आरोपी को चुपचाप गिरफ्तार किया और जेल भेज दिया. मगर पुलिस-प्रशासन के अफसरों ने केस दर्ज कराने की प्रक्रिया में घोर लापरवाही की है.