नई दिल्ली: दुनिया में ज्यादातर धार्मिक मान्यताओं में इंसान को उसकी मौत के बाद ज़मीन में दफना दिया जाता है. कहने को तो इंसान को दफनाने में सिर्फ दो गज जमीन लगती है. लेकिन अब दुनिया में लोगों को दफनाने के लिए जगह की भारी कमी पड़ने लगी है.
साल दर साल जनसंख्या बढ़ने के साथ, कब्रिस्तान भरते चले गए लेकिन अब दुनिया के कई देशों में इतनी जमीन नहीं बची कि शवों को दफनाने की नई जगह दी जाए. हालत ये है कि कई देशों में दफनाने के लिए वेटिंग लिस्ट तैयार होने लगी है.
एक रिसर्च में ये भी सामने आया कि दुनिया के कई देशों में लोग अब दफनाने की आधुनिक तरीकों से शवों को जलाना पसंद कर रहे हैं. लेकिन वो साक्षी महाराज जैसे लोगों की सोच के कारण नहीं, बल्कि खुद अपनी मान्यताओं में ये बदलाव समाज की जरूरतों के हिसाब से ला रहे हैं. दुनिया में जगह की कमी के कारण कैसे अपनों को दफनाकर अंतिम संस्कार करना भी मुश्किल होता जा रहा है उसकी एक रिसर्च हमने की तो पता चला.
-हांगकांग में मर चुके लोगों की समाधि बनाने के लिए 5 साल की वेटिंग चल रही है.
-हांगकांग में जगह की कमी के कारण 1970 के बाद से नए कब्रिस्तान नहीं बन रहे हैं.
-हांगकांग में आप दुनिया की सारी दौलत देकर भी स्थाई कब्र की जगह नहीं ले सकते हैं.
-अगले 24 साल में अमेरिका को लास वेगस के बराबर की जमीन चाहिए होगी.
-फिलीपींस की राजधानी मनीला में जगह की कमी के कारण कब्रिस्तान के ऊपर ही घर बनाने पड़ रहे हैं.
-मनीला में कब्र का किराया 5 साल बाद नहीं दिया तो वो जगह किसी और को दे दी जा रही है.
-जापान में कब्रिस्तान की कमी के कारण इंतजार करना पड़ता है तो लोगों को तब तक शव रखने के लिए एक होटल अपनी सर्विस देता है.
कब्रिस्तान भरते जा रहे हैं. जगह कम होती जा रही है. यही कारण है कि अब भारत में भी मान्यताओं के मुताबिक अंतिम संस्कार के लिए कई नियम बदले जा रहे हैं. मुंबई की तरह देश में और भी कई जगहें ऐसी हैं, जहां कब्रिस्तान की कमी के कारण मान्यताओं में बदलाव खुद धर्मगुरु ला रहे हैं. जैसे छत्तीसगढ़ में ईसाई धर्मगुरुओं ने दफनाने की जगह दाह संस्कार का भी नया रास्ता खोला है. कई चर्च में रविवार की प्रार्थना के बाद इसकी बकायदा जानकारी भी दी जा रही है.
ऐसी ही पहल दुनिया के और दूसरे बड़े देशों में भी हो रही है लेकिन वहां किसी साक्षी महाराज की समाज को बांटने वाली सोच के कारण नहीं बल्कि समाज की जरूरतों के मुताबिक कदम उठाया जा रहा है. जरा उन्हें भी आज आप जान लीजिए.
-इंटरनेशनल क्रिमेशन स्टेटिस्टिक्स के मुताबिक दुनिया के कई देशों में शवों को दफनाने की जगह जलाने का प्रचलन बढ़ा है.
-जैसे अमेरिका में 1960 में जहां दाह संस्कार करने वाले सिर्फ 3.8 फीसदी थे, उसी अमेरिका में 2015 में 49 फीसदी लोगों ने अंतिम संस्कार के लिए दफनाने की जगह दाह संस्कार की प्रथा को अपनाया.
-कनाडा में 1970 में जहां शवों को जलाकर अंतिम कर्म क्रिया करने वाले 5.89 प्रतिशत थे. अब कनाडा में दाह संस्कार करने वाले 68.4 फीसदी हो चुके हैं.
-चीन में भी 46 फीसदी लोग अब दाह संस्कार के जरिए अपनों को अंतिम विदाई देने प्रेफर कर रहे हैं.
जैसा साक्षी महाराज कहते हैं कि मुस्लिम देशों में भी अब शवों को जलाने की परंपरा हो चुकी है, ऐसा कतई नहीं है. मुस्लिम देश अब भी अपनी मान्यताओं के मुताबिक शवों को दफना ही रहे हैं और दुनिया के जिन देशों में लोगों ने दफनाने की जगह शवों को जलाने की परंपरा अपना ली है इसकी दो बड़ी वजह हैं.
शवों को दफनाने की जगह जलाने पीछे एक बड़ी वजह अगर कब्रिस्तान में जगह की कमी है तो दूसरी बड़ी वजह आर्थिक है. अमेरिका जैसे देश में शवों को दफनाने पर जहां कुल खर्च 5 लाख 59 हजार रुपए आता है. वहीं शव को जलाकर अंतिम संस्कार का खर्च सिर्फ 2 लाख 13 हजार रुपए ही होता है.
एबीपी न्यूज मानता है कि जब संविधान ने सबको अपने धर्म के मुताबिक जीने, रहने, पूजा करने और अंतिम संस्कार का तरीका चुनने का अधिकार दिया है तो क्यों राजनेता इसमें कूदकर दखल देते हैं. क्या चुनावी माहौल में चंद वोटों के बंटवारे के लिए समाज को बांटने वाली ऐसी बात करना राजनीति है ?
यानी समाज की जरूरत और आर्थिक रूप से फायदेमंद तरीके को दुनिया में बाकी देश भी अपना रहे हैं. उन्हें किसी साक्षी महाराज की जरूरत नहीं हैजो उनके लिए फैसला करे कि कब्रिस्तान होना ही नहीं चाहिए.