गोरखपुरः मैनपुरी षड्यंत्र और काकोरी कांड के महानायक अमर शहीद राम प्रसाद बिस्मिल का 19 दिसंबर को 91वां बलिदान दिवस है. इसी दिन वे देश की आजादी की लड़ाई में अपना सर्वस्व न्योछावर कर हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर झूल गए थे. 19 दिसंबर 1927 को उन्हें गोरखपुर जेल में फांसी दी गई थी. फांसी के फंदे पर लटकने के पहले उन्होंने अंग्रेजी में कहा था कि "आई विश डाउनफाल ऑफ ब्रिटिश इम्पायर."
गोरखपुर जिला जेल में 19 दिसंबर 1927 को जब अमर शहीद राम प्रसाद बिस्मिल जब फांसी के फंदे पर झूले तो उनकी उम्र महज तीस साल थी. बिस्मिल को काकोरी काण्ड में आरोपी बनाकर अंग्रेजों ने अशफाकउल्लाह खान, राजेन्द्र लहरी, रोशन सिंह के साथ फांसी की सजा सुनाई थी. उन्नीस साल की उम्र में क्रांतिकारी आंदोलन में कूदे राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ उपनाम से कविता, शायरी और साहित्य लिखा करते थे.
फांसी के पहले जेल से लिखे अपने अंतिम पत्र में उन्होंने लिखा था कि ‘मरते बिस्मिल...रोशन...लहर...अशफाक अत्याचार से, होंगे पैदा सैकड़ों उनकी रुधिर की धार से, उनके प्रबल उद्योग से उद्गार होगा देश का, तब नाश होगा सर्वदा दुःख शोक लवकेश का." भगत सिंह भी उनके इस संदेश के बाद काफी द्रवित हो गए.
बिस्मिल के लिखे ये शब्द कि,"मुझे विश्वास है कि मेरी आत्मा मातृभूमि तथा उसकी दीन सम्पत्ति के लिए उत्साह और ओज के साथ काम करने के लिए शीघ्र लौट आएगी." आजादी की लड़ाई के लिए आग में घी का काम किया. हर नौजवान उनके बलिदान पर गर्व कर उन्हीं की तरह बनने का सपना देखने लगा. उनके ये ओजस्वी शब्द उनकी बलिदान स्थली पर बने स्मारक पर लगाए गए शिलापट्ट पर भी लिखे हैं. जिसे पढ़कर आज भी युवाओं की आंखे भर आती हैं.
शिलापट्ट पर उनके अंतिम पत्र के वाक्य,"यदि देश हित में मरना पड़े मुझे सहत्रों बार भी, तो भी मैं इस कष्ट को निज ध्यान में लाऊं कभी, हे ईश, भारत वर्ष में शत बार मेरा जन्म हो, कारण सदा ही मृत्यु का देशोपकारक कर्म हो." युवाओं के दिल में आज भी देशप्रेम के जज्बे को जागृत करती हैं.
फांसी के फंदे पर हंसते-हंसते झूलने के पहले उन्होंने भारत माता की जय और वन्दे मातरम् के नारे लगाए. सात बजे सुबह उनके पार्थिव शरीर को जेल से बाहर निकालने के लिए जेल की प्राचीर को तोड़ा गया. क्योंकि जेल के बाहर उनके बलिदान की खबर सुनने के बाद डेढ़ लाख नौजवान खड़े थे. अंग्रेजी हुकूमत को इस बात का डर था कि कहीं ये भीड़ बेकाबू होकर जेल के भीतर न घुस जाए.
उनकी अंतिम यात्रा में डेढ़ लाख लोगों का हुजूम शामिल हुआ और राजघाट पर राप्ती नदी के पावन तट पर उनका अंतिम संस्कार किया गया. इसके पहले अंतिम दर्शन के लिए उनका पार्थिव शरीर घंटा घर पर रखा गया था. उनकी शहादत के बाद उनकी मां ने कहा था कि मैं बेटे के भारत मां के बलिदान पर रोऊंगी नहीं. क्योंकि मुझे ऐसा ही ‘राम’ चाहिए था. मुझे उस पर गर्व है. फांसी के एक दिन पहले ही बिस्मिल अपने माता-पिता से मिले थे.
सन् 1897 में शाहजहांपुर में पैदा हुये राम प्रसाद ने देश को आजाद कराने के लिये हिन्दुस्तान रिपब्लिकन पार्टी का दामन थामा और अंग्रेजों की नजर में आ गए. 9 अगस्त 1925 को इन लोगों ने काकोरी नामक जगह पर ब्रिटिश हुकूमत के खजाने का लूट लिया, जिसमें बाद में जांच होने पर इनको, अशफाक उल्लाह खान, रौशन सिंह और राजेन्द्र लहरी को सामूहिक रुप से फांसी की सजा सुनाई गई. विस्मिल को फांसी के लिए गोरखपुर जेल लाया गया. जहां पर 19 दिसम्बर 1927 की सुबह 6 बजे उन्हें फांसी पर लटका दिया गया.
आजादी के इस दीवाने ने इसी जेल में अपने अंतिम दिनों में अपनी आत्मकथा के साथ 11 किताबें लिखीं थीं. जिस समय बिस्मिल को लखनऊ जेल से गोरखपुर लाया गया, उस समय उनके ऊपर धारा 121 A, 120B, 396 IPC के तहत राजद्रोह और षड्यंत्र रचने के आरोप फांसी की सजा दी गई थी. बिस्मिल चार माह 10 दिन तक इस जेल में रहे.
कैदी नम्बर 9502 यानी राम प्रसाद बिस्मिल जेल में सभी के प्रिय रहे हैं. जिस दिन उनको फांसी हुई, जेल के अंदर और बाहर हर किसी की आंखें नम थीं. युवा पीढ़ी इन आजादी के इन दीवानों के बारे में जान सके, इसके लिए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की पहल पर अब जिला जेल में बिस्मिल का कमरा और फांसी घर को रेनोवेट कर आम लोगों के लिए खोला जा रहा है.