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टीचर्स डे स्पेशल: मिलिए मेरठ की श्रुति से जो संवार रही हैं वजूद खो चुके बचपन को

मेरठ में होटल मैनेजमेंट की छात्रा रही श्रुति रस्तोगी ने कूड़े के ढेर पर प्लास्टिक बीनते बच्चों को देखकर उन्होंने अपना जीवन इन गरीब बच्चों को समर्पित कर दिया. प्राइवेट नौकरी छोड़ अब मलिन बस्ती में जाकर हाशिये पर पड़े इन बच्चों का भविष्य संवारने का काम कर रही हैं.

मेरठ: बॉलीवुड के महानायक अमिताभ बच्चन का एक डायलॉग है- ''हम जहां खड़े हो जाते है, लाइन वहीं से शुरू होती है.'' मेरठ में होटल मैनेजमेंट की छात्रा रही श्रुति रस्तोगी ने कुछ इसी अंदाज में अपने जीवन का मकसद एकाएक बदल दिया. कूड़े के ढेर पर प्लास्टिक बीनते बच्चों को देखकर उन्होंने अपना जीवन इन गरीब बच्चों को समर्पित कर दिया. प्राइवेट नौकरी छोड़ी और अब मलिन बस्ती में जाकर हाशिये पर पड़े इन बच्चों का भविष्य संवारने का काम कर रही हैं.

टीचर्स डे स्पेशल: मिलिए मेरठ की श्रुति से जो संवार रही हैं वजूद खो चुके बचपन को

हर शाम ऐसे लगती है श्रुति मैडम की क्लास

मेरठ के गढ़ रो़ड पर रंगोली मंडप के पास बह रहे गंदे-बदबूदार नाले का साइज एक रजवाहे से भी बड़ा है. इस नाले के किनारे ऊंचे झाड़ों के बीच एक बड़ी मलिन बस्ती बस चुकी है. शाम को पांच बजते ही कंधे पर बैग टांगे एक चश्मिश लड़की इस बस्ती के गरीब बच्चों को इकठ्ठा करती है और अगले दो घंटे वहां का नजारा स्कूल की क्लास वाला होता है. झोंपड़ी पर टंगा ब्लैकबोर्ड और क्लास के बीच में खड़े बच्चों के जबाब आपको वहां रूकने पर मजबूर कर देगें. यह नजारा करीब एक साल से बदस्तूर जारी है. गरीब बच्चों को पढ़ाने वाली इस टीचर का नाम श्रुति रस्तोगी है. एक साल की पढ़ाई के बाद इन बच्चों में कुछ ऐसे भी है जो अब मुख्यधारा से जुड़े स्कूलों में पढ़ने के लिए तैयार हैं.

एक कठिन शुरूआत..और फिर जुड़ता गया कारवां

होटल मैनेजमेंट का कोर्स करने के बाद मेरठ के शास्त्रीनगर की श्रुति मेरठ के रॉयल कालेज में जॉब कर रही थी. नाले के किनारे की बस्ती में रहने वाले बच्चे कचरे के ढेर पर प्लास्टिक बीनते रहते थे. श्रुति ने इन बच्चों को पढ़ाने की ठानी. श्रुति मलिन बस्ती में गई और वहां शुरूआत में 3-4 बच्चों को इकठ्ठा करके क्लास शुरू कर दी. वह अंग्रेजी, गणित, हिंदी पढ़ाती है. शुरूआत में बच्चों की भाषा और माहौल से जुझना पड़ा, लेकिन उन्होंने क्लास जारी रखी. बच्चों को अपनी ओर खींचने के लिए वह खाने-पीने की चीजें भी अपने साथ ले जाती और इस तरह क्लास में बच्चे जुड़ते चले गये. बच्चों ने पढ़ना शुरू किया तो श्रुति ने अच्छा परफॉर्म करने वाले बच्चों को स्टेशनरी और गिफ्ट देना शुरू किये. अब श्रुति की क्लास में 35 से 40 बच्चे हैं.

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पब्लिक स्कूल में पढ़ेगे गरीबों के बच्चे

लड़की होकर ये कदम उठाना श्रुति के लिए एक चुनौती से कम नहीं था. उस पर नौकरी छोड़कर गरीब बच्चों को पढ़ाने में उन्हें अपने पापा का विरोध भी सहना पड़ा. मगर चीजें धीरे-धीरे सामान्य होती चली गयी. श्रुति की क्लास में पढ़ने वाली 9 साल की निशा के पिता राजेश कहते हैं कि बेटी को पढ़ाने के लिए न तो कभी किसी ने कहा और न कभी उन्होंने सोचा था. मगर श्रुति मेम के आने के बाद पता चला कि मेरी बेटी भी होशियार हैं और आगे तक पढ़ सकती है. अब बेटी को पढ़ाने के लिए तय कर लिया है. इसी तरह बैंड बजाकर अपना परिवार चलाने वाले 11 साल की अंजलि के पिता योगेन्द्र भी अपनी बेटी के पढ़ने पर काफी खुश हैं. श्रुति ने अच्छी पढ़ाई करने वाले 4 बच्चों को पब्लिक स्कूल में पढ़ाने की योजना बनाई है. खुद की पॉकेटमनी और एक एनजीओ की मदद से वह इन बच्चों का एडमीशन पब्लिक स्कूल में कराने जा रही है.

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पापा का विरोध, समाज के ताने भी सुने

शास्त्रीनगर की रहने वाली श्रुति रस्तोगी के परिवार का अध्यापन से कभी वास्ता नहीं रहा. पिता स्पोर्ट्स गुड्स के कारोबारी और मां गृहिणी हैं. भाई नोएडा में प्राइवेट जॉब करता है और बड़ी बहन शादी के बाद बुटीक चलाती हैं. श्रुति के पिता ने उसे एमकॉम कराने के बाद होटल मैनेजमेंट का कोर्स इसी सोच के साथ कराया था कि अच्छी प्रोफेशनल रहेगी तो शादी के बाद जिंदगी आसान रहेगी. मगर श्रुति की जिंदगी का मकसद शुरूआत से ही समाज के लिए कुछ हटके करने का था. स्कूल जाने से वंचित गरीब बच्चों का जीवन संवारने के लिए जब उन्होंने पढ़ाना शुरू किया तो मां-पापा के ताने भी सुनने पड़े. बस्ती में कूड़े के बीच रह रहे बच्चों और उनके पारिवारिक माहौल को लेकर भी श्रुति के सामने मुश्किलें थी. मगर उन्होंने हार नहीं मानी और न अपने मकसद से किनारा किया.

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