यूपी चुनाव: उम्मीदवारों से एबीपी न्यूज़ ने पूछा MLA का फुलफॉर्म, तो मिला ये जवाब!
जामा मस्जिद के शाही इमाम ने बीएसपी के पक्ष में की अपील
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में दलित-मुस्लिम समीकरण के सहारे अपनी चुनावी नैया पार कराने में जुटी मायावती के समर्थन में दिल्ली जामा मस्जिद के शाही इमाम भी उतर आए. उन्होंने कहा है कि मुझे विश्वास है कि मुस्लिम हितों की रक्षा बीएसपी कर सकती है.
इस मौके पर शाही इमाम ने समाजवादी पार्टी और कांग्रेस को कोसने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने दिया. हालांकि इस चुनाव से पहले वो इन दलों के लिए भी वोट की अपील कर चुके हैं और खुद उनके दामाद समाजवादी पार्टी के विधायक भी रह चुके हैं. सपा को कोसते हुए उन्होंने कहा कि समाजवादी पार्टी ने मुसलमानों के लिए कोई काम नहीं किया.
नेशनल उलेमा काउंसिल का मायावती को समर्थन देने का एलान
कुछ ऐसे ही बोल नेशनल उलेमा काउंसिल के भी हैं जिसने मायावती के समर्थन में अपने 84 उम्मीदवारों को मैदान से हटाने का फैसला किया है.
राष्ट्रीय उलेमा काउंसिल और सैयद बुखारी से पहले अंसार रजा, कल्बे जव्वाद जैसे मुस्लिम धर्म गुरु भी मायावती के पक्ष में वोट देने की अपील कर चुके हैं और सबके अपील का अंदाज ऐसा कि जैसे राज्यभर के मुसलमान उनकी अपील सुनते ही हाथी को वोट देने के लिए तैयार हो जाएंगे, लेकिन एबीपी न्यूज की पड़ताल में जमीनी सच्चाई कुछ और निकली.
कांग्रेस-समाजवादी पार्टी गठबंधन को वोट देना चाहिए- मजलिस-ए-शूरा
मायावती के पक्ष में जिस तरह से एक के बाद दूसरे मुस्लिम धर्म गुरु सामने आ रहे हैं, उसी मसले पर बात करने के लिए जब एबीपी न्यूज़ सहारनपुर के देवबंद पहुंचा तो वहां एक दूसरी ही तस्वीर सामने आयी.
ऑल इंडिया मजलिस-ए-शूरा के महासचिव रहीमुद्दीन कासमी ने कहा कि कांग्रेस-एसपी गठबंधन सेक्यूलर है. उसको वोट देना चाहिए.
राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक-
- इस बार के चुनाव में राज्य की आबादी के 20 फीसद मुस्लिम मतदाताओं को अपने पाले में लाने के लिए बीएसपी और कांग्रेस-एसपी गठबंधन में कड़ी टक्कर है.
- बीएसपी ने जहां 97 उम्मीदवारों को टिकट दिया है, वहीं कांग्रेस-एसपी गठबंधन ने करीब 100 उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है.
- बीजेपी ने एक भी मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट नहीं दिया है.
- यूपी की कुल 403 विधानसभा सीट में से करीब 143 सीट पर मुस्लिम मतदाता हार-जीत में अहम भूमिका निभाते हैं.
मुस्लिम कौम के बुद्धिजीवी अक्सर कहते हैं कि इस धर्म के सियासी ठेकेदार चुनावी मौसम में अपना नफा नुकसान देखकर दलों से हाथ मिलाते रहते हैं. दूसरी तरफ जिन आम मुस्लिम मतदाताओं के नाम पर वो राजनीति करते हैं, वो तो बस चुनावी मोहरा बनकर रह जाते हैं. देखना है कि इस बार के चुनाव में ये परंपरा टूटती है या फिर पुरानी कहावत सच साबित होती है. कमाता धोती वाला है, खाता टोपीवाला है.
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