प्रयागराज: सावन का महीना शिव की आराधना के लिए जाना जाता है और सावन के सोमवार का धार्मिक दृष्टि से खास महत्व है, लेकिन इस महीने प्रत्येक सोमवार को यहां होने वाली ‘गहरेबाजी’ का भी अपना एक खास आकर्षण है और इसे देखने दूर-दूर से लोग यहां खिंचे चले आते हैं.


गहरेबाजी शीशम की सजी धजी बग्घी के साथ एक खास अंदाज में कदम दर कदम चलते घोड़े की दौड़ है. इसमें घोड़ों की टाप और ताल पर थिरकती चाल देखी जाती है. गहरेबाजी में दौड़ के लिए घोड़ों को साल भर प्रशिक्षित किया जाता है और प्रशिक्षित घोड़े सरपट भागने के बजाय एक-एक कदम बढ़ाकर दौड़ते हैं.


‘प्रयाग गहरेबाजी संघ’ के संयोजक विष्णु महाराज ने बताया कि प्रयागराज में गहरेबाजी की शुरुआत कई सौ साल पहले हुई थी और उस समय यहां के पुरोहित पंडे ही इसमें शामिल हुआ करते थे. बाद में यादव, चौरसिया, पंजाबी और मुस्लिम भी इसमें हिस्सा लेने लगे. उन्होंने बताया कि घोड़े की चाल में सिंधी, मादरी, डुल्की और चौटाला चाल शामिल है.


घोड़े पालने के शौकीन और हर साल गहरेबाजी में अपना घोड़ा दौड़ाने वाले बदरे आलम ने बताया कि गहरेबाजी में सिंधी नस्ल के घोड़े सबसे अधिक सफल हैं क्योंकि इनमें कदम दर कदम चलने का जन्मजात गुण होता है, जबकि काठियावाड़, पंजाब, मारवाड़ और अंग्रेजी नस्ल के घोड़ों को कदमबाजी सिखानी पड़ती है.


उन्होंने बताया कि गहरेबाजी कोई रेस नहीं है, बल्कि सावन के प्रत्येक सोमवार को इसे उत्सव की तरह मनाया जाता है और इसे देखने दूर-दूर से लोग आते हैं. वर्तमान में गहरेबाजी में दक्ष करीब 5-7 घोड़े हिस्सा ले रहे हैं और इस उत्सव में अन्य इक्के तांगे वाले भी आनंद लेने के लिए शामिल हो जाते हैं.


‘प्रयाग गहरेबाजी संघ’ के अध्यक्ष बब्बन महाराज ने बताया कि इस समय गहरेबाजी में बदरे आलम, लालजी यादव, गोलू महाराज, विष्णु महाराज और चकिया के गुड्डू अपने दक्ष घोड़े दौड़ाते हैं. इनमें भइयन महाराज के नाती विष्णु महाराज 71 वर्ष की आयु में भी गहरेबाजी में हिस्सा लेते हैं.


गोलू महाराज ने बताया कि यह एक महंगा शौक है क्योंकि प्रतिदिन घोड़े की मालिश के लिए दो लोग लगे रहते हैं. वहीं घोड़े की प्रतिदिन की खुराक तीन पाव बादाम, चार लीटर दूध, एक पाव मक्खन और 200 रुपये की घास है. अब घोड़े की मालिश और सेवा के लिए उस्ताद लोग कम मिलते हैं.


बब्बन महाराज ने कहा कि गहरेबाजी पर्यटन को बढ़ावा देने का एक अच्छा माध्यम हो सकता है और प्रशासन को इस दिशा में प्रयास करना चाहिए. घोड़े पालने के शौकीन कुछ लोगों की वजह से यह विधा अभी बची हुई है.


उन्होंने बताया कि प्रसिद्ध तबला वादक पंडित किशन महाराज वाराणसी में 80 के दशक में सुप्रभा रेस कराते थे जिसमें भइयन महाराज, गोपाल महाराज के घोड़े जाते थे। लेकिन किशन महाराज के निधन के बाद वाराणसी में यह आयोजन बंद हो गया.


गहरेबाजी में लगने वाली बग्घी के बारे में बब्बन महाराज ने बताया कि आजादी से पहले यह पाकिस्तान से बनकर आती थी, लेकिन विभाजन के बाद दिल्ली के कुछ कारीगरों ने यह इसे बनाने की विधा सीखी और अब यह दिल्ली से बनकर आती है. इसे शीशम की लकड़ी से तैयार किया जाता है.


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