विधानसभा चुनाव: यहां दांव पर लगी है यूपी BJP के अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य की प्रतिष्ठा!
नई दिल्ली: इलाहाबाद की शहर उत्तरी सीट पर यूपी बीजेपी के अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य की प्रतिष्ठा दांव पर लगी हुई है. इसकी वजह है कि वह इसी सीट के निवासी हैं. यहीं के वोटर हैं और यहीं की जनता के वोटों से सांसद भी चुने गए हैं. यह सीट केशव मौर्य के लिए कितनी अहम है, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि पिछले पांच दिनों से वह इस सीट पर रोजाना प्रचार कर रहे हैं. उन्होंने इस सीट पर उस हर्ष बाजपेई को पार्टी का टिकट दिलाया है, जिन्होंने पिछला दो चुनाव बीएसपी के टिकट पर लड़ा था.
हालांकि केशव मौर्य की प्रतिष्ठा वाली इस सीट पर बीजेपी का कमल खिलना उतना आसान नहीं होगा, क्योंकि सामने चार बार के विधायक कांग्रेस के अनुग्रह नारायण सिंह इस चुनाव में जीत दर्ज कर हैट्रिक बंनाने का दावा कर रहे हैं. ख़ास बात यह है कि समूचे यूपी में सबसे ज़्यादा पढ़े - लिखे वोटर इसी सीट पर हैं. हालांकि पूरे यूपी में सबसे कम वोटिंग भी इसी सीट पर होती है.
प्रमुख उम्मीदवार: बुद्धिजीवियों के शहर इलाहाबाद की सिटी नार्थ सीट पर पिछले दो बार से लगातार चुनाव जीत रहे निवर्तमान विधायक अनुग्रह नारायण सिंह एक बार फिर कांग्रेस के टिकट पर चुनाव मैदान में हैं. इस सीट से वह अब तक चार बार विधायक रह चुके हैं और पांचवीं बार विधानसभा पहुँचने की तैयारी में हैं. बीजेपी ने इस सीट पर लंदन से इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने वाले युवा नेता हर्ष बाजपेई को मैदान में उतारा है. हर्ष 2007 और 2012 का चुनाव बीएसपी के टिकट पर लड़ चुके हैं. हालांकि दोनों ही चुनावों में उन्हें नजदीकी मुकाबले में हार का सामना करना पड़ा था.
मायावती की पार्टी बीएसपी ने फ़िल्मी दुनिया से जुड़े अमित श्रीवास्तव पर दांव लगाया है. यूपी के चर्चित रिटायर्ड आईएएस अफसर और इलाहाबाद में कमिश्नर रहते हुए सुर्खियां बटोरने वाले बादल चटर्जी निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर चुनावी संग्राम में हैं. उन्हें काफी लोगों का समर्थन तो मिल रहा है, लेकिन किसी पार्टी का समर्थन न होने की वजह से वह मुख्य मुकाबले से बाहर हैं. उनको मिलने वाले वोट दूसरे उम्मीदवारों का खेल ज़रूर बिगाड़ सकते हैं.
सीट का सियासी इतिहास: 1980 में यह सीट कांग्रेस के अशोक बाजपेई ने जीती थी. अशोक बाजपेई पूर्व केंद्रीय मंत्री और गवर्नर रही राजेन्द्र कुमारी बाजपेई के बेटे हैं और बीजेपी से चुनाव लड़ रहे हर्ष के पिता हैं. 1984 और 1989 के चुनाव में अनुग्रह नारायण सिंह ने जीत दर्ज की थी. 1991, 1993, 1996 और 2002 में इस सीट से बीजेपी के डा० नरेंद्र सिंह गौर ने लगातार चार बार जीत दर्ज की थी. डा० गौर तीन बार यूपी में कैबिनेट मंत्री भी रहे. साल 2007 और 2012 में इस सीट पर कांग्रेस के अनुग्रह नारायण सिंह ने जीत दर्ज की.
अनुग्रह नारायण सिंह, कांग्रेस उम्मीदवार: इलाहाबाद युनिवर्सिटी छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष अनुग्रह नारायण सिंह कांग्रेस के टिकट पर लगातार तीसरी बार मैदान में हैं. इस सीट से वह अब तक चार बार विधायक रह चुके हैं. वह न तो कभी कोई सिक्योरिटी गार्ड लेकर चलते हैं और न ही चार पहिया वाहन से. अपनी सादगी के चलते वह समाज के हर वर्ग में खासे लोकप्रिय हैं. अनुग्रह नारायण दिखावे की सियासत में कभी भरोसा नही करते. गरीब और दलित वोटरों में उनकी अच्छी पैठ है. इस चुनाव में सपा का साथ उन्हें फायदा पहुंचा सकता है, लेकिन इस सीट पर सपा और कांग्रेस दोनों का ही संगठन बेहद कमज़ोर है. ऐसे में उन्हें इसका नुकसान भी हो सकता है. इस बार के चुनाव में उन्हें एंटी इनकंबेंसी का भी थोड़ा बहुत नुकसान उठाना पड़ सकता है. अनुग्रह नारायण का दावा है कि पिछले दस सालों में किये गए कामों और साफ़ सुथरी छवि की बदौलत वह फिर से चुनाव जीतेंगे. हालांकि इसी सीट से वह चार बार चुनाव हार भी चुके हैं.
हर्ष बाजपेई, बीजेपी उम्मीदवार: हर्ष बाजपेई पूर्व केंद्रीय मंत्री और पांडिचेरी की उप राज्यपाल रहीं डा० राजेन्द्र कुमारी बाजपेई का पौत्र हैं. उनके पिता अशोक बाजपेई इसी सीट से विधायक रह चुके हैं, जबकि माँ डा० रंजना बाजपेई समाजवादी पार्टी की महिला सभा की राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं. लंदन से इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने वाले हर्ष बाजपेई पहले कांग्रेस में थे. 2007 और 2012 का विधानसभा चुनाव वह बीएसपी के टिकट पर लड़े. बीच में वह कुछ सालों तक सपा में भी रहे और अब बीजेपी के टिकट पर चुनाव मैदान में हैं.
हर्ष को यूपी बीजेपी के अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य के करीबियों में माना जाता है. दो चुनाव हारने के बावजूद क्षेत्र में पिछले दस सालों में सक्रियता से बने रहना उन्हें इस बार फायदा दिला सकता है. इस चुनाव में वह अपने कामो और परिवार के साथ ही पीएम मोदी के नाम की दुहाई देकर भी प्रचार कर रहे हैं. चुनाव में हिंदुत्व का नारा बुलंद करने का उन्हें फायदा तो हो रहा है, लेकिन बुद्धिजीवियों की इस सीट पर उन्हें इसका नुकसान भी उठाना पड़ सकता है.
अमित श्रीवास्तव, बीएसपी उम्मीदवार: फ़िल्मी दुनिया से ताल्लुक रखने वाले अमित श्रीवास्तव का यह पहला चुनाव है. उन्होंने कम बजट की कई फ़िल्में बनाई हैं और पिछले कुछ सालों से ज़्यादातर वक्त मुम्बई में ही रहते हैं. बाहरी और अनुभवहीन होने का उन्हें नुकसान हो सकता है. इस सीट पर न तो बीएसपी का संगठन बहुत मजबूत है और न ही यहाँ जातिगत आधार पर वोटों की लामबंदी होती है. कायस्थ वोटर यहां अच्छी तादात में हैं. अमित श्रीवास्तव दलितों और कायस्थ वोटों के साथ ही मुस्लिम वोटों में सेंधमारी कर मुकाबले को त्रिकोणीय बनाने में लगे हुए हैं. हालांकि सियासी संग्राम में वह अपनी जीत को लेकर बड़े - बड़े दावे कर रहे हैं.
वोटर और जातीय समीकरण: इलाहाबाद की बारह सीटों में सबसे ज़्यादा तकरीबन सवा चार लाख वोटर इसी शहर उत्तरी सीट पर हैं. नौकरी और पढ़ाई के लिए यूपी व आस पास के कई दूसरे राज्यों के लोगों के इलाहाबाद आकर इस सीट पर बसने की वजह से इसे मिनी इंडिया भी कहा जाता है. दूसरी सीटों के मुकाबले यहां सामान्य वर्ग के ज़्यादा लोग रहते हैं. इलाहाबाद की शहर उत्तरी सीट पर तकरीबन पचासी हजार ब्राह्मण, सत्तर हजार कायस्थ, पैंसठ हजार दलित, चालीस हजार वैश्य, तीस हजार मुस्लिम, बाइस हजार क्षत्रिय, सत्रह हजार यादव, चौदह हजार कुर्मी और तकरीबन इतने ही कुशवाहा वोटर हैं. इनके अलावा आठ हजार भूमिहार भी हैं. हालांकि इस सीट के वोटर जातीय आधार पर वोट नहीं करते और वह पार्टी व उम्मीदवार के चेहरे पर मतदान करते हैं.
प्रमुख मुद्दे व समस्याएं: विकास के मामले में यह क्षेत्र यह काफी तरक्की किया हुआ है. बुनियादी सुविधाओं की यहाँ कोई समस्या ही नहीं है. केंद्र और राज्य सरकार के कई बड़े दफ्तर के साथ ही कई युनिवर्सिटी व डीम्ड युनिवर्सिटी इस इलाके में ही आते हैं तो साथ ही दुनिया भर में मशहूर इलाहबाद का त्रिवेणी संगम भी यहीं हैं. किसी कारखाने और कुटीर उद्योगों के न होने से यहाँ रोजगार की समस्या आड़े आती है. बाढ़ में सबसे ज़्यादा नुकसान इसी इलाके को होता है. विकास की तेज रफ़्तार की वजह से यह कभी यहां चुनावी मुद्दा नहीं होता. यहाँ के लोग बाहरी उम्मीदवारों पर भी भरोसा नहीं करते.
यूपी में इसी सीट पर हैं सबसे ज़्यादा पढ़े-लिखे लोग
इस सीट पर जीत दर्ज करने के लिए यूपी बीजेपी के अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य को एड़ी चोटी का जोर लगाना पड़ रहा है. बुद्धिजीवियों का इलाका कही जाने वाली इस सीट से दो बातें ख़ास तौर पर जुडी हुई हैं. पहली यह कि समूचे यूपी में सबसे ज़्यादा पढ़े-लिखे लोग इसी सीट पर हैं. इसके चलते इसे बुद्धिजीवियों की सीट भी कहा जाता है. हालांकि एक कड़वी हकीकत यह भी है कि यहां के बुद्धिजीवी वोटर मतदान करने में दिलचस्पी नहीं दिखाते और चुनाव को छुट्टी का दिन मानते हैं. समूचे यूपी में सबसे कम फीसद मतदान भी इसी सीट पर होता है. चुनाव आयोग और प्रशासन यहां मतदान का प्रतिशत बढ़ाने के लिए कई कदम उठा रहा है.