हस्तिानापुर/मेरठ: गंगा के पश्चिम में स्थित महाभारत के कौरवों की इस प्रसिद्ध राजधानी का गौरव भले ही काफी हद तक खो चुका हो, लेकिन इसने वह खास निर्वाचन क्षेत्र होने की ख्याति अर्जित की है, जो इस बात का संकेत देता है कि उत्तर प्रदेश पर किसका शासन होगा.


विजेता उम्मीदवार की पार्टी को ही हासिल हुई उत्तर प्रदेश की सत्ता


आजादी के बाद कई सालों तक हस्तिनापुर की सीट और राज्य दोनों ही कांग्रेस के खाते में गए. लेकिन, बाद में इसने भारतीय क्रांति दल, जनता पार्टी, जनता दल, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के उम्मीदवारों को भी चुना. यहां के इतिहास में अधिकांश मौकों पर विजेता उम्मीदवार की पार्टी को ही उत्तर प्रदेश की सत्ता हासिल हुई, जिसने मेरठ जिले के हस्तिनापुर को पूर्वद्रष्टा निर्वाचन क्षेत्र होने का तमगा हासिल कराया.

हस्तिनापुर के स्थानीय निवासी इसी बात पर यह कहकर मुहर लगाते देखे जाते हैं कि 1996 में जब हस्तिनापुर ने एक निर्दलीय उम्मीदवार अतुल कुमार को चुना था, तब किसी भी पार्टी को पूर्ण बहुमत हासिल नहीं हुआ था, जिसके कारण कुछ महीनों के लिए राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करना पड़ा था. स्थानीय लोगों को कहना है कि इस बार राज्य की तरह ही हस्तिनापुर में भी त्रिकोणीय मुकाबला है और एसपी-कांग्रेस गठबंधन, भारतीय जनता पार्टी और बीएसपी के बीच कांटे की टक्कर है.

प्रभु दयाल वाल्मीकि ने बेहद कम अंतर से हासिल की थी जीत


सत्तारूढ़ एसपी ने यहां से निवर्तमान विधायक प्रभु दयाल वाल्मीकि को उतारा है, जो सत्ता विरोधी लहर का सामना कर रहे हैं. वाल्मीकि सबसे पहले 2002 में यहां से जीते थे और 2012 के चुनाव में उन्होंने पीस पार्टी के उम्मीदवार योगेश वर्मा से मात्र 6,641 वोटों के बेहद कम अंतर से जीत हासिल की थी. साल 2007 में बीएसपी के उम्मीदवार के तौर पर यहां से जीत हासिल करने वाले वर्मा उसके बाद से बीएसपी के साथ हैं और इस बार इस सीट से वह पार्टी के उम्मीदवार हैं.

बीजेपी ने युवा उम्मीदवार दिनेश खटिक को उतारा है, जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करिश्मे के बल पर जीत हासिल करने की आस लगाए हुए हैं. बीजेपी को 2012 विधानसभा चुनाव में इस निर्वाचन क्षेत्र में पांचवें स्थान से संतोष करना पड़ा था, लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में पार्टी इस निर्वाचन क्षेत्र से अधिकतम वोट हासिल करके अपनी स्थिति को काफी सुधारने में सफल रही थी.

हस्तिनापुर में करीब तीन लाख मतदाता


हस्तिनापुर मेरठ जिले की एकमात्र आरिक्षत सीट है और यहां उत्तर प्रदेश के सात चरणों वाले चुनाव के पहले चरण में 11 फरवरी को मतदान होना है. हस्तिनापुर में करीब तीन लाख मतदाता हैं, जिनमें से ज्यादातर मुस्लिम और गुज्जर हैं. इन दो प्रमुख समुदायों के अलावा यहां दलितों की भी बड़ी संख्या है.


पेशे से इंजीनियर कुमार प्रजापति ने बताया, "इस बार का चुनावी मुकाबला बेहद कड़ा है. कह नहीं सकते कि इस बार कौन सी पार्टी विजेता बनकर उभरेगी, लेकिन मुख्य मुकाबला बीएसपी, बीजेपी और एसपी के बीच है." हालांकि उन्होंने साथ ही कहा कि तीनों प्रमुख पार्टियों में बीएसपी के वर्मा सबसे आसानी से लोगों से मिलते-जुलते हैं.

व्यापार और रोजगार पर काफी असर


एक दवा की दुकान पर काम करने वाले दिनेश कुमार ने कहा, "हर पांच सालों में सरकार बदल दी जानी चाहिए. मैं बदलाव के लिए मतदान करूंगा." हालांकि उन्होंने साथ ही कहा कि वह मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के खिलाफ नहीं हैं. कुमार ने कहा, "उन्होंने विकास कार्य किए हैं, भले ही हस्तिनापुर में ज्यादा न किए हों." नोटबंदी के प्रभाव के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि इससे व्यापार और रोजगार पर काफी असर पड़ा है.

शहर के एक निवासी हसरत अली ने कहा कि अल्पसंख्यक समुदाय ने अभी तक इसका मन नहीं बनाया है कि किसे चुनें? उन्होंने कहा, "अभी तक वे तय नहीं कर पाए हैं कि बीएसपी को चुनें या एसपी को. अगर यही स्थिति रही तो इससे बीजेपी को फायदा मिल सकता है."

कांग्रेस ने 1974 में फिर से हासिल की हस्तिनापुर की सीट


हस्तिनापुर ने पहली बार 1969 में एक गैर-कांग्रेसी उम्मीदवार को चुना था. तब यहां से बीकेडी जीती थी और लखनऊ की सत्ता पर काबिज हुई थी. कांग्रेस ने 1974 में फिर से हस्तिनापुर की सीट हासिल की और सत्ता में भी लौटी थी.

1977 में जनता पार्टी की लहर के बीच कांग्रेस को इस सीट पर मुंह की खानी पड़ी थी और राज्य को राम नरेश यादव के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार मिली थी. वह बाद में कांग्रेस में शामिल हो गए थे. 1980 और 1985 में इस सीट पर कांग्रेस को जीत हासिल हुई थी और इस दौरान वी.पी. सिंह, श्रीपति मिश्रा, दो बार एन.डी. तिवारी और वीर बहादुर सिंह को संक्षिप्त कार्यकाल के लिए मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला था.

उस साल पहली बार राज्य के मुख्यमंत्री बने थे मुलायम सिंह यादव


साल 1989 में जनता दल को सीट हासिल हुई थी और उस साल मुलायम सिंह यादव पहली बार राज्य के मुख्यमंत्री बने थे. साल 1990 के दशक के अधिकांश सालों में उत्तर प्रदेश में राजनीतिक अस्थिरता का आलम रहा. इस दौरान राज्य ने मुख्यमंत्री के रूप में मुलायाम सिंह यादव का दूसरा कार्यकाल, बीजेपी के कई मुख्यमंत्रियों (कल्याण सिंह, राम प्रकाश गुप्ता, राजनाथ सिंह) और मायावती का उदय भी देखा, जो दो बार (1995 और 1997 में) मुख्यमंत्री बनीं.

इसी अवधि में हस्तिनापुर ने अपने एकमात्र निर्दलीय उम्मीदवार को चुना था. हाल के सालों में जब राज्य की राजनीति काफी हद तक स्थिर हो चुकी है, 2002 के विधानसभा चुनाव में एसपी के वाल्मीकि ने हस्तिनापुर सीट से जीत हासिल की. हालांकि, उत्तर प्रदेश में एक साल से भी कुछ अधिक समय तक बीएसपी-बीजेपी की सरकार रही थी (जब मायावती तीसरी बार राज्य की मुख्यमंत्री बनीं), लेकिन आखिरकार मुलायम सिंह के नेतृत्व में एसपी फिर से सत्ता में लौट आई.

इस बार लखनऊ की ओर हस्तिनापुर से किसकी हवा बहेगी?


बीएसपी ने 2007 में यह सीट जीती और मायावती चौथी बार मुख्यमंत्री बनीं. 2012 में हस्तिनापुर ने फिर से वाल्मीकी को चुना और अखिलेख यादव के नेतृत्व में राज्य में एसपी की सरकार बनी. देखना दिलचस्प रहेगा कि इस बार लखनऊ की ओर हस्तिनापुर से किसकी हवा बहेगी? हस्तिनापुर ने अपने पत्ते पूरी तरह छिपा कर रखे हैं और लखनऊ के लिए सिंहासन का दंगल बेहद मजेदार बना हुआ है.