लखनऊ: रंगों के त्यौहार से ऐन पहले उत्तर प्रदेश में शनिवार को चुनाव नतीजों का पिटारा खुलने के साथ ही यह तय हो जाएगा कि इस बार कौन होली मनाएगा और किसकी उम्मीदें बदरंग हो जाएंगी.


इस बार चुनाव में लगभग सभी दलों का काफी कुछ दांव पर है और यह चुनाव कइयों का भविष्य तय कर सकता है. नोटबंदी जैसे साहसिक फैसले के बाद हो रहा यह चुनाव प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की विश्वसनीयता तो तय करेगा ही, सपा के नये अध्यक्ष मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की साख और भविष्य को भी काफी हद तक तय कर देगा. साथ ही लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद प्रदेश की सत्ता में वापसी के प्रति आश्वस्त बसपा का भविष्य भी काफी हद तक इन चुनाव के परिणामों पर टिका है.


बीजेपी और एसपी- कांग्रेस गठबंधन में देखने को मिल सकती है कांटे की टक्कर
हालांकि विभिन्न ‘एग्जिट पोल’ में बीजेपी और सपा-कांग्रेस गठबंधन के बीच कांटे की टक्कर के दावे किये गये हैं, मगर दोनों ही बहुमत से दूर हैं. इसके अलावा बसपा को तीसरे नम्बर पर बताया जा रहा है. बहरहाल, पिछले कई चुनावों के अनुभव ज्यादातर एग्जिट पोल के पक्ष में गवाही नहीं देते. अब सारी निगाहें 11 मार्च को मिलने वाले जनादेश पर टिक गयी हैं.


इस साल जनवरी में सपा में बगावत के बाद अपने पिता मुलायम सिंह यादव के स्थान पर पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने अखिलेश ने इन चुनाव में पहली बार बिना किसी दबाव के अपने हिसाब से पार्टी के रणनीतिक मामलों तथा टिकट वितरण के बारे में फैसले लिये, जिनकी कई मौकों पर सख्त मुखालफत भी की गयी, मगर वह अपने निर्णय पर अडिग रहे. ऐसे में इस विधानसभा चुनाव के परिणाम अखिलेश की राजनीतिक समझ, कौशल, दक्षता, निर्णय लेने और नेतृत्व करने की क्षमता के पैमानों को काफी हद तक तय कर देंगे.


सभी राजनीतिक पार्टियों की साख दांव पर
अखिलेश ने प्रदेश में चुनाव पूर्व गठबंधनों के बुरे हश्र के इतिहास और अपने पिता सपा संस्थापक मुलायम सिंह यादव के विरोध के बावजूद एक नयी उम्मीद के साथ कांग्रेस से गठबंधन करके चुनाव लड़ा. उनका यह फैसला जहां उन्हें प्रदेश के साथ-साथ राष्ट्रीय स्तर पर एक नये क्षत्रप के रूप में स्थापित कर सकता है, वहीं विपरीत परिणाम उन्हें विकट हालात में भी पहुंचा सकता है.


पीएम मोदी के लिए भी महत्वपूर्ण हैं ये चुनावी नतीजे
वर्ष 2014 में प्रचंड बहुमत के साथ केन्द्र में सरकार बनाने वाली बीजेपी को उसके बाद दिल्ली और बिहार विधानसभा चुनाव में करारा झटका लगा था. इसे मोदी की साख में गिरावट के तौर पर भी देखा गया था. ऐसे में उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणाम पार्टी के साथ-साथ मोदी के लिये कितने महत्वपूर्ण होंगे, इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है. हालांकि प्रधानमंत्री मोदी समेत बीजेपी के तमाम नेता तो चुनाव में अपनी पार्टी को स्पष्ट बहुमत का दावा कर रहे हैं, और कई बार तो रौ में बहकर वे वोटों की गिनती के बाद का घटनाक्रम भी बता रहे हैं, लेकिन खामोश मतदाताओं के आदेश को जानने के लिये 11 मार्च को जब वोटों की गिनती शुरू होगी, तब क्या होगा, इसका अंदाजा अभी लगाना बहुत मुश्किल है.


बीएसपी के लिये यह चुनाव उसके मुस्तकबिल की सूरत को तय कर सकता है
वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में एक भी सीट ना जीत पाने वाली मुख्य विपक्षी पार्टी बसपा के लिये यह चुनाव उसके मुस्तकबिल की सूरत को तय कर सकता है. बसपा मुखिया मायावती चार बार प्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं और पार्टी के चुनाव प्रचार की जिम्मेदारी मुख्यत उन्हीं के कंधों पर रही. मायावती बसपा की एकमात्र शीषर्स्थ नेता हैं, लिहाजा चुनाव में पार्टी की हार-जीत का सीधा असर उन पर ही पड़ेगा.


प्रदेश की जनता ने कभी किसी पार्टी या गठबंधन को लगातार दूसरी बार सरकार बनाने का मौका नहीं दिया है. पिछले दो विधानसभा चुनावों में प्रदेश में द्विदलीय व्यवस्था का सूत्रपात होता देखा गया है और कांग्रेस और बीजेपी जैसी राष्ट्रीय पार्टियों को पछाड़कर सपा और बसपा ही बदल-बदलकर सत्ता में रही हैं. बसपा को यकीन है कि यह सिलसिला जारी रहेगा और इस बार सत्ता उसके हाथ में आयेगी.


राष्ट्रीय लोकदल अपनी जमीन फिर से हासिल कर पाएगी ?
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दबदबा रखने वाला दल माने जाने वाले राष्ट्रीय लोकदल के लिये इस विधानसभा चुनाव को सूबे में ना सिर्फ अपनी जमीन फिर से हासिल करने, बल्कि पूरी मजबूती के साथ वापसी करने के मौके के तौर पर देखा जा रहा है. राष्ट्रीय लोकदल को वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में करारा झटका सहन करना पड़ा था और उसके मुखिया अजित सिंह और उनके बेटे पार्टी महासचिव जयन्त चौधरी समेत तमाम प्रत्याशी चुनाव हार गये थे. इस बार विधानसभा चुनाव राष्ट्रीय लोकदल को नयी उम्मीद भी दे सकते हैं और गर्दिश के अधिक गहरे अंधेरों में भी धकेल सकते हैं.


ज्यादातर चरणों के प्रचार केन्द्र में रहा विकास
पिछले कई विधानसभा चुनावों के बरक्श इस बार उत्तर प्रदेश में कोई लहर नजर नहीं आयी. ना तो सत्ता विरोधी लहर और ना ही व्यक्तिवादी बयार. वैसे तो इस बार चुनाव में गधे और कबूतर से लेकर कब्रिस्तान और श्मशान तक की बातें हुईं लेकिन पूर्वाचल को छोड़ दें तो ज्यादातर चरणों के प्रचार के केन्द्र में विकास ही रहा.


प्रदेश के चुनावी इतिहास में पहली बार सात चरणों में कुल औसतन करीब 61 प्रतिशत मतदान हुआ है. वर्ष 2012 में हुए पिछले विधानसभा चुनाव में 59 फीसद लोगों ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया था, जो पिछला सर्वाधिक था. माना जा रहा है कि यह बढ़ा हुआ वोट युवाओं का है और सभी राजनीतिक दल इस वोट पर अपना दावा जता रहे हैं.


बहरहाल, 11 मार्च को मतगणना शुरू होने के बाद दोपहर तक यह साफ हो जाएगा कि इस दफा असल होली कौन मनाएगा और किसकी होली फीकी होगी.