डेंगू-मलेरिया जैसी बीमारियों से सनातन धर्म की तुलना कर तमिलनाडु मुख्यमंत्री के बेटे उदयनिधि ने इंडिया गठबंधन की मुश्किलें बढ़ा दी हैं. उदयनिधि के बयान से कांग्रेस और टीएमसी खुद को अलग कर लिया है. हालांकि, उदयनिधि अपने बयान से पीछे नहीं हटने की बात कही है.
डीएमके के नेता पहले भी हिंदू और हिंदी को लेकर विवादित बयान देते रहे हैं. उदयनिधि के दादा एम करुणानिधि हिंदी विरोधी आंदोलन से ही नेता बने थे. करुणानिधि बाद में डीएमके के अध्यक्ष और मुख्यमंत्री भी बने.
करुणानिधि की राजनीति विरासत अभी एमके स्टालिन संभाल रहे हैं. जानकारों का कहना है कि तमिलनाडु में बीजेपी की सक्रियता के बाद से डीएमके लगातार हिंदू और हिंदी पर हमलावर हैं. पार्टी की रणनीति द्रविड़ आंदोलन के पुराने मुद्दों को फिर से उठाने की है.
उदयनिधि नए सिरे से द्रविड़ आंदोलन के आइकॉन बनने की कोशिशों में जुटे हैं. स्टालिन के बाद उदयनिधि को ही डीएमके की विरासत मिलने वाली है. तमिलनाडु में द्रविड़ की लड़ाई वर्षों पुरानी है. ऐसे में इस सियासी लड़ाई के छिड़ने से किसे फायदा और किसे नुकसान होगा, इसे विस्तार से जानते हैं...
डीएमके के 2 नेताओं के 2 विवादित बयान...
उदयनिधि, तमिलनाडु सरकार में मंत्री- सनातन धर्म मच्छर, डेंगू, फीवर, मलेरिया और कोरोना की तरह है. इसका केवल विरोध नहीं किया जा सकता, बल्कि उन्हें खत्म करना जरूरी होता है.
ए राजा, पूर्व केंद्रीय मंत्री व सांसद- आप जब तक हिंदू हैं, तब तक शूद्र हैं. जब तक शूद्र हैं तब तक वेश्या की संतान हैं. तय आपको करना है कि आप में से कितने वेश्या की संतान बने रहना चाहते हैं?
द्रविड़ सियासत के आइकॉन क्यों बनना चाहते हैं उदयनिधि?
1. परिवार और पार्टी में विरासत की जंग- करुणानिधि ने अंतिम वक्त में अपने उत्तराधिकारी का ऐलान किया था, जो डीएमके में टूट की वजह बनी. आज भी एमके स्टालिन और उनके बड़े भाई एमके अलागिरी में सियासी दुश्मनी बरकरार है.
उदयनिधि राजनीति में नए जरूर हैं, लेकिन पुरानी गलती नहीं दोहराना चाहते हैं. स्टालिन की विरासत पर अपनी जगह सुरक्षित रखने की कोशिशों में लगातार जुटे हैं. इसी साल के शुरुआत में उदयनिधि ने अपने चाचा एमके अलागिरी से मुलाकात की थी.
वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक आरके राधाकृष्णन द प्रिंट से कहते हैं- उदयनिधि एक बेहद चतुर संचालक हैं, जो पार्टी और परिवार के भीतर अपनी स्थिति सुरक्षित करने की कोशिश कर रहे हैं. वो स्वभाविक दावेदार हैं, लेकिन उसे दिखाना नहीं चाहते हैं.
उदयनिधि की कोशिश कार्यकर्ताओं में भी पैठ बनाकर कुर्सी पाने की है, जिससे संगठन में बगावत की गुंजाइश ही न बचे. इसलिए उदयनिधि पेरियार और करुणानिधि की तरह द्रविड़ आंदोलन के मुद्दों पर मुखर हैं.
2. तमिलनाडु में द्रविड़ पॉलिटिक्स का दबदबा- पिछले 56 साल से तमिलनाडु की सत्ता पर द्रविड़ पार्टियों का कब्जा है. इनमें 31 साल जयललिता की पार्टी एआईएडीमके का और 26 साल करुणानिधि की पार्टी डीएमके का शासन रहा.
तमिलनाडु विधानसभा की 234 में से 170 सीटों पर द्रविड़ वोटर्स ही जीत-हार तय करते हैं. तमिलनाडु में लोकसभा की 39 सीट हैं, जिसमें से 30 पर द्रविड़ ही सियासी गुणा-गणित फिट करते हैं. इसी सीट के सहारे द्रविड़ पार्टियां केंद्र की सत्ता में भी दखल रखती है.
1998 में जयललिता के समर्थन वापस ले लेने की वजह से अटल बिहारी वाजपेई की सरकार गिर गई, जबकि डीएमके को सत्ता में साथ रखने के लिए मनमोहन सिंह ने दूरसंचार जैसा महत्वपूर्ण महकमा दे दिया था.
3. BJP के सेंगोल दांव से छटपटाहट- जानकारों का कहना है कि बीजेपी के सेंगोल दांव से डीएमके बैकफुट पर थी, जिसके बाद पार्टी ने द्रविड़नाडु मुद्दे को तुल देना शुरू किया है. तमिल परंपरा में सेंगोल राजा को याद दिलाता है कि उसके पास न्यायपूर्ण और निष्पक्ष रूप से शासन करने के लिए एक डिक्री है.
सेंगोल तमिलनाडु के चोल राजवंश से जुड़ा हुआ है. स्थानीय मान्यताओं में चोल शासन को सवर्ण युग की संज्ञा दी गई है.
हाल ही में इसे नए संसद भवन में स्थापित किया गया है. सेंगोल की स्थापना के बाद अमित शाह ने तमिलनाडु के लोगों से लोकसभा की 25 सीट जिताने की अपील की थी. वर्तमान में बीजेपी गठबंधन के पास तमिलनाडु की सिर्फ 1 सीट है.
द्रविड़ आंदोलन का इतिहास, 4 प्वॉइंट्स...
1. आजादी से पहले 1916 में पी त्यागराज चेट्टी और टीएम नायर ने जस्टिस पार्टी का गठन किया. जस्टिस पार्टी की मुख्य मांग द्रविड़ों को हिस्सेदारी देने की थी. 1930 के आसपास इस संगठन की कमान ईवी रामास्वामी उर्फ पेरियार के पास आ गई.
2. 1944 में पेरियार ने द्रविड़ कड़गम नामक संगठन बनाकर द्रविड़नाडु की मांग की. आजादी की लड़ाई तेज होने की वजह से उनके इस मांग को अनसुना कर दिया गया. 1949 में द्रविड़ कड़गम में बगावत हो गई. उस वक्त पेरियार राजनीति में निष्क्रिय थे.
3. 1949 में अन्नादुरई की अध्यक्षता में द्रविड़ मुनेंद्र कड़गम की स्थापना हुई. 1955 में देश के कई हिस्सों में हिंदी विरोधी आंदोलन शुरू हुआ. इसकी आंच में मद्रास भी झुलसा. डीएमके इस आंदोलन का अगुवा था.
4. अलग तमिलनाडु बनने के बाद डीएमके को इसका फायदा मिला. 1967 में पहली बार पार्टी सरकार बनाने में सफल रही. अन्नादुरई के निधन के बाद एम करुणानिधि को डीएमके की कमान मिली.
उदयनिधि के बयान ने कैसे बढ़ाई INDIA की टेंशन?
उदयनिधि के बयान के बाद बीजेपी हिंदुत्व के मुद्दे को हवा देने में जुट गई है. पार्टी के बड़े नेता सीधे इंडिया गठबंधन के दलों पर निशाना साध रही है. कांग्रेस और टीएमसी ने उदयनिधि के बयान से खुद को अलग कर डैमेज कंट्रोल की कोशिश की है.
कांग्रेस अब से कुछ महीने बाद मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में बीजेपी से सीधी लड़ाई लड़ने जा रही है. इन तीनों राज्यों में हिंदू वोटरों का दबदबा है. 2011 के जनगणना के मुताबिक मध्य प्रदेश में 90.8%, राजस्थान में 88.49%, और छत्तीसगढ़ में 93.25% हिंदू आबादी है.
पहली बार मध्य प्रदेश में ही जनसंघ सरकार बनाने में कामयाब हुई थी. अभी राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार है, जबकि मध्य प्रदेश में पार्टी दूसरे नंबर पर है.
उदयनिधि के बयान को बीजेपी अगर भुनाने में कामयाब हो जाती है, तो कांग्रेस को इन तीनों राज्यों में नुकसान हो सकता है.
इतना ही नहीं, उदयनिधि के बयान पर इंडिया गठबंधन ने अब तक कोई भी दंडात्मक निर्णय नहीं लिया है. ऐसे में माना जा रहा है कि आने वाले वक्त में अन्य पार्टियों के नेता अपने-अपने सुविधानुसार बयान दे सकते हैं.
हाल ही में जेडीयू विधायक गोपाल मंडल ने राहुल गांधी को योग्य दुल्हा बताने पर लालू यादव के खिलाफ विवादित बयान भी दिया था.