भारत के संविधान में न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका को लोकतंत्र के तीन स्तंभ कहे गए हैं. बाद में पत्रकारिता को चौथा खंबा कहा जाने लगा. हालांकि संविधान में इसका कहीं जिक्र नहीं किया गया है. 


भारत में संविधान लागू होने के कुछ ही सालों के बाद न्यायपालिका और विधायिका के बीच अधिकारों को लेकर बहस शुरू हो गई. संविधान में इस बात का कहीं कोई जिक्र नहीं है कि किसके पास ज्यादा अधिकार है. दरअसल दोनों के बीच संविधान निर्माताओं ने बिना कुछ लिखे ही एक लक्ष्मण रेखा खींची है जिसका पालन एक दूसरे का सम्मान करते हुए करना है. 


लेकिन ये लकीर पहले ही बहुत महीन थी और जिस तरह से न्यायपालिका और विधायिका के बीच बीते कुछ सालों में कई मुद्दों पर मतभेद देखने को मिले हैं उससे लग रहा है ये लकीर अब धूमिल होने लगी है और दोनों पक्षों की अब ये नहीं दिखाई दे रही है. 


पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी संसद में अपने एक भाषण के दौरान 'ज्यूडिशियल एक्टिविज्म' शब्द का इस्तेमाल करते हुए कहा, 'कहा जा रहा है कि सुप्रीम कोर्ट हमारे (संसद) के काम में बार-बार हस्तक्षेप कर रहा है.' वाजपेयी ने इस भाषण में हालांकि सुप्रीम कोर्ट का पक्ष लेते हुए कहा कि अगर कार्यपालिका और विधायिका ठीक से काम नहीं करेगी तो सुप्रीम कोर्ट को तो आगे आना ही पड़ेगा.


हाल ही में जजों की नियुक्ति को लेकर कोलेजियम सिस्टम पर सुप्रीम कोर्ट और केंद्र सरकार के बीच भी गहरे मतभेद उभर कर सामने आए हैं जिसको लेकर केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजीजू ने प्रधान न्यायाधीश चंद्रचूड़ सिंह को चिट्ठी लिखकर मांग की है कि जजों की नियुक्ति में सरकार के प्रतिनिधियों को भी शामिल किया जाए. किरेन रिजीजू ने इससे पहले कोलेजियम सिस्टम की पारदर्शिता पर सवाल उठाए थे. 


भारत में साल 1993 से सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति के लिए कोलेजियम सिस्टम लागू है. इसमें सुप्रीमकोर्ट के प्रधान न्यायाधीश के साथ चार वरिष्ठ न्यायाधीश होते हैं. ये कोलेजियम जजों की नियुक्ति और ट्रांसफर की सिफारिश केंद्र सरकार से करता है. वहीं हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति के लिए हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और दो वरिष्ठ जज शामिल होते हैं.


कोलेजियम सिस्टम के तहत केंद्र सरकार सुझाए गए नामों पर सिर्फ आपत्ति जता सकती है, उनके बारे में खुफिया जानकारी इकट्ठा कर सकती है लेकिन किसी की नियुक्ति पर रोक नहीं  लगा सकती है. लेकिन अगर कोलेजियम ने किसी नाम पर मुहर लगा दी है को कानून मंत्रालय की सिफारिश पर राष्ट्रपति मंजूरी दे देते हैं. विवाद की जड़ यहीं पर है. 


साल 2014 में जजों की नियुक्ति को लेकर संविधान में 99वें संशोधन करके केंद्र सरकार राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग बनाया था. इस आयोग के जरिए जजों की नियुक्ति में सरकार का भी दखल बढ़ जाता. इसके तहत जजों की नियुक्ति में सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता में दो वरिष्ठ जज, केंद्रीय कानून मंत्री और दो लोग सिविल सोसायिटी के शामिल होते. जिनमें एक की नियुक्ति प्रधान न्यायाधीश, प्रधानमंत्री और लोकसभा में विपक्ष के नेता की सलाह से होती तो दूसरा सदस्य एससी/एसटी/ओबीसी/अल्पसंख्यक समुदाय से या महिला को शामिल किया जाता. लेकिन साल 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने इसकी समीक्षा की और राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति को खारिज कर दिया.


आम तौर माना ये जाता है कि लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में संसद सर्वोच्च होती है. लेकिन भारतीय संविधान में सुप्रीम कोर्ट को इस बात का भी अधिकार दिया है कि संसद में बने किसी भी कानून की वह समीक्षा कर सकता है और संविधान के मूलभूत सिद्धांत से मेल न खाने पर उस कानून को रद्द कर सकती है. 


भारतीय संविधान में शक्ति के बंटवारे, अवरोध और संतुलन के इस महीन सिद्धांत को समझने के लिए हमें पहले कार्यपालिका, विधायिका, और न्यायपालिका के पूरे सिस्टम को समझना होगा.


क्या होती है कार्यपालिका
सरल शब्दों में समझें तो कार्यपालिका का मतलब व्यक्तियों के उस समूह से है जो कायदे-कानूनों को रोजाना लागू करते हैं. सरकार के रोजाना मामलों में भी एक संस्था हमेशा फैसले लेती है और दूसरी संस्था उसे लागू करती है जिसे कार्यपालिका कहा जाता है.  कार्यपालिका सरकार का वह अंग है जो विधायिका के फैसलों को लागू करती है. कई बार कार्यपालिका भी नीतियां बनाने में हिस्सा लेती है.


कार्यपालिका की व्यवस्था भी कई देशों में अलग-अलग तरीके से काम करती है. जैसे कहीं राष्ट्रपति सबसे ज्यादा शक्तिशाली होता है तो कहीं चांसलर होते हैं. कार्यपालिका में राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और मंत्रीमंडल के अलावा पूरी अफसरशाही भी शामिल होती है. 


सरकार के मुखिया और मंत्रियों को राजनीतिक कार्यपालिका कहते हैं और वहीं प्रशासनिक अधिकारियों को स्थाई कार्यपालिका कहा जाता है.


भारत में संसदीय कार्यपालिका है. यहां पर राष्ट्रपति औपचारिक प्रधान है. प्रधानमंत्री और मंत्रिमंडल के पास ही सारी ताकत होती है. राज्यों में वैसे ही राज्यपाल, मुख्यमंत्री और मंत्रिमंडल होता है.



स्थाई कार्यपालिका यानी अफसरशाही की जिम्मेदारी मंत्रिमंडल के लिए गए फैसलों को लागू करना होता है. दरअसल कार्यपालिका में प्रधानमंत्री, मंत्रिमंडल और अधिकारियों या प्रशासनिक मशीनरी का एक व्यापक संगठन शामिल होता है. इस ढांचे को नागरिक सेवा कहा जाता है.


अधिकारियों से अपेक्षा की जाती है कि वो राजनीतिक रूप से हमेशा तटस्थ रहेंगे यानी किसी भी नीति पर विचार करते समय अधिकारी राजनीतिक विचारधारा का समर्थन नहीं करेंगे.



क्या होती है विधायिका
विधायिका का मतलब यहां संसद या विधानसभाओं है. जिसका काम सिर्फ कानून बनाना नहीं है. उनके कई कामों में एक जिम्मेदारी है कानून बनाना. भारत में द्विसदनात्मक व्यवस्था है मतलब यहां संसद के दो सदन हैं. जिसमें राज्यसभा और लोकसभा शामिल है. इसी तरह राज्यों में विधानसभा और विधान परिषद होती हैं. भारत के अभी 5 राज्यों में द्विसदनात्मक व्यवस्था लागू है.


राज्यसभा 
राज्यसभा राज्यों का प्रतिनिधित्व करती है. किसी भी राज्य के लोग विधानसभा के सदस्यों को चुनते हैं और ये सदस्य राज्यसभा के सदस्यों को चुनते हैं. राज्यसभा के सदस्यों का कार्यकाल 6 साल होता है. दरअसल राज्यसभा में राज्यों के प्रतिनिधित्व के लिए दो सिद्धांतों को अपनाया जा सकता था. पहला सभी राज्यों को समान प्रतिनिधित्व दिया जाए यानी सभी राज्यों के लिए संख्या तय कर दी जाए. दूसरा तरीका राज्यों की जनसंख्या के आधार पर सीटें तय कर दी जाएं. भारत  की राज्यसभा में दूसरे सिद्धांत का पालन किया गया है.


लोकसभा 
लोकसभा के प्रतिनिधियों को जनता सीधे चुनती है. इसी तरह विधानसभा के लिए चुनाव होता है. इस चुनाव के लिए पूरे देश निर्वाचन क्षेत्रों में बांट दिया जाता है. विधानसभा के लिए यही सिद्धांत राज्यों में अपनाया जाता है. चुनाव में मतदान के लिए उम्र 18 साल से ज्यादा होनी चाहिए. लोकसभा और विधानसभा के सदस्यों को 5 साल के लिए चुना जाता है. भारत में इस समय 543 लोकसभा क्षेत्र हैं.


संसद का काम
कानून के बनाने के अलावा संसद के पास कई दूसरे अहम काम हैं. जिसमें पहला है विधाई कामकाम. दरअसल संसद का काम मुख्य तौर पर बनाए तैयार किए गए बिलों को मंजूरी देना होता है जिसके बाद वो बिल कानून का रूप ले लेते हैं. लेकिन इससे पहले इन बिलों को तैयार करने की जिम्मेदारी संबंधित मंत्रालय की होती है. बिल या विधेयक का उद्देश्य, उसको संसद में पेश करने का समय मंत्रिमंडल तय करता है. कोई भी महत्वपूर्ण विधेयक बिना मंत्रिमंडल की मंजूरी के संसद में पेश नहीं किया जा सकता है.


कार्यपालिका पर नियंत्रण और उससे काम लेना: विधायिका का काम कार्यपालिका को उसके अधिकार क्षेत्र तक सीमित रखना है और जिस जनता ने चुना है उसके प्रति जिम्मेदार बनाए रखना भी विधायिका करती है.


वित्तीय कार्य: सरकार चलाने के लिए पैसे की जरूरत पड़ती है. ये पैसा टैक्स के जरिए आता है. विधायिका इन टैक्स पर नियंत्रण और सरकार के खर्चे पर भी नियंत्रण करती है. भारत सरकार को अगर कोई नया टैक्स सिस्टम लागू करना है तो उसे संसद की मंजूरी लेनी पड़ती है. सरकार को अपने बजट यानी खर्च और राजस्व का ब्यौरा संसद को बताना पड़ता है.


प्रतिनिधित्व: संसद के जरिए ये सुनिश्चित किया जाता है कि देश के तमाम क्षेत्रीय, सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक समूहों के विचारों को प्रतिनिधित्व मिले.


बहस का मंच: देश की सबसे बड़ी पंचायत संसद है. जहां पर देश से संबंधित किसी भी मुद्दे पर बहस हो सकती है. संसद के सदस्यों को किसी भी मुद्दे पर बोलने की आजादी है. विचार-विमर्श हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था की आत्मा है.


संवैधानिक कार्य: संसद के पास संविधान में संशोधन की शक्तियां हैं. लेकिन हर संशोधन को लोकसभा के साथ ही राज्यसभा की भी मंजूरी मिलना जरूरी है.


निर्वाचन: संसद चुनाव भी कराती है. इसमें राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति का चुनाव शामिल है.


न्यायिक कामकाज: भारत के राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव के साथ ही संसद को इन दोनों ही पदों पर बैठे व्यक्तियों को हटाने का भी अधिकार है. इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों को भी हटाने की शक्ति है. लेकिन नियुक्ति का अधिकार नहीं है.


भारत में न्यायपालिका की आजादी
सरल शब्दों में कहें तो न्यायपालिका की आजादी का मतलब सरकार के दूसरे अंग विधायिका और कार्यपालिका किसी भी तरह से न्यायपालिका के काम में बाधा न डालें.
विधायिका या कार्यपालिका अदालतों के फैसलों में हस्तक्षेप न करें.
न्यायाधीश बिना किसी भय या दबाव में काम करें.


लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि न्यायपालिका किसी के प्रति जिम्मेदार नहीं है. लोकतंत्र का ये अंग देश के संविधान, लोकतांत्रिक परंपराओं और जनता के प्रति जवाबदेह है.


न्यायपालिका की संरचना
सुप्रीमकोर्ट: इसके फैसले सभी अदालतों को मानने होते हैं. यह हाईकोर्ट के जजों का तबादला कर सकता है. किसी भी अदालत का मुकदमा अपने पास मंगवा सकता है. किसी भी हाईकोर्ट में चल रहे मुकदमे को दूसरे हाईकोर्ट में ट्रांसफर कर सकता है.


हाईकोर्ट: निचली अदालतों के फैसलों के खिलाफ की गई अपील पर सुनवाई कर सकता है. मौलिक अधिकारों की बहाली के लिए रिट जारी कर सकता है. राज्य के क्षेत्राधिकार में आने वाले मुकदमों का निपटारा कर सकता है. अपने क्षेत्राधिकार में आने वाली अदालतों का पर्यवेक्षण और नियंत्रण करता है.


जिला अदालत: जिले में दायर मुकदमों की सुनवाई. निचली अदालतों के फैसले पर की गई अपील पर सुनवाई. गंभीर किस्म के क्रिमिनल केस पर फैसला देती है.


अधीनस्थ अदालत: फौजदारी और दीवानी के मुकदमों पर विचार.



सुप्रीम कोर्ट के पास क्या अधिकार हैं?


मौलिक: केंद्र और राज्यों, विभिन्न राज्यों के आपसी विवादों को निपटाना है. इसमें सीधे सुनवाई का अधिकार है मतलब ऐसे मामलों में निचली अदालत में पहले सुनवाई हो ये जरूरी नहीं है. मौलिक अधिकार इसलिए कहा गया है कि क्योंकि केंद्र-राज्य या राज्यों के बीच विवाद को सुप्रीम कोर्ट में ही सुलझाया जा सकता है.




अपीली: दीवानी, फौजदारी और संवैधानिक सवालों से जुड़े अधीनस्थ न्यायालयों के मुकदमों की अपील पर सुनवाई.


सलाहकारी: जनहित के मामलों और कानून के मसलों पर राष्ट्रपति को सलाह देना.


रिट: किसी भी नागरिक के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए बंदी-प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, निषेध, आदेश, उत्प्रेषण-लेख और जांच का आदेश देने का अधिकार है.


सुप्रीम कोर्ट के पास है विशेषाधिकार
भारत में किसी भी अदालत की ओर से दिए गए फैसले पर स्पेशल लीव पिटीशन के तहत की गई अपील पर सुनवाई का अधिकार है.


न्यायपालिका, सरकार और संसद
इसमें कोई दो राय नहीं है कि न्यायपालिका ने संविधान को ठेंगा दिखाने वाली सोच पर अंकुश लगाए रखा है. यही वजह है राष्ट्रपति और राज्यपाल को मिलीं शक्तियों और इनके इस्तेमाल पर भी सुप्रीम कोर्ट समीक्षा कर सकता है. हवाला कांड से लेकर पेट्रोल पंपों के अवैध आवंटन तक में सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई जांच का आदेश दिया जिसके दायरे में कई नेता और नौकरशाह आ गए.


कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के बीच कोई साफ-साफ शक्ति के बंटवारे का जिक्र संविधान में कहीं भी नही है. संसद कानून बनाने और संविधान संशोधन कर सकती है. कार्यपालिका उसको लागू करने के लिए है तो न्यायपालिका विवादों को निपटाने और बनाए गए कानून संविधान के मुताबिक है या नहीं इसकी समीक्षा कर सकती है.


संविधान के लागू होने के तुरंत बाद ही संपत्ति के अधिकार पर रोक लगाने के लिए संसद को मिली शक्ति पर विवाद शुरू हो गया. संसद संपत्ति रखने के कुछ अधिकार पर रोक लगाना चाहती थी ताकि भूमि सुधारों को लागू किया जा सके. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि संसद मौलिक अधिकारों को छीन नहीं सकती है. उस समय सरकार ने मौलिक अधिकारों में भी संशोधन की कोशिश की. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि संशोधन के बाद भी सरकार मौलिक अधिकारों को कम नहीं कर सकती है.


उस समय संसद और न्यायपालिका के बीच कई अहम सवाल खड़े हो गए.



  • निजी संपत्ति के अधिकार का दायरा क्या है?

  • मौलिक अधिकारों को सीमित, प्रतिबंधित और खत्म करने का अधिकार संसद को कितना है?

  • संसद के पास संविधान में संशोधन की कितनी शक्ति है?

  • क्या संसद ऐसे भी नीति-निर्देशक कानून बना सकती है जो मौलिक अधिकारों को सीमित कर दे?



1967 से 1973 के बीच भूमि सुधारों के अलावा, नजरबंदी कानून, नौकरियों में आरक्षण, सार्वजनिक उद्देश्य के लिए निजी संपत्ति का अधिग्रहण और मुआवजे पर सरकार और न्यायपालिका में कई टकराव हुए. इसके बाद साल 1973 में सुप्रीम कोर्ट ने मुकदमे के फैसले से लकीर दी.  इसे केशवानंद भारती मुकदमा भी कहा जाता है.


इस केस के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संविधान का एक मूल ढांचा है. संसद उस मूल ढांचे से छेड़छाड़ नहीं कर सकती है. संविधान संशोधन के जरिए भी इस मूल ढांचे को नहीं बदला जा सकता है. इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कह दिया कि संपत्ति रखने का अधिकार मूल ढांचे का हिस्सा नहीं है इसलिए इस पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाया जा सकता है.


इसी फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने यह अधिकार अपने पास रखा कि कोई मुद्दा मूल ढांचे का हिस्सा है या नहीं यह निर्णय सिर्फ न्यायपालिका ही कर सकती है. यह संविधान की व्याख्या करने की शक्ति का सबसे बड़ा प्रमाण बन चुका है. साल 1979 में संपत्ति रखने के अधिकार मौलिक अधिकारों की सूची से हटा दिया गया.


कुछ मुद्दों पर विवाद अब भी जारी है?



  • क्या न्यायपालिका, विधायिका यानी संसद की कार्यवाही पर नियंत्रण और उसमें हस्तक्षेप कर सकती है?

  • सदन का वो सदस्य जिसे विशेषाधिकार मामले में दंडित किया गया है, क्या वो कोर्ट जा सकता है?

  • किसी भी सांसद या विधायक के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की गई है तो क्या वह न्यायपालिका की शरण में जा सकता है?


इसी तरह संविधान में यह भी व्यवस्था है कि न्यायाधीशों के आचरण पर संसद में चर्चा नहीं हो सकती है. लेकिन ऐसा कई बार हो चुका है जब संसद और विधानसभाओं में जजों पर उंगली उठाई गई.  इसी तरह न्यायपालिका ने भी कई बार विधायिका की आलोचना की है और विधाई संबंधी कामों के निर्देश दिए हैं.