जिसने भी कांग्रेस को नकारा, वो नीतीश कुमार के साथ; राहुल गांधी के लिए पीएम की कुर्सी दूर की कौड़ी?
तृणमूल और सपा समेत कई क्षेत्रीय पार्टियों का 200 सीटों पर बीजेपी से सीधा मुकाबला है. ये दल कांग्रेस के चेहरे के विरोध में है. मुकाबला रिजल्ट में बदलता है तो पीएम कुर्सी से कांग्रेस दूर हो जाएगी.
बीजेपी की नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ विपक्षी एका बनाने में जुटे नीतीश कुमार ने तृणमूल सुप्रीमो ममता बनर्जी और सपा प्रमुख अखिलेश यादव से मुलाकात की है. नीतीश से मिलने के बाद अखिलेश और ममता का रुख नरम हुआ है और कहा है कि वो बीजेपी को हराने के लिए हर कोशिश का समर्थन करते हैं.
ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस पश्चिम बंगाल में सबसे बड़ी पार्टी है और राज्य की सत्ता पर काबिज है. वहीं समाजवादी पार्टी यूपी की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है. बंगाल और यूपी में इन्हीं दोनों पार्टियों का बीजेपी से सीधा मुकाबला है. इन दोनों राज्यों में लोकसभा की 122 सीटें हैं.
ममता और अखिलेश से मुलाकात के बाद बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा जो भी दल साथ आना चाह रहा है, उनके साथ जल्द ही एक मीटिंग होगी. सभी दलों के साथ मिलकर चेहरा फाइनल कर लिया जाएगा. इस दौरान नीतीश ने कहा कि पीएम बनने की मेरी कोई इच्छा नहीं है.
ममता बनर्जी और अखिलेश यादव जिस तरह नीतीश के साथ आने को तैयार हुए हैं, उससे सियासी अटकलें भी लगनी शुरू हो गई है. ममता और अखिलेश हाल ही में कांग्रेस के साथ गठबंधन के प्रस्ताव को ठुकरा चुके हैं.
ऐसे में सवाल उठ रहा है कि कांग्रेस को ठुकराने वाले अखिलेश और ममता का नीतीश कुमार से किन मुद्दों पर सहमति बनी है? आखिर 2024 के चुनाव के लिए इसका क्या नतीजा निकलेगा?
सर्वदलीय बैठक दिल्ली नहीं, पटना में बुलाई जाए
नीतीश कुमार से मुलाकात में ममता बनर्जी ने कहा कि गठबंधन को लेकर हमेशा से विपक्षी दलों की मीटिंग दिल्ली में होती है और यह कांग्रेस की मीटिंग बन कर रह जाती है. इसलिए दिल्ली की बजाय इस बार पटना में सर्वदलीय बैठक बुलाया जाए.
मुख्यमंत्री सचिवालय में प्रेस कॉन्फ्रेंस करते हुए ममता बनर्जी ने कहा कि जय प्रकाश नारायण ने संपूर्ण क्रांति का बिगुल भी पटना से ही फूंका था. हम चाहते हैं कि सर्वदलीय बैठक पटना में ही बुलाया जाए.
कांग्रेस के लिए यह एक बड़ा झटका माना जा रहा है. क्योंकि 2003 के बाद से बीजेपी के खिलाफ सभी सर्वदलीय मीटिंग कांग्रेस अध्यक्ष के आवास पर ही हुई है. ममता बनर्जी और उनकी पार्टी के नेता भी कई बार इस मीटिंग में शामिल रहे हैं.
- इसका मतलब समझिए
दिल्ली में कांग्रेस अध्यक्ष के आवास को छोड़कर अगर कहीं और मीटिंग होती है, तो इसका साफ मतलब है कि नया मोर्चा जो बन रहा है, उसका नेतृत्व कांग्रेस के हाथों में नहीं रहने वाला है. नीतीश कुमार और कांग्रेस ने अभी इस पर कोई भी प्रतिक्रिया नहीं दी है.
कांग्रेस के चेहरे पर विपक्षी दलों का वीटो
ममता बनर्जी, अखिलेश यादव, के चंद्रशेखर राव समेत ऐसे कई विपक्षी नेता हैं, जिन्हें 2024 के चुनाव में कांग्रेस का चेहरा पसंद नहीं है. ममता और अखिलेश के बाद गठबंधन को लेकर केसीआर ने भी रुख नरम किया है.
केसीआर ने कहा है कि कांग्रेस का राष्ट्रीय नेतृत्व कमजोर है, इसलिए राहुल गांधी के चेहरे को आगे कर चुनाव नहीं लड़ा जा सकता है. ममता बनर्जी की पार्टी पहले ही कांग्रेस को नकार चुकी है. अखिलेश भी चेहरे पर वीटो लगा चुके हैं.
तृणमूल के राष्ट्रीय महासचिव अभिषेक बनर्जी ने एक इंटरव्यू में कहा था कि ममता बनर्जी को केंद्र और राज्य दोनों जगहों पर सरकार चलाने का अनुभव है, इसलिए उनसे बेहतर चेहरा गठबंधन में हो नहीं सकता है.
- इसका मतलब समझिए
विपक्ष के इस फैसले से मल्लिकार्जुन खरगे और राहुल गांधी की दावेदारी कमजोर होगी. नीतीश कुमार पहले ही कह चुके हैं कि चेहरा चुनाव के बाद फाइनल किया जाएगा. कई विपक्षी दल 1996 के फॉर्मूले का किस्सा सुना रहे हैं.
उस वक्त संयुक्त मोर्चा को कांग्रेस ने बाहर से समर्थन दिया था. इस दौरान एचडी देवगौड़ा और आई.के गुजराल प्रधानमंत्री बने थे. समझौते के तहत सपा, जनता पार्टी, वाम मोर्चा के नेताओं को सरकार में मंत्री बनाया गया था.
अगर यह फॉर्मूला 2024 में लागू होता है, तो कांग्रेस के बदले किसी क्षेत्रीय पार्टी का प्रधानमंत्री हो सकता है. हालांकि, सब कुछ चुनावी परिणाम पर ही निर्भर करेगा.
सीट बंटवारे का फॉर्मूला कौन करेगा तय?
सबसे अधिक तकरार सीट बंटवारे के फॉर्मूले पर ही फंसा है. क्षेत्रीय पार्टियों का आरोप रहा है कि कांग्रेस अधिक सीट ले लेती है, लेकिन जीत नहीं पाती है. तृणमूल कांग्रेस भी पश्चिम बंगाल में इसी कारण गठबंधन नहीं करना चाह रही है.
बंगाल में जहां कांग्रेस मजबूत थी, वहां 2021 के चुनाव में तृणमूल कांग्रेस ने क्लीन स्विप कर लिया. तृणमूल को 2024 के चुनाव में भी इसी तरह के परिणाम आने की उम्मीद है. हालांकि, नीतीश से मुलाकात के बाद ममता गठबंधन को राजी हो गई है.
बंगाल की बात करें तो वहां पर तृणमूल के साथ-साथ सीपीएम और कांग्रेस की भी मौजूदगी है. राज्य में कुल 42 लोकसभा सीट है, जिसमें से 2019 में 18 पर बीजेपी, 2 पर कांग्रेस और 22 पर तृणमूल कांग्रेस ने जीत दर्ज की थी.
तेजस्वी समेत कई नेता पहले भी मांग कर चुके हैं कि जिन राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियां प्रभावी हैं, वहां पर सीट बंटवारे का काम उसी के जिम्मे दिया जाना चाहिए. ऐसे में माना जा रहा है कि बंगाल, यूपी समेत कई राज्यों में कांग्रेस छोटे भाई की भूमिका में रहेगी.
- इसका मतलब समझिए
बंगाल, यूपी और बिहार समेत कई राज्यों में कांग्रेस बहुत ही कम सीटों पर लड़ पाएगी. 2019 में बंगाल में कांग्रेस 2 सीटों पर जीतने में कामयाब हुई थी, जबकि एक सीट पर दूसरे नंबर पर रही थी.
सीट बंटवारे के तहत अगर फर्स्ट और सेकेंड नंबर का फॉर्मूला लागू होता है, तो कांग्रेस बंगाल में सिर्फ 3 सीटों पर चुनाव लड़ पएगी. कम सीटों पर लड़ने की वजह से पार्टी का दबदबा भी कम होगा. जरूरी नहीं है कि जो सीटें मिले, वो भी कांग्रेस जीत ही ले, इसलिए इन राज्यों में कांग्रेस के लिए आगे का सफर आसान नहीं रहने वाला है.
पीएम कुर्सी से दूर हो जाएंगी कांग्रेस?
कांग्रेस के साथ अभी गठबंधन में आने के लिए डीएमके, शिवसेना (यूटी), एनसीपी, जेडीयू, सीपीएम, आरजेडी, जेएमएम, सपा, तृणमूल कांग्रेस और टीआरएस ने हामी भरी है. नीतीश कुमार बीजेडी, वाईएस कांग्रेस, जेडीएस और इनेलो को भी साथ लाने की कोशिश में जुटे हैं.
इनमें से अधिकांश पार्टियों का कहना है कि चुनाव बाद चेहरा घोषित हो और सीट बंटवारे में कांग्रेस एडजस्ट करे. कांग्रेस अगर ऐसा करती है तो यह संभव है कि पीएम कुर्सी पर से उसकी दावेदारी कमजोर पड़ जाएगी.
कांग्रेस अगर सभी दलों के साथ मिलकर चुनाव लड़ती है, तो अधिक से अधिक 250 सीटों पर पार्टी उम्मीदवार उतार पाएगी. इनमें से अधिकांस सीटें हिंदी पट्टी (राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़) और कर्नाटक की है.
पिछले चुनाव में इन जगहों पर कांग्रेस का परफॉर्मेंस बहुत ही खराब रहा था. ऐसे में इस बार अगर कोई बड़ा चमत्कार नहीं हुआ तो पार्टी काफी पिछड़ जाएगी.
सीट बंटवारे को लेकर संकट के साथ ही चेहरा का भी बड़ा मुद्दा है. विपक्षी पार्टियों के अधिकांश नेताओं का कहना है कि कांग्रेस के नेतृत्व में हमारी बातें नहीं सुनी जाती है. यह भी दोनों नेताओं को पीएम दावेदारी से दूर करने की बड़ी वजह बन सकती है.
कुल मिलाकर गठबंधन बनता भी है तो करीब 200 सीटों पर उन पार्टियों का बीजेपी से सीधा मुकाबला होगा, जो कांग्रेस के चेहरे को पसंद नहीं करती है. अगर ये 200 सीटें जीत में तब्दील हो गया तो 2024 में कांग्रेस के लिए पीएम की दावेदारी दूर की कौड़ी साबित हो सकती है.
मुद्दों पर बनी सहमति, नीतीश करेंगे कॉर्डिनेट
कांग्रेस समेत सभी विपक्षी पार्टियों के बीच मुद्दों को लेकर सहमति बन गई है. विपक्षी गठबंधन 2 मुद्दों पर बीजेपी को घेरेगी. इनमें पहला मुद्दा- देशभर में जातीय जनगणना कराने की है.
जातीय जनगणना का मुद्दा देश के ओबीसी समुदाय को सीधे हिट कर रही है. लोकसभा की सभी सीटों पर ओबीसी समुदाय 30-40 फीसदी के करीब हैं, जो गेम चेंजर माने जाते हैं.
जातीय जनगणना को अगर 2024 में विपक्ष मुद्दा बनाने में सफल रहती है तो बीजेपी को काफी नुकसान हो सकता है.
दूसरा मुद्दा- विपक्षी नेताओं पर हो रहे सेंट्रल एजेंसी की कार्रवाई है. सेंट्रल एजेंसी की कार्रवाई से कांग्रेस, तृणमूल, आरजेडी, बीआरएस, आप और सीपीएम परेशान हैं.
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में सेंट्रल एजेंसी की कार्रवाई के खिलाफ 16 विपक्षी पार्टियों ने एक अर्जी दाखिल की थी. इसमें कहा गया था कि प्रवर्तन निदेशालय की 95 फीसदी कार्रवाई विपक्षी नेताओं के खिलाफ हुई है.
मुद्दों पर सहमति बनने के साथ ही नीतीश कुमार गठबंधन में संयोजक की भूमिका निभाएंगे. इसका औपचारिक एलान विपक्षी दलों की सर्वदलीय मीटिंग में तय होगा.
नीतीश कुमार को ही क्यों बने गठबंधन के अगुवा?
नीतीश कुमार पिछले 25 सालों में 9 दलों के साथ बिहार में गठबंधन सरकार चला चुके हैं. इनमें बीजेपी, कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी और आरजेडी, एलजेपी जैसे क्षेत्रीय पार्टी भी शामिल हैं. नीतीश कुमार जिसके भी साथ रहे, कभी सीट बंटवारे को लेकर विवाद नहीं होने दिया.
नीतीश कुमार पिछले 46 साल से सार्वजनिक जीवन में हैं. केंद्र में मंत्री बनने के अलावा बिहार में लंबे वक्त से मुख्यमंत्री हैं, लेकिन उन पर अब तक करप्शन का कोई आरोप नहीं लगा है. विपक्षी दलों के लिए यह सबसे बड़ा प्लस प्वॉइंट है.
जनता पार्टी की उपज नीतीश कुमार की छवि सेक्युलर नेता की रही है. नीतीश सर्वमान्य नेता भी माने जाते हैं. उनका 3 सी (करप्शन, क्राइम और कम्युनलिज्म) से समझौता नहीं का फॉर्मूला भी हिट रहा है. ऐसे में विपक्षी पार्टियों नीतीश के साथ आने से कोई परहेज नहीं है.