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मिस मैनेजमेंट या राजनीतिक दबाव…,धरना हैंडल करने में क्यों चूक जाती है दिल्ली पुलिस?

पुलिसिया कार्रवाई की वजह से कई बार दिल्ली पुलिस को अपनी भूमिका के लिए माफी भी मांगनी पड़ी है. देश की सबसे बेहतरीन पुलिसिया सिस्टम होने के बावजूद धरना हैंडल करने में दिल्ली पुलिस विफल रही है.

अन्ना आंदोलन हो या जेएनयू छात्रों का हल्लाबोल प्रदर्शन, किसानों का दिल्ली घेराव हो या अब पहलवानों का धरना... दिल्ली पुलिस की भूमिका और एक्शन हमेशा सवालों के घेरे में रही है. कानून-व्यवस्था बनाने के नाम पर शक्ति प्रदर्शन से दिल्ली की छवि भी खराब हुई है.

पुलिसिया कार्रवाई ने कई बार आंदोलन को और बड़ा कर दिया है तो कई बार पुलिस को अपनी भूमिका के लिए माफी भी मांगनी पड़ी है. देश की सबसे बेहतरीन पुलिसिया सिस्टम होने के बावजूद धरना-प्रदर्शन हैंडल करने में दिल्ली पुलिस विफल रही है. 

2011 में अन्ना आंदोलन के वक्त दिल्ली की एक अदालत ने पुलिस को अस्पष्ट रवैया रखने की वजह से फटकार भी लगा चुकी है. 2020 में सीएए आंदोलन के दौरान भी पुलिस को प्रदर्शन रोकने के लिए कोर्ट ने फटकार लगाई थी. 

इसके बावजूद धरना प्रदर्शन नियंत्रित करने को लेकर दिल्ली पुलिस की रवैए में कोई बदलाव नहीं आया है. आखिर बार-बार दिल्ली पुलिस यह चूक क्यों कर रही है?

पहलवानों के साथ पुलिस की झड़प क्यों?
बीजेपी सांसद और कुश्ती संघ के अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ विनेश फोगाट, बजरंग पूनिया और साक्षी मल्लिक के नेतृत्व में पहलवान धरना दे रहे हैं. सिंह पर पॉक्सो एक्ट में एफआईआर दर्ज है और उन पर यौन उत्पीड़न का आरोप है.

पहलवानों का कहना है कि जब तक बृजभूषण की गिरफ्तारी नहीं होती है, तब तक धरना जारी रहेगा. इसी बीच 3 मई की रात में पुलिस और पहलवानों के बीच हिंसक झड़प हो गई. पहलवानों का कहना है कि पुलिस के लोगों ने शराब पीकर मारपीट और गाली-गलौज की.

घटना पर दिल्ली पुलिस ने सफाई देते हुए कहा कि धरनास्थल पर पहलवानों के लिए बेड का इंतजाम किया जा रहा था, जिसे रोकने की कोशिश की गई. इसी दरम्यान पुलिस और पहलवानों के बीच नोंकझोंक हो गई.

पहलवानों पर पुलिसिया कार्रवाई के कई वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे हैं, जिस पर दिल्ली पुलिस ने कहा है कि शिकायत आने पर जांच कर पुलिसकर्मियों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करेंगे.

दिल्ली पुलिस ने तनावपूर्ण माहौल को देखते हुए धरनास्थल के आसपास धारा 144 लागू कर दिया. पहलवानों पर हुए पुलिसिया कार्रवाई के बाद प्रेस कॉन्फ्रेंस करने आई साक्षी मल्लिक मीडिया के सामने ही फूट-फूटकर रोने लगीं.

दिल्ली पुलिस की भूमिका पर सवाल क्यों?
धरनास्थल पर पहलवानों के साथ झड़प और बाद में इलाके की बैरिकेडिंग कर लोगों के जाने पर पाबंदी लगाना दिल्ली पुलिस की भूमिका पर सवाल खड़ा कर दिया. राज्यसभा सांसद दीपेंद्र हुड्डा, दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष स्वाती मालिवाल और पहलवान गीता फोगाट ने आरोप लगाया कि धरनास्थल पर जाने के दौरान उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया.

हालांकि, मीडिया और सोशल मीडिया पर दिल्ली पुलिस के रवैए पर जब सवाल उठा तो आधिकारिक ट्विटर हैंडल से सफाई दी गई. दिल्ली पुलिस ने लिखा कि कानून का पालन करते हुए विधिवत तरीके से मिलने पर पाबंदी नहीं है. 

दिल्ली पुलिस ने 4 मई की देर शाम राकेश टिकैत को धरना स्थल पर जाने दिया. धरना दे रहे पहलवानों से मुलाकात के बाद टिकैत ने कहा कि 7 मई को आगे का निर्णय होगा. 

धरना-प्रदर्शन नियंत्रण करने को लेकर कब-कब उठा सवाल?
अन्ना आंदोलन (2011)- लोकपाल बिल को लेकर अन्ना हजारे अपने समर्थकों के साथ दिल्ली के जेपी पार्क में अनशन करने आए. यहां पर दिल्ली पुलिस ने अन्ना और उनके साथियों को गिरफ्तार कर तिहाड़ जेल में भेज दिया.

अन्ना हजारे पर दिल्ली पुलिस की इस कार्रवाई से पूरा देश उबल पड़ा. जगह-जगह सरकार का विरोध शुरू होने लगा. राजनीतिक दबाव को देखते हुए दिल्ली पुलिस ने अन्ना को रिहा करने का फैसला किया. 

इसके बाद अन्ना का आंदोलन रामलीला मैदान में हुआ, जिसके बाद कांग्रेस सरकार बैकफुट पर आ गई. 

जेएनयू छात्रों का प्रदर्शन- 2018 में जेएनयू के छात्र और प्रोफेसर छेड़छाड़ के आरोपी प्रोफेसर अतुल जौहरी पर कार्रवाई की मांग को लेकर संसद तक शांतिपूर्ण मार्च निकाल रहे थे. मार्च निकाल रहे छात्रों पर दिल्ली पुलिस ने आईएनए के पास लाठीचार्ज कर दिया.

पुलिस की इस कार्रवाई में जेएनएयू के कई छात्र और प्रोफेसर घायल हो गए. मार्च कवर कर रहे पत्रकारों पर भी पुलिस ने लाठियां बरसाई. घटना के बाद खूब बवाल हुआ, जिसके बाद दिल्ली पुलिस ने माफी मांगी.

पुलिस के खिलाफ सरोजनी नगर थाने में कंप्लेन भी उस वक्त लिखा गया था. 

सीएए को लेकर प्रदर्शन- दिल्ली गेट पर सीएए के खिलाफ प्रदर्शन में शामिल होने आए भीम आर्मी के चंद्रशेखर को दिल्ली पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था. पुलिस ने चंद्रशेखर पर भीड़ को उकसाने और दंगा भड़काने जैसे गंभीर आरोप में मुकदमा भी दर्ज कर लिया.

हालांकि, पुलिस चंद्रशेखर की जमानत याचिका के दौरान दिल्ली पुलिस को कोर्ट ने जमकर फटकार लगाई. कोर्ट ने कहा कि धरना देना संवैधानिक अधिकार है और इसे नहीं रोका जा सकता है.

कोर्ट ने दिल्ली पुलिस से कहा कि जो बातें संसद में बोली गई है, उसे सड़को पर बोलने देना चाहिए.

जामिया में छात्रों की पिटाई- नागरिकता संशोधन कानून का पूरे देश में विरोध हो रहा था. इसी बीच दिल्ली के जामिया नगर में हिंसा भड़क गई. पुलिस ने उपद्रवियों के साथ-साथ प्रदर्शन कर रहे जामिया के छात्रों की भी पिटाई कर दी.

पुलिस ने यूनिवर्सिटी के भीतर घुसकर छात्रों को पीट दिया. इस मामले में दिल्ली पुलिस की काफी आलोचना हुई. फरवरी 2023 में निचली अदालत ने भी दिल्ली पुलिस की भूमिका और जांच पर सवाल उठाया. 

किसान आंदोलन- दिल्ली में किसान आंदोलन के दौरान धरना पर बैठे किसानों को सुरक्षा नहीं दे पाने की वजह से भी दिल्ली पुलिस रडार में आ गई. दरअसल, सिंधु और टिकरी बॉर्डर पर धरना दे रहे किसानों के साथ वहां के कथित स्थानीय लोगों ने मारपीट की.

स्थानीय लोगों ने किसानों के खिलाफ नारे भी लगाए और टेंट में तोड़फोड़ भी की. दिल्ली पुलिस धरनास्थल पर हिंसा कर रहे लोगों पर कार्रवाई करने की बजाय मूकदर्शक बनी रही.

धरना हैंडल करने में क्यों चूक जाती है दिल्ली पुलिस?
शांतिपूर्ण धरना देना आम नागरिकों का संवैधानिक अधिकार है, लेकिन इसके बावजूद धरना देने वालों के खिलाफ पुलिस का रवैया कठोर रहता है. कई बार इसको लेकर किरकिरी भी होती है. हालांकि, इसमें कोई अब तक कोई बड़े स्तर पर सुधार नहीं हुए हैं.

आखिर पुलिस धरना हैंडल करने में क्यों चूक जाती है? सेंटर फॉर लॉ एंड पॉलिसी रिसर्च, बेंगलुरु के शोध सलाहकार मैथ्यू इडिकुला इसके पीछे मानसिकता को वजह मानते हैं. 

अंग्रेजी वेबसाइट स्क्रॉल में लिखे एक ओपिनियन में मैथ्यू लिखते हैं- भारत में अंग्रेजों का शासन खत्म हो गया, लेकिन पुलिसिया मानसिकता में कोई बदलाव नहीं आया. पुलिस पहले भी धरना को खिलाफ मानती थी और अब भी. 

मैथ्यू के मुताबिक कानून और व्यवस्था के नाम जो आदेश जारी किए जाते हैं. पुलिस के आला अधिकारी यह नहीं सोच पाते हैं कि आदेश किसलिए जारी किए जा रहे हैं, अधिकार बचाने के लिए या अधिकार कुचलने के लिए.

अमेरिका का उदाहरण देते हुए मैथ्यू लिखते हैं- अमेरिका में भी 1999 में पुलिस ने एक शांति मार्च को कुचल दिया था. इसके बाद पुलिस के क्रूर रवैए के खिलाफ पूरा देश उठ खड़ा हुआ. अमेरिकी पुलिस के इतिहास में शांति मार्च को कुचलने की यह आखिरी घटना साबित हुई. 

धरना हैंडल में मिस मैनेजमेंट की वजह से पुलिस की भूमिका पर भी सवाल उठता है. एक रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली में करीब 95,000 पुलिसकर्मी हैं. इनमें 40 फीसदी कर्मचारी निचले यानी कांस्टेबल और सिपाही स्तर के हैं. 

धरना के दौरान अमूमन इन्हीं कर्मियों को तैनात कर दिया जाता है. उच्च स्तरीय ट्रेनिंग नहीं होने की वजह से इन कर्मियों का व्यवहार काफी कठोर होता है, जो बातचीत, बहस से झड़प और हिंसा में बदल जाता है. 

राजनीतिक दबाव को भी एक मुख्य वजह माना जा सकता है. दिल्ली देश की राजधानी है और यहां की पुलिस को सीधे केंद्र सरकार कंट्रोल करती है. अब तक धरना-प्रदर्शन के जितने भी बड़े मामले में पुलिस की भूमिका पर सवाल उठी है, वो सभी केंद्र से जुड़ा मसला ही रहा है.

2011 में अन्ना आंदोलन पर पुलिसिया कार्रवाई को लेकर कांग्रेस की सहयोगी पार्टी आरजेडी के नेता लालू यादव ने तत्कालीन गृह मंत्री पर सवाल उठाया था. लालू यादव ने कहा था कि अन्ना हजारे को जिस तरीके से गिरफ्तार करवाया गया, वो गलत था और जनता खिलाफ हो गई.

उस वक्त कई रिपोर्टों में दावा किया गया था कि दिल्ली पुलिस ने राजनीतिक दबाव में अनशन पर बैठे अन्ना हजारे को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया था.

अब जाते-जाते जानिए विरोध-प्रदर्शन का मौलिक अधिकार क्या है?
संविधान में मौलिक अधिकार के तहत आम नागरिकों को शांतिपूर्ण तरीके से किसी मसले पर विरोध-प्रदर्शन का अधिकार दिया है. संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (बी) में शांतिपूर्ण तरीके से बिना हथियारों के जमा होने का अधिकार है.

साथ ही अनुच्छेद 19 (1) (ई) में अपनी मांगों को लेकर शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने की इजाजत दी गई है. हालांकि, पुलिस के पास भी कुछ अधिकार दिए गए हैं, जिससे कई बार धरना पर रोक लगाने का काम करती है.

मसलन, सुरक्षा व्यवस्था को आधार बनाकर पुलिस किसी भी धरना के लिए परमिशन देने से इनकार कर सकती है. बिना परमिशन धरना देना कानूनन गलत है. 

दिल्ली में 1993 से जंतर-मंतर एक महत्वपूर्ण धरना स्थल बन गया है. 1993 से पहले बोट क्लब और इंडिया गेट पर धरना और प्रदर्शन किया जाता था, लेकिन 1993 के बाद यह बदलकर जंतर-मंतर पर आ गया.

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