कांग्रेस पार्टी के इतिहास में 52 साल बाद मल्लिकार्जुन खड़गे के तौर पर दूसरे दलित अध्यक्ष की एंट्री हुई है. खड़गे ने 7897 वोट हासिल कर अपने प्रतिद्वंदी शशि थरूर को मात दी है जबकि थरूर केवल 1 हजार वोट पर सिमट कर रह गए. पार्टी के 137 साल में ये छठा मौका है जब अध्यक्ष पद के लिए चुनाव हुआ है.
इस बार इन चुनावों की खास बात रही कि गांधी परिवार से कोई भी उम्मीदवारी के लिए नहीं आया. दरअसल देश में आजादी से पहले की इस ऐतिहासिक पार्टी की कमान अक्सर गांधी परिवार ने ही संभाली है. अध्यक्ष पद की इस चुनावी जंग में आखिरी वक्त में मल्लिकार्जुन खड़गे उतरे थे. तब उनके इस पद की दावेदारी के साथ ही ये भी तय हो गया था कि वो इस मुकाबले में शशि थरूर पर भारी पड़ेंगे और वही सच भी साबित हुआ.
खड़गे के उम्रदराज होने से भविष्य में उनके राहुल गांधी के लिए राजनीति में चुनौती बनने के आसार भी नहीं हैं, इसलिए भी वो इस पद के लिए पंसदीदा उम्मीदवार के तौर पर देखे जा रहे थे. इसके साथ ही कांग्रेस पार्टी के वफादार रहे इस नेता पर आलाकमान के भरोसे की बात भी जगजाहिर है. इतनी खासियतों में से खड़गे के दलित होने की खूबी को पार्टी आने वाले राज्यों के विधान सभा और लोकसभा चुनावों में भुनाने पर सोच सकती है.
दलित पार्टी अध्यक्ष का असर
मल्लिकार्जुन खड़गे के सिर कांग्रेस पार्टी के दूसरे दलित अध्यक्ष होने का ताज भी सजा है. 80 साल के खड़गे बाबू जगजीवन राम के बाद पार्टी के दूसरे दलित अध्यक्ष बने हैं. इस पद पर आज से 50 पहले 1970 से लेकर 1971 तक एक दलित के अध्यक्ष के तौर पर बाबू जगजीवन राम रहे थे. दक्षिणी राज्य कर्नाटक से आने वाले खड़गे पार्टी के अहम दलित नेता के तौर पर अलग पहचान रखते हैं. उन्होंने इस सूबे में पार्टी को मजबूती देने में कोई कसर नहीं छोड़ी है.
उनकी छवि भी बेहद साफ और पार्टी के लिए मुखर रहने वाले ईमानदार नेता की है. पार्टी के अंदर भी उनका किसी से मनमुटाव सामने नहीं आया है. हालांकि गांधी खानदान के अलावा पार्टी के सामान्य कार्यकर्ताओं से उनका उतना अधिक जुड़ाव नहीं है. इस पर भी दलित कांग्रेसी नेता मानकर चल रहे हैं कि उनके अध्यक्ष पद पर होने से पार्टी के पिछड़े और दलित समुदाय के लोगों की पार्टी में वापसी हो सकती है.
यहां पर ये बात भी गौर करने लायक है कि खड़गे भले ही दलित समुदाय के हों, लेकिन दक्षिण भारत के बाहर उनका जनाधार बेहद कम है. उत्तर भारत में वह कितना असर कर पाएंगे इस पर कयास लगाना या कुछ कहना अभी जल्दीबाजी होगी, क्योंकि राजनीति में कब बाजी पलट जाए इसे लेकर कोई कुछ नहीं कह सकता है.
अभी दलित नेता के तौर पर यूपी में बीएसपी सुप्रीमो मायावती को असरदार माना जाता है, लेकिन साल 2022 में विधानसभा चुनावों हारने के बाद मल्लिकार्जुन खड़गे ने बसपा सुप्रीमो को अप्रैल में जो जवाब दिया था. उसे देखकर लगता है कि खड़गे यूपी में दलितों को लुभाने की जोरदार और पुरजोर कोशिश कर सकते हैं.
जब मायावती के मुकाबले खड़गे को उतारा
कांग्रेस ने साल 2022 के विधानसभा चुनावों के बाद मायावती को जवाब देने के लिए मल्लिकार्जुन खड़गे को मैदान में उतारा था. दरअसल 9 अप्रैल शनिवार 2022 को राहुल गांधी ने कहा था कि उन्होंने मायावती से यूपी विधानसभा चुनाव के लिए गठबंधन के लिए संपर्क साधा था, लेकिन उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया, शायद वो बीजेपी से डर गई हैं. इसके जवाब में 10 अप्रैल 2022 रविवार को मायावती ने कहा था कि राहुल गांधी को बोलने से पहले 100 बार सोचना चाहिए. उनका बयान उनकी जातिवादी सोच को दिखाता है. तब एआईसीसी (AICC) ने राज्यसभा में विपक्ष के नेता दलित समुदाय के मल्लिकार्जुन खड़गे को बसपा सुप्रीमो को जवाब देने के लिए आगे किया था.
तब खड़गे ने कहा था, "कांग्रेस ने प्रियंका गांधी जी के नेतृत्व में उत्तर प्रदेश का चुनाव अपनी पूरी ताकत से लड़ा. कांग्रेस चाहती थी कि बीजेपी सत्ता के नशे में, आम लोगों खासकर महिलाओं, दलितों, अल्पसंख्यक वर्गों पर अत्याचार करती रही हो. कमजोर वर्गों को रोका जाए और पार्टी ने उसके लिए सभी कोशिशें की. कांग्रेस ने मायावती जी से कांग्रेस के साथ गठबंधन करने और बीजेपी के खिलाफ गठबंधन का नेतृत्व करने का आग्रह किया था. लेकिन वह किसी भी कारण से ऐसा नहीं कर सकीं. राहुल गांधी जी ही शनिवार को इस तथ्य को बताया."
तब खड़गे ने ये भी कहा था, "लोग अब मुद्रास्फीति और बेरोजगारी के कारण संघर्ष कर रहे हैं. संवैधानिक संस्थानों पर आरएसएस कब्जा कर रही है. इन हालातों में, हमारे लोकतंत्र और बाबा साहब के संविधान का क्या होगा? बीजेपी के खिलाफ इस लड़ाई में सभी विपक्षी दलों को एक साथ आना चाहिए."
यूपी में कांग्रेस का दलित कार्ड
उत्तर प्रदेश की बात की जाए तो यहां इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के जमाने में कांग्रेस को दलितों का साथ मिला था. इसके पीछे इंदिरा गांधी का गरीबी हटाओ का मशहूर नारा रहा. दरअसल यूपी में कभी दलित-ब्राह्मण और मुसलमान कांग्रेस का सबसे तगड़ा वोट बैंक हुआ करता था. इस बैंक में कांशीराम और मायावती ने सेंध लगाई और दलित एकजुट होकर बीएसपी के साथ हो लिए हैं.
ब्राहम्ण अगड़ी जातियों के साथ ही बीजेपी की तरफ झुक गए तो मुसलमानों ने समाजवादी पार्टी और कुछ बीएसपी का दामन थाम लिया. इससे कांग्रेस देश के इस सबसे बड़े सूबे में जातिगत राजनीति में पिछड़ने लगी. उसका ये कोर वोट बैंक इस सूबे से खिसकने लगा.अब कांग्रेस इसी वोट बैंक को वापस पाने की पुरजोर तैयारी कर रही है.
हाल ही में कांग्रेस का उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम के शिष्य रहे बृजलाल खाबरी को प्रदेशाध्यक्ष का पद सौंपा जाना इसका सबूत है. इस फैसले के पीछे प्रियंका गांधी को माना जा रहा है. कहा जा रहा है कि ये लोकसभा चुनाव 2024 को लेकर की गई खास तैयारी है.
खड़गे के अध्यक्ष बनने से इससे सोने पर सुहागा हो गया है. वह भी दलित समुदाय से आते हैं और यहां उन्हें बृजलाल खाबरी का संग मिलेगा तो शायद यूपी के दलित वोट बैंक को खो चुकी कांग्रेस इसे वापस पा सके. पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी दक्षिण राज्य में भारत जोड़ो यात्रा से लोकसभा 2024 में जीत की तैयारियों को पक्का करने में लगे हैं और खड़गे को इस पार्टी के अध्यक्ष पद के लिए सोनिया और राहुल का ही उम्मीदवार माना गया था.
दक्षिण भारत में कांग्रेस की राह
दक्षिण भारत में कर्नाटक, तेलंगाना, आंध्रप्रदेश, केरल और तमिलनाडु इन 5 राज्यों में लोकसभा की 129 सीटों में से मौजूदा वक्त में 28 सीटें पर कांग्रेस पार्टी हैं. कांग्रेस दक्षिण भारत में मल्लिकार्जुन को एक दलित नेता की छवि को कैश कराने की कोशिश कर सकती है, लेकिन इसके बाद भी पार्टी की डगर आसान नहीं रहने वाली है. आंध्राप्रदेश में जगनमोहन रेड्डी की तूती बोलती है तो तेलंगाना में केसीआर का बोलबाला है. यहां विपक्ष के तौर पर बीजेपी पैर पसारने के लिए तैयार है. कर्नाटक के आने वाले चुनावों में वो बीजेपी के खिलाफ पार्टी का अहम चेहरा बन कर उभर सकते हैं.
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