18, 7, और 16... ये आपको भले नंबर लग रहा हो, लेकिन यह संख्या है पश्चिम बंगाल में पिछले 3 पंचायत चुनाव में मारे गए लोगों की. बंगाल में इस बार भी नामांकन शुरू होने के साथ ही पंचायत चुनाव के दौरान भड़क उठी है.
रिपोर्ट्स के मुताबिक अब तक पिछले 8 दिन में 5 लोगों की हत्या हो चुकी है, जबकि 90 लोग घायल हुए हैं. हिंसक झड़प की 30 से अधिक घटनाएं हो चुकी है. विपक्षी पार्टी हिंसा के लिए सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस को जिम्मेदार ठहरा रही है.
शनिवार को कूचबिहार में केंद्रीय गृह राज्य मंत्री निशिथ प्रमाणिक की कार पर उपद्रवियों ने तीर से हमला किया. राज्य में हिंसक घटनाओं को देखते हुए कलकत्ता हाईकोर्ट ने सेंट्रल फोर्स बुलाने का आदेश दिया है.
हिंसा और सेंट्रल फोर्स की निगरानी में चुनाव बंगाल के लिए नया नहीं है. पिछले 5 दशक से बंगाल का चुनाव रक्तरंजित रहा है. इस स्टोरी में सियासत में जलते भद्रलोक की कहानी को जानते हैं...
राजनीतिक हिंसा में कितनी मौतें?
लोकसभा में केंद्रीय गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने एक सवाल के जवाब में बताया कि 2019 में बंगाल में राजनीतिक हत्या से जुड़े 12 केस दर्ज किए गए, जबकि 13 परिवार इससे प्रभावित हुए. 2018 में भी यह आंकड़ा 12 और 13 का ही था.
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (NCRB) ने 2018 की अपनी रिपोर्ट में कहा था कि 2018 में बंगाल में 12 हत्याएं हुईं हैं. उसी रिपोर्ट में कहा गया था कि वर्ष 1999 से 2016 के बीच पश्चिम बंगाल में हर साल औसतन 20 राजनीतिक हत्याएं हुई हैं. इनमें सबसे ज्यादा 50 हत्याएं 2009 में हुईं.
बंगाल को बदनाम करने की बात कहकर 2019 से ममता बनर्जी ने एनसीआरबी को डेटा देना बंद कर दिया. 2021 में बंगाल विधानसभा चुनाव के बाद भड़की हिंसा में करीब 13 लोगों की मौत हो गई. हाईकोर्ट ने पूरे मामले को लेकर सीबीआई जांच का आदेश दिया था.
बंगाल में राजनीतिक हिंसा का इतिहास
पीएस बनर्जी अपने शोध लोग, शक्ति और राजनीति हिंसा में लिखते हैं- बंगाल में गन और बम कल्चर की शुरुआत 1967 में शुरू हुई. प्रभुत्व को लेकर उस वक्त कांग्रेस और वाम दल के कार्यकर्ता की बीच झड़प शुरू हुई थी. झड़प के दौरान पूर्वी वर्दमान के में एक कांग्रेस कार्यकर्ता की हत्या हो गई.
इसके कुछ महीने बाद वाम मोर्चे में शामिल ऑल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक के अध्यक्ष हेमंत बसु की कोलकाता में गोली मारकर हत्या कर दी गई. 1977 के बाद राजनीतिक हिंसा में तेजी आई. इसी साल बंगाल में पहली बार पंचायत चुनाव कराया गया था.
1979 के अंत में मरीचझापी नरसंहार हुआ. 1982 आनंद मार्ग के 13 लोगों को गोलियों से भून दिया गया. इसका आरोप बंगाल पुलिस पर ही लगी. 2000 में बीरभूम के एक गांव में 13 मुसलमानों को पीट-पीटकर हत्या कर दी गई. यह भी राजनीति से जुड़ा मामला था.
बंगाल में सीपीएम सरकार को तृणमूल चुनौती देने लगी, जिसके बाद हिंसक घटनाओं में इजाफा होने लगा. सीपीएम सत्ता के अंतिम सालों में राजनीतिक हिंसा में बड़ी तादाद में लोग मारे गए. 2009 में 50, 2010 और 2011 में 38-38 लोगों की मौत हुई.
2011 में 34 की वाम सत्ता को ममता बनर्जी की अगुवाई वाली तृणमूल और कांग्रेस गठबंधन ने उखाड़ फेंका. ममता सरकार के दौरान आधिकारिक आंकड़ों में जरूर कमी आई, लेकिन राजनीतिक हिंसा पूरी तरह कंट्रोल नहीं हो पाया.
क्यों बार-बार भड़क उठती है राजनीतिक हिंसा?
सवाल उठता है कि भद्रलोक के नाम से प्रसिद्ध बंगाल आखिर बार-बार हिंसा की आग में क्यों जलने लगती है? हाल ही में एम्स्टर्डम विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान विभाग के प्रोफेसर उर्सुला डैक्सेकर और ओसलो पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट के हैन फेजेल्डे ने इस पर 37 पन्नों का एक शोध किया है.
शोध के मुताबिक चुनाव के दौरान हिंसा की मुख्य वजहें प्रभुत्व की लड़ाई और राजनीतिक जागरूकता है. उर्सुला डैक्सेकर लिखते हैं- बंगाल में हिंसा तब चरम पर होती है, जब सत्ताधारी पार्टी को कोई दल चुनौती देता है. डैक्सेकर इसके पीछे 2009-2011 और 2018 से 2021 में हुई हिंसा का डेटा को प्रस्तुत करते हैं.
उनके मुताबिक बंगाल में जब-जब हिंसक घटनाओं में बढ़ोतरी हुई है, तब-तब सत्ताधारी दलों के सामने नई विपक्षी पार्टियां चुनौती बनकर सामने आई है. 2009-11 में राजनीतिक हत्याओं के मामले बढ़े तो तृणमूल की सीटें बढ़ गई और सीपीएम सत्ता से बाहर चली गई.
इसी तरह 2018-21 में राजनीतिक हिंसा की घटनाओं में बढ़ोतरी देखी गई. इस दौरान राज्य में बीजेपी की सीटों में जबरदस्त इजाफा हुआ. लोकसभा में बीजेपी 1 से 18 और विधानसभा में 3 से 77 पर पहुंच गई.
राजनीतिक जागरूकता को भी हिंसा की बड़ी वजह बताते हुए डैक्सेकर और फेजेल्डे लिखते हैं- राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं को जब यह आभास होता है कि निष्पक्ष तरीके से चुनाव नहीं हो रहा है, तो संघर्ष बढ़ जाता है. यही संघर्ष कई बार हिंसक घटनाओं में तब्दील हो जाता है.
साल 2021 में विधानसभा चुनाव के दौरान में कूचबिहार के सीतलकुची में मतदान ठीक से नहीं कराए जाने को लेकर तृणमूल और बीजेपी में झड़प हो गई थी, जिसके बाद सीआईएसएफ ने फायरिंग कर दी. इस फायरिंग में 4 लोगों की मौके पर ही मौत हो गई.
एक और मुख्य वजह जमीनी स्तर पर काम कर रहे सिंडिकेट भी है. राजनीतिक जानकारों के मुताबिक बंगाल में सिंडिकेट के जरिए ही गांव स्तर पर सारे कारोबार संचालित किए जाते हैं. इन सिंडिकेटों को सत्ता का शह मिला होता है.
इन्हीं सिंडिकेटों के जरिए राजनीतिक दल जमीन पर अपनी मजबूती बनाए रखती है. ऐसे में चुनाव के दौरान सिंडिकेट किसी भी तरह से अपना वर्चस्व खत्म नहीं करना चाहता है और सत्ता के लिए पूरी ताकत झोंक देता है.