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फिर साथ आने से पहले अखिलेश और शिवपाल यादव को भुलानी होंगी ये दो तारीखें?

मुलायम सिंह यादव के निधन के बाद क्या अखिलेश और शिवपाल के बीच की कटुता आंसुओं के सैलाब में बह गई है? क्या अखिलेश यादव मुलायम की विरासत को सहेजने के लिए शिवपाल को साथ लेंगे?

तारीख थी 30 दिसंबर 2016, समाजवादी पार्टी के उस समय के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव पार्टी के अंदर जारी घमासान से परेशान लखनऊ में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस करते हैं. उनके साथ उनके भाई शिवपाल यादव भी मौजूद थे.

उस दिन हाल के ही कुछ वर्षों में यूपी की राजनीति का सियासी पारा कुछ कदर चरम पर था कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अपनी पार्टी में रहेंगे या नहीं ये भी तय नहीं था. उस दिन लखनऊ में कड़ाके की सर्दी थी. 

मुलायम सिंह यादव गले में मफलर और आसमानी कलर का स्वेटर पहनकर आते हैं और तल्ख लहजे में रामगोपाल यादव को पार्टी से निकालने का ऐलान कर देते हैं.

समाजवादी पार्टी के सबसे बड़े पुरोधा के लिए यह निर्णय लेना आसान नहीं था. क्योंकि जिन रामगोपाल यादव को पार्टी से निकालने का वो ऐलान कर रहे थे उनके साथ तत्कालीन मुख्यमंत्री और उनकी विरासत के सबसे उत्तराधिकारी उनके बेटे अखिलेश यादव साथ खड़े थे. 

इसी प्रेस कॉन्फ्रेंस में मुलायम अपने बेटे अखिलेश के लिए कहते हैं, 'मुख्यमंत्री जी समझ नहीं रहे हैं. रामगोपाल यादव उनका राजनीतिक करियर खत्म करना चाहते हैं. मुख्यमंत्री तो निर्विवाद होता है. मैं भी मुख्यमंत्री रहा हूं क्या कभी ऐसा मौका आया. अयोध्या में गोलीकांड हुआ तो हमने नैतिक जिम्मेदारी ली सरकार भंग कर दी..हार गए ठीक है...

दरअसल इस प्रेस कॉन्फ्रेंस के पहले मुलायम सिंह यादव परिवार में बहुत कुछ घट चुका था. शिवपाल यादव इस पूरे घटनाक्रम के केंद्र बिंदु बन गए थे. मामला पार्टी और सरकार में वर्चस्व को लेकर था. अखिलेश को सीएम बने हुए चार साल हो गए थे.

शुरुआत में वो सबको साथ लेकर चले और शायद अनुभव की कमी के चलते ऐसा करना उनकी मजबूरी थी लेकिन बाद में वो फैसले खुद करने लगे. यही टकराव की मुख्य वजह बन गई.

शिवपाल की अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं भी थीं. पार्टी के लिए उन्होंने मुलायम सिंह के साथ कंधे से कंधा मिलाकर संघर्ष किया था. गुटबाजी इतनी हुई कि अखिलेश और रामगोपाल यादव ने शक्ति प्रदर्शन के लिए 1 जनवरी 2017 को पार्टी का राष्ट्रीय अधिवेशन बुला लिया.

ये बात उस समय राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव को नागवार गुजरी और उन्होंने इसी प्रेस कॉन्फ्रेंस में सवाल पूछा कि राष्ट्रीय अधिवेशन बुलाने का अधिकार सिर्फ पार्टी के अध्यक्ष का है तो फिर रामगोपाल जो कि महासचिव हैं ये फैसला कैसे ले सकते हैं.

मुलायम सिंह कहते हैं कि अखिलेश को सीएम किसने बनाया. कभी ऐसा हुआ है कि किसी पिता ने ऐसा निर्णय लिया हो. और फिर मुलायम सिंह यादव ने मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को भी 6 साल के लिए पार्टी से निकालने का ऐलान कर दिया.

इसके अगले दिन 1 जनवरी को अखिलेश यादव लखनऊ में अधिवेशन करते हैं और उनके समर्थक शाम तक लखनऊ स्थित पार्टी कार्यालय में कब्जा करते हैं. समाजवादी पार्टी का बड़ा धड़ा अखिलेश यादव के साथ था.सबने मिलकर अखिलेश को पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष घोषित कर दिया और मुलायम सिंह यादव को संरक्षक. इसके बाद यूपी चुनाव में सपा की बड़ी हार होती है. 

शिवपाल सिंह यादव अपनी अलग पार्टी बना लेते हैं. लेकिन साल 2022 के विधानसभा चुनाव में वो सपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ते हैं. उनकी पार्टी का सपा के साथ सीटों का समझौता होता है और वो खुद भी समाजावादी पार्टी के चुनाव चिन्ह साइकिल के टिकट पर ही जसवंत नगर का चुनाव लड़ते हैं.

लेकिन इस चुनाव में भी समाजवादी पार्टी की करारी होती है और एक बार फिर अखिलेश और शिवपाल के बीच टकराव शुरू हो जाता है. दरअसल चुनाव के बाद विधायक दल का नेता चुने जाने के लिए अखिलेश बैठक बुलाते हैं जिसमें शिवपाल को नहीं बुलाया जाता है.

अखिलेश का ये फैसला शिवपाल के लिए बड़ा झटका था इससे नाराज होकर वो मीडिया में ऐसे बयान देते हैं जो समाजवादी पार्टी के खिलाफ थे. आखिकार शिवपाल समाजवादी पार्टी से नाता तोड़ लेते हैं.

लेकिन समाजवादी पार्टी का अब सबसे बड़ा नेता दुनिया छोड़कर जा चुका है. सपा अब संरक्षकविहीन है. 10 अक्टूबर को मुलायम सिंह यादव के गुरुग्राम के मेदांता अस्पताल में निधन के बाद से लेकर उनके अंतिम संस्कार की अगली सुबह तक जो तस्वीरें आई हैं उससे कई लोगों का मानना है कि आंसुओं के सैलाब बहुत कुछ बह गया है.

लेकिन सवाल ये है कि अखिलेश यादव के मुलायम की विरासत संभालने के लिए क्या वास्तव में किसी दूसरे संरक्षक की जरूरत है. भावनाओं से हटकर अगर देखें तो इस सवाल के जवाब में ही कई पेंच नजर आते हैं.

मुलायम सिंह की जिस विरासत को लेकर अखिलेश को बगावत के लिए मजबूर होना पड़ा था उसकी वजह शिवपाल यादव ही थे. मुलायम के निधन से लेकर अंतिम संस्कार तक भले ही शिवपाल और अखिलेश कई तस्वीरों में एक साथ नजर आए हों लेकिन विरासत में भागीदारी अब शायद पूर्व सीएम को स्वीकार न हो. 

मुख्यमंत्री रहते हुए अखिलेश यादव ने ही 13 सितंबर 2016 को शिवपाल से सारे मंत्री पद छीनने का फैसला किया था जब मुलायम सिंह यादव ने उनकी जगह शिवपाल को यूपी प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी सौंप दी थी. इस तारीख की टीस आज भी शिवपाल को जरूर होती होगी.

कयास लगाए जा रहे हैं कि मुलायम सिंह यादव के निधन से खाली हुई मैनपुरी लोकसभा सीट से शिवपाल यादव को लड़ाया जा सकता है.  मुलायम के अंतिम संस्कार में भी पूरा यादव परिवार सैफई में एक साथ नजर आया.

इस बीच शिवपाल की बातों से भी नजर आ रहा है कि उनके तेवर कुछ ठंडे पड़े हैं. सैफई में जब पत्रकारों ने उनसे पूछा कि क्या वो अखिलेश के साथ फिर नई शुरुआत करना चाहते हैं तो उन्होंने कहा, ' यह समय नहीं है. समय आने पर देखा जाएगा.' जब उनसे पूछा गया कि क्या वो मुलायम की जगह पार्टी संरक्षक भूमिका में आना चाहते हैं तो उन्होंने कहा, 'यह कोई भी निर्णय लेने का समय नहीं है'.

जब शिवपाल से  पूछा गया कि क्या वो मैनपुर से लोकसभा का उपचुनाव लड़ेंगे, इस सवाल पर उसने कहा, 'अभी हम उस स्थिति में नहीं हैं. मुझे क्या करना है या क्या नहीं करना है. ये सब बातें तो जब मौका आएगा तो की जाएंगी. अभी तो सब कार्यक्रम बाकी है. इसलिए इस समय कोई फैसले की बात नहीं है. देखिए क्या जिम्मेदारी मिलती है.'

बिहार के सीएम नीतीश कुमार से भी जब सैफई में ये सवाल पूछा गया कि क्या वो अखिलेश और शिवपाल को साथ लाने की कोशिश करेंगे तो बगल में शिवपाल यादव भी खड़े थे. हालांकि नीतीश कुमार ने इस पर कुछ भी साफ बोलने से इनकार कर दिया. इतना जरूर कहा कि अखिलेश सीएम रहे हैं उनको प्रमोट करने की जरूरत है. 


फिर साथ आने से पहले अखिलेश और शिवपाल यादव को भुलानी होंगी ये दो तारीखें?

 

लेकिन 10 अक्टूबर से लेकर अब तक अखिलेश यादव पूरी शांत रहे. उनके सामने मैनपुरी का चुनाव है. ये सीट उनके पिता की परंपरागत सीट है. 1996 में पहला लोकसभा चुनाव मुलायम ने यहीं से जीता था. यहां से समाजवादी पार्टी को हरा पाना मुश्किल है.  इस सीट पर शिवपाल को लड़ाने का जोखिम अखिलेश यादव लेंगे ये अपने आप में बड़ा सवाल है.

लेकिन शिवपाल के अलावा जिन नामों की चर्चा की जा रही है उनमें सबसे ऊपर धर्मेन्द्र यादव की है. धर्मेन्द्र यादव, अखिलेश के चचेरे भाई हैं. उनको पार्टी आजमगढ़ से चुनाव लड़ा चुकी है. हालांकि वो हार गए थे. वो परिवार में अखिलेश यादव के काफी करीबी हैं.

माना जा रहा है कि पिता की विरासत वाली सीट पर अखिलेश यादव अपनी पत्नी डिंपल यादव को चुना लड़ा सकते हैं. डिंपल यादव एक बार कन्नौज से भी सांसद रह चुकी हैं.

इसके अलावा तेज प्रताप यादव का भी नाम चर्चा में है. तेज 2014 में मैनपुरी से लोकसभा का चुनाव जीत चुके हैं. तेज प्रताप यादव का विवाह लालू प्रसाद की बेटी के साथ हुआ है. 

क्या है मैनपुरी का समीकरण
मैनपुरी लोकसभा सीट पर मुलायम सिंह यादव का MY समीकरण जमकर चलता है. मुस्लिम-यादव वोटों के भरोसे समाजवादी पार्टी इस सीट पर अजेय रही है. यहां पर सवा चार लाख यादव, शाक्य करीब तीन लाख, ठाकुर दो लाख और ब्राह्मण मतदाताओं की वोटों एक लाख है. वहीं दलित दो लाख, इनमें से 1.20 लाख जाटव, 1 लाख लोधी, 70 हजार वैश्य और एक लाख मतदाता मु्स्लिम है. इस सीट पर यादवों और मुस्लिमों का एकतरफा वोट सपा को मिलता है.

 

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