भारत में लगातार हो रहे विपक्षी दलों के नेताओं पर ईडी और सीबीआई एक्शन के बीच महिला आरक्षण की मांग ने जोर पकड़ ली है. बीते शुक्रवार को बीआरएस नेता कविता राव ने इसकी मांग को लेकर जंतर-मंतर पर भूख हड़ताल किया. कविता के समर्थन में विपक्ष की 17 पार्टियां सामने आई और इसे जल्द लागू करने की मांग की.


कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश ने ट्वीट कर कहा कि 2010 में राज्यसभा में महिला आरक्षण का बिल पास किया गया था. यह लोकसभा में पास नहीं हो सका था और बिल अभी भी लैप्स नहीं हुआ है. बीजेपी सरकार इसे पेश कर महिलाओं की भागीदारी संसद में सुनिश्चित करें.


कांग्रेस प्रवक्ता अलका लांबा ने कहा कि बीजेपी की पूर्ण बहुमत की सरकार है और लोकसभा में पार्टी के पास स्पष्ट बहुमत है. बीजेपी को बताना चाहिए कि बिल पास करेगी या नहीं? महिला आरक्षण पर शुरू हुई फिर से राजनीति पर बीजेपी ने चुप्पी साध ली है.


विपक्षी पार्टियों ने सरकार से मांग की है कि संसद के बजट सत्र में फिर से महिला आरक्षण बिल लाया जाए. टीआरस नेता कविता राव ने कहा कि प्रधानमंत्री ने 2014 में इसे लागू करने की बात कही थी, लेकिन 9 साल बाद भी बीजेपी इसे संसद में पेश नहीं कर पाई है.


महिला आरक्षण की मांग क्या है?


1996 में पहली बार एचडी देवगौड़ा की सरकार संसद और विधानसभाओं में महिलाओं को आरक्षण देने का ऐलान किया. इसके तहत एक तिहाई यानी 33 फीसदी सीटें आधी आबादी के लिए आरक्षित की जानी थी, लेकिन देवगौड़ा सरकार ही चली गई.


2010 में मनमोहन सिंह की सरकार ने इस बिल को संशोधित कर राज्यसभा से पास करवा लिया, लेकिन लोकसभा में बहुमत नहीं होने की वजह से सरकार फंस गई. बिल में कहा गया कि यह बिल लोकसभा और सभी राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिये 33% सीटें आरक्षित करता है.


साथ ही महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों को राज्य या केंद्रशासित प्रदेश के अलग-अलग निर्वाचन क्षेत्रों में चक्रीय आधार पर आवंटित किया जा सकता है. कानून लागू होने के 15 साल बाद यह आरक्षण अपने आप खत्म हो जाएगा.


महिला आरक्षण की मांग फिर क्यों तेज?


1. आधा आबादी की हिस्सेदारी 15 फीसदी से भी कम- लोकसभा में 543 में से महिला सांसदों की संख्या 78 है. फीसदी में देखा जाए तो 14 प्रतिशत. राज्यसभा में 250 में से 32 सांसद ही महिला हैं यानी 11 फीसदी. मोदी कैबिनेट में महिलाओं की हिस्सेदारी 5 फीसदी के आसपास है.


विधानसभाओं में महिलाओं की भागीदारी का हाल और भी बुरा है. दिसंबर 2022 में संसद में कानून मंत्री किरेन रिजीजू ने महिलाओं की हिस्सेदारी को लेकर एक डेटा पेश किया.


इसके मुताबिक आंध्र प्रदेश, असम, गोवा, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, केरल, कर्नाटक और मध्य प्रदेश समेत 1वही9 राज्यों में महिला विधायकों की संख्या 10 फीसदी से भी कम है. इन राज्यों में लोकसभा की 200 से अधिक सीटें हैं.


वहीं बिहार, यूपी, हरियाणा, राजस्थान, झारखंड, पश्चिम बंगाल और दिल्ली में महिला विधायकों की संख्या 10 फीसदी से अधिक लेकिन 15 फीसदी से कम है. 


2. 12 राज्यों की वोटिंग में महिलाओं का दबदबा- संसद और विधानसभाओं में महिलाओं की भागीदारी भले 15 फीसदी से कम हो, लेकिन 12 राज्यों में वोट देने में पुरुष मुकाबले महिलाएं काफी आगे है.


चुनाव आयोग के आंकड़े भी इस बात की तस्दीक करते हैं. 2019 के लोकसभा चुनाव में तमिलनाडु, अरुणाचल प्रदेश, गोवा, उत्तराखंड समेत 12 राज्यों में महिलाओं वोटरों ने अधिक मतदान किया. बिहार, ओडिशा और कर्नाटक में दोनों के मतदान करीब-करीब बराबर पड़े.


इन राज्यों में लोकसभा की कुल 200 से अधिक सीटें हैं, जिस में बीजेपी का ही दबदबा है. तमिलनाडु और ओडिशा जैसे राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों को महिलाओं का वोट मिलता है. हाल के यूपी और बंगाल चुनाव में महिलाओं को फोकस कर पार्टियों ने अलग मेनिफेस्टो जारी किया था. 


3. सुप्रीम कोर्ट में भी सुनवाई पेंडिंग- महिला आरक्षण को लेकर नेशनल फेडरेशन ऑफ इंडियन वूमेन ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की है. नवंबर में इस याचिका पर सुनवाई हुई थी कोर्ट ने केंद्र सरकार से जवाब दाखिल करने के लिए कहा था.


इस याचिका पर मार्च के अंतिम हफ्ते में सुनवाई होनी है. सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान जस्टिस संजीव खन्ना और जस्टिस जे के माहेश्वरी ने याचिका को काफी महत्वपूर्ण बताया था. याचिकाकर्ताओं की ओर से वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण दलील रख रहे हैं. 


याचिका में कहा गया है कि महिला बिल को लोकसभा में पेश न करना मनमाना, अवैध है और यह भेदभाव की ओर ले जा रहा है. इस बिल का कांग्रेस और बीजेपी समेत अधिकांश पार्टियों ने समर्थन किया है, फिर भी इसे पेश न कर पाना समझ से परे है.


4. लोकसभा की 73 सीटों पर महिला वोटर्स अधिक- लोकसभा की कुल 73 सीटें ऐसी है, जहां पुरुषों के मुकाबले महिला वोटरों की संख्या अधिक है. इनमें आंध्र प्रदेश की 19, बिहार की 10, केरल की 10, तमिलनाडु की 16 और पश्चिम बंगाल की 1 सीटें शामिल हैं.


हालांकि, इनमें अधिकांश सीटों पर पुरुष सांसद ही जीते हैं. 2019 के चुनाव में बीजू जनता दल और तृणमूल कांग्रेस ने महिलाओं को 33 फीसदी टिकट दिया था.


महिला आरक्षण पर 2 चर्चित बयान...
हम बैठे-बैठे सिर नहीं धुनते हैं. बीजेपी महिला आरक्षण के पक्ष में है और पार्टी ने संगठन में भी आरक्षण देने की घोषणा की है. आरक्षण पर कांग्रेस क्रेडिट की राजनीति करती है.
-(2008 में बीजेपी नेता सुषमा स्वराज)


राजीव गांधी जी ने पंचायती राज में महिलाओं को आरक्षण देने के लिए पहली बार बिल पेश किया था. मुझे मोदी सरकार से उम्मीद है कि राज्यसभा में पास महिला आरक्षण को लोकसभा में भी पास कराएंगे.
-(2018 में कांग्रेस नेता सोनिया गांधी)


लालू-मुलायम और शरद यादव ने किया था विरोध
2010 में महिला आरक्षण को सपा संस्थापक मुलायम सिंह यादव, राजद सुप्रीमो लालू यादव और समाजवादी नेता शरद यादव ने विरोध किया था. इन नेताओं की दलील थी कि आरक्षण का वर्तमान मसौदा गलत है और इससे सिर्फ अगड़ी जातियों को लाभ मिलेगा.


2010 में राज्यसभा में बिल पेश होने के बाद इन दलों ने जमकर विरोध किया था, जिसके बाद राजद और सपा के सांसदों को सदन से बाहर कर दिया गया था. इस बिल के विरोध में बसपा भी उतर आई थी और सदन से वॉकआउट कर दी थी.


अब राजनीतिक हालात बदल गए हैं और बिल के समर्थन में राजद और सपा दोनों उतर आई है. सपा नेता पूजा शुक्ला कविता राव के साथ जंतर-मंतर पर भी नजर आईं और बिल का समर्थन देने का ऐलान किया.


18 दल सपोर्ट में फिर क्यों लटका महिला आरक्षण बिल?
कांग्रेस, बीजेपी, राजद, सपा और आप समेत 18 दल महिला आरक्षण के सपोर्ट में बोल चुके हैं. राज्यसभा से एक बार बिल पास भी हो चुका है. ऐसे में सवाल उठ रहा है कि फिर भी पिछले 27 सालों से यह बिल क्यों लटका हुआ है?


इस स्टोरी में विस्तार से इसकी पड़ताल करते हैं...


1. राजनीतिक दलों में क्रेडिट लेने की होड़- बहुमत नहीं होने की वजह से देवगौड़ा सरकार इस बिल को पास नहीं करवा पाई. 1998 और 1999 में बीजेपी ने इसे सदन में पेश किया, लेकिन कांग्रेस की विरोध की वजह से तब भी यह पास नहीं हो सका.


2008 में कांग्रेस ने मनमोहन सिंह की सरकार के वक्त इसे पेश किया, लेकिन सपा और राजद के विरोध की वजह से बिल पास नहीं हो पाया. 2010 में तत्कालीन नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज ने कांग्रेस पर क्रेडिट लेने का आरोप लगाया. 


लोकसभा में बीजेपी से समर्थन नहीं मिलने पर कांग्रेस ने भी यही आरोप लगाया. हाल के वर्षों में जब भी इस बिल की चर्चा शुरू होती है तो कांग्रेस एक्टिव हो जाती है. ऐसे में क्रेडिट की लड़ाई में यह बिल फंस गया है और पिछले 27 सालों से अटका पड़ा है.


2. महिला आरक्षण में जाति कनेक्शन- सपा और राजद की शुरू से मांग रही है कि महिला आरक्षण के भीतर भी कोटा सिस्टम किया जाए. इन पार्टियों का कहना है कि अगर ऐसा नहीं हुआ तो महिला आरक्षण का फायदा सिर्फ अगड़ी जातियों को मिलेगा.


इस मसौदे के लागू होने से पिछड़े और दलित समुदाय से आने वाली महिलाओं को हिस्सेदारी नहीं मिल पाएगी. राजद सांसद मनोज झा ने ट्वीट कर कहा है कि महिलाओं के आरक्षण में दलित और ओबीसी को शामिल कराने की मांग हमारी पुरानी है.


महिला आरक्षण में जाति कनेक्शन होने की वजह से कोई भी पार्टी इस पर रिस्क नहीं लेना चाहता है. उन्हें डर है कि अगर यह बिल पास हुआ तो ओबीसी और दलित वोटों का नुकसान हो सकता है.


3. कानून बनाने वाले पुरुष सांसद, यह भी वजह- महिला आरक्षण अगर लागू होता है तो इसकी चपेट में सबसे पहले वर्तमान में 33 फीसदी पुरुष सांसद ही आएंगे. चूंकि रोस्टर से महिलाओं के लिए संसदीय क्षेत्र फाइनल होना है. 


सांसदों के भीतर यह डर है कि कहीं इस कानून के लागू होने से उनका क्षेत्र ही आरक्षित न हो जाए. इसलिए इस मुद्दे पर सभी पार्टी अधिकांश पुरुष सांसद चुप्पी साधे हुए हैं. लोकसभा और विधानसभा में इस बिल को पास कराने वाले अधिकांश पुरुष सांसद ही हैं.


अब आगे क्या ऑप्शन है?
2024 तक फिर महिला आरक्षण का मुद्दा चर्चा में रहेगा. विपक्ष इसको लेकर बीजेपी सरकार को घेरने की कोशिश करेगी. बीजेपी के पास पूर्ण बहुमत है. ऐसे में पार्टी कोई भी दलील देने की स्थिति में नहीं है. कांग्रेस पहले ही समर्थन देने की बात कह चुकी है.


बजट सत्र या मानसून सत्र में विपक्ष की मांग पर बीजेपी इसे लोकसभा में पेश भी कर सकती है. पार्टी को आने वाले 6 राज्यों के विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव में इसका फायदा भी हो सकता है. पार्टी इस कानून के मसौदे में भी चेंजेज कर सकती है.