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अफगानिस्तान-तालिबान विवाद में इस्लामिक देश किसके पक्ष में खड़े हैं? जानिए

अफगानिस्तान में तेजी से बदलते घटनाक्रम पर दुनिया की नजरें लगी हुई है. राष्ट्रपति अशरफ गनी देश छोड़कर चले गए हैं, तालिबान ने काबुल पर नियंत्रण कर लिया है. बदलते परिवेश में मुस्लिम देशों का रुख क्या है.

पूरी दुनिया की नजर इस वक्त अफगानिस्तान के हालात पर हैं. तख्तापलट के बाद राष्ट्रपति अशरफ गनी ने देश छोड़ दिया है. तालिबान ने राजधानी काबुल पर अपना कब्जा जमा लिया है. काबुल की स्थिति पर मुस्लिम देशों की भी निगाहें टिकी हुई हैं. इस्लामी देशों के संगठन ओआईसी ने चिंता जाहिर करते हुए सभी पक्षों से हिंसा बंद करने की मांग की है. उसने अफगानिस्तान में शांति बहाल करने पर जोर दिया है. ऐसे में सबसे बड़ा सवाल कि अफगानिस्तान और तालिबान के बीच संघर्ष में सऊदी अरब समेत अन्य इस्लामिक देशों का रुख क्या है? कौन किसके पक्ष में खड़ा है और कौन किसका विरोधी है?

अफगान संकट पर मुस्लिम दुनिया का रुख

पाकिस्तान- अफगानिस्तान विवाद में पाकिस्तान को पड़ोसी के तौर पर देखा जाता है. ताजा बयान में विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता जाहिद हफीज चौधरी ने कहा है कि पाकिस्तान अफगानिस्तान की स्थिति पर गहरी नजर बनाए हुए है. उनका कहना है कि पाकिस्तान सियासी समझौते की कोशिशों का समर्थन जारी रखेगा. उन्होंने अंदरुनी सियासी संकट को हल करने के लिए मिल कर काम करने की उम्मीद जताई. रविवार को इस्लामाबाद में अफगान सरकार के प्रतिनिधियों की पाकिस्तानी प्रतिनिधियों से मुलाकात होने जा रही है.  प्रधानमंत्री इमरान खान के मुताबिक, अफगानिस्तान में उनका कोई पसंदीदा नहीं है. पाकिस्तान में 30 लाख अफगान शरणार्थी रहते हैं और दोनों देशों के बीच ढाई हजार किलोमीटर लंबी सीमा है. 

कतर- मुस्लिम दुनिया का छोटा सा देश कतर अफगान विवाद में अहम भूमिका निभा रहा है. तालिबान का सियासी दफ्तर कतर में है. अमेरिकी समर्थक देश कतर ने अपनी जमीन पर तालिबान को अमेरिका से बातचीत के लिए ठिकाना और सियासी सुविधाएं उपलब्ध कराया है. पिछले साल तालिबान के साथ हुए समझौते के तहत ही अमेरिका की अफगानिस्तान से वापसी हो रही है.  

सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात- इस्लामिक दुनिया का सबसे अहम सुन्नी बाहुल्य मुल्क सऊदी अरब अफगानिस्तान के मुद्दे पर खामोश है. सऊदी अरब के अफगानिस्तान और पाकिस्तान दोनों के साथ ऐतिहासिक संबंध रहे हैं. सऊदी अरब ने तालिबान से भी संबंध बना रखा है. हालांकि, 2018 में कतर में तालिबान और अमेरिका के बीच होनेवाली बातचीत शुरू होने के बाद उसने खुद को दूर रखा है. 1980-90 के दशक में रूस के खिलाफ सऊदी अरब ने अफगान मुजाहिदीनों का समर्थन किया था, लेकिन वर्तमान संकट पर खुल कर कुछ नहीं बोल रहा है. यही हाल संयुक्त अरब अमीरात का भी है. उसने अफगान विवाद से दूरी बना रखी है. 

ईरान और तुर्केमिनिस्तान- अफगानिस्तान में तालिबान की बढ़ती ताकत ने शिया बाहुल्य पड़ोसी देश ईरान की चिंता बढ़ा दी है. 1998 में मजारे शरीर में तालिबान ने एक ईरानी पत्रकार समेत आठ ईरानी दूतावास के कर्मचारियों की हत्या कर दी थी. शुक्रवार को जारी बयान में ईरान ने तालिबान से काबुल और हेरात में मौजूद दूतावास के कर्मचारियों की सुरक्षा की गारंटी मांगी है. दूसरी तरफ, तुर्केमिनिस्तान ने तालिबान से संबंध को मजबूत करने की कोशिश की है. सीमा पर तालिबान का नियंत्रण होते ही तुर्केमिनिस्तान ने तालिबान नेताओं को बातचीत के लिए बुलाया था. 

तुर्की- अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी के बाद भी तुर्की ने हामिद करजई अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट की सुरक्षा करने का इरादा जताया है. हालांकि, तुर्की के इरादे का तालिबान समर्थन नहीं करता है और विदेशी फौज की मौजूदगी को कब्जे की तरह देखता है. उसने तुर्की को काबुल एयरपोर्ट पर सेना नहीं भेजने की चेतावनी दी है. गौरतलब है कि तुर्की नाटो गठबंधन का सदस्य है. तुर्की की सेना अफगानिस्तान में मौजूद नहीं रही है, लेकिन उसने अफगानिस्तान में नाटो सैनिकों की कार्रवाई का समर्थन किया है. राष्ट्रपति तैयब इरदुगान ने था, "हमारी नजर में तालिबान का रवैया एक मुसलमान के साथ दूसरे मुसलमान की तरह नहीं है." 

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