China Taiwan Relations: चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग (Xi Jinping) पहले ही कह चुके हैं कि अगर जरूरत पड़ी तो ताइवान (Taiwan) को बलपूर्वक मुख्यभूमि का हिस्सा बनाएंगे. ताइवान को लेकर अमेरिकी (America) रुख से चीन नाराज है और द्वीप के चारों ओर समंदर और आसमान में अब तक की सबसे बड़ी वॉर ड्रिल (PLA War Drill) कर रहा है. वहीं ताइवान ने कह दिया है कि वह चीन के साथ युद्ध नहीं चाहता है लेकिन इसकी तैयारी शुरू कर दी है. आखिर चीन और ताइवान में दुश्मनी क्यों है और अमेरिका उनके मुद्दे में शामिल कैसा हो गया, आइये जानते हैं.
ताइवान और चीन की लड़ाई एक सदी पुरानी है. ताइवान का आधिकारिक नाम रिपब्लिक ऑफ चाइना है जबकि सौ साल पहले चीन वाली मुख्यभूमि को इस नाम से जाना जाता था. 1644 में चीन में चिंग वंश, जिसे क्विंग वंश भी कहा जाता है, वह राज करता था और उसने चीन का एकीकरण किया था. चीन में 1911 में चिन्हाय क्रांति हुई थी, इसके चलते चिंग वंश सत्ता से बेदखल हो गया. इसके बाद राष्ट्रवादी क्यूओमिनटैंग पार्टी, जिसे कॉमिंगतांग पार्टी भी कहा जाता है और कम्युनिस्ट पार्टी अस्तित्व में आईं. दोनों में संघर्ष हुआ. लोकतंत्र की वकालत करने वाली कॉमिंगतांग पार्टी की सरकार बन गई. इसी के शासन काल में चीन का आधिकारिक नाम रिपब्लिक ऑफ चाइना पड़ गया.
क्यों नहीं थमता विवाद
1949 में माओत्से तुंग के नेतृत्व में कम्युनिस्टों ने कॉमिंगतांग सरकार के खिलाफ विद्रोह किया, नतीजतन चीन में गृह युद्ध छिड़ गया. लंबे चले गृहयुद्ध में कॉमिंगतांग लोगों की हार हुई और बचे हुए लोग ताइवान वाले हिस्से में जाकर बस गए. वहां उन्होंने अपनी सरकार बना ली और द्वीप का आधिकारिक नाम रिपब्लिक ऑफ चाइना रख दिया. उधर जीते हुए कम्युनिस्टों ने मुख्यभूमि का नाम पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना के रख दिया. लड़ाई यही है दोनों ही तरफ के लोग पूरे चीन पर प्रतिनिधित्व का दावा करते हैं. ताइवान को लगता है कि एक दिन पूरा चीन उसका होगा. वहीं, चीन ताइवान को मुख्यभूमि का हिस्सा बनाना चाहता है. चूकि क्षेत्रफल और ताकत और संसाधनों में ताइवान उसके आगे टिकता नहीं है तो वह अपनी मनमानी दिखाता है. इसी के चलते उसने वन चाइना पॉलिसी बनाई. जिसके अंतर्गत अगर किसी देश को चीन से राजनयिक संबंध स्थापित करने हैं तो ताइवान से संबंध तोड़ने पड़ते हैं.
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अमेरिका ऐसे हुआ शामिल
मजे की बात यह है कि एक बड़े हिस्से में कम्युनिस्टों का कब्जा होने के बाद भी दशकों तक अमेरिका ने पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना को मान्यता नहीं दी थी और ताइवान के साथ अपने संबंध रखे हुए थे. 1950 में कम्युनिस्ट बलों ने ताइवान के कुछ बाहरी इलाकों में हमला किया था, इसे देखते हुए अमेरिका ने ताइवान की मदद के लिए जहाज भेजे थे लेकिन 1976 में माओ की मौत के बाद सब बदल गया. समाज सुधारक कहे जाने वाले डेंग जिआओपिंग ने जब चीन की कमान संभाली दुनिया के सामने खुलकर अपने विचार रखे तो अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने बीजिंग के साथ संबंध सामान्य करने पर राजी हो गए और 1979 में दोनों देशों के बीच एक समझौता हुआ. इस समझौते के मुताबिक, कार्टर प्रशासन वन चाइन पॉलिसी मानने को सहमत हो गया, जिसका हिस्सा ताइवान भी था. कार्टर के फैसले पर अमेरिकी कांग्रेस ने एक कानून पास किया, जिसमें कहा गया कि अमेरिका ताइवान को खुद की रक्षा करने के लिए हथियारों की सप्लाई करेगा. तब से किसी न किसी बहाने अमेरिका ताइवान से अनौपचारिक संबंध बनाए रखता है जो चीन के लिए किरकिरी का काम करता है.
ताजा विवाद क्या है?
अमेरिकी हाउस स्पीकर नैंसी पेलोसी ने ताइवान की यात्रा की तो चीन भड़क गया. उनकी यात्रा से पहले ही वह अमेरिका को अंजाम भुगतने के लिए चेता रहा था. नैंसी पेलोसी वर्षों से मानवाधिकारों के उल्लंघन को लेकर चीन को घेरती आ रही हैं. कई बार वह चीन के खिलाफ बयान दे चुकी हैं. वहीं, ताइवान में उसे किसी भी देश की दखलंदाजी बर्दाश्त नहीं है. यही वजह है कि चीन तल्ख तेवर दिखा रहा है. परिणामस्वरूप चीन ताइवान के चारों ओर समंदर और आसमान में अब तक का सबसे बड़ा युद्धाभ्यास कर रहा है.
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