India China Conflict: भारतीय सॉलिसिटर सरोश जायवाला का दावा- 'चीन 2001 में भारत से सीमा विवाद सुलझाने के लिए तैयार था'
India China Conflict: सरोश जायवाला ने कहा, भारत के लिए किसी भी क्षेत्र से पीछे हटना भारतीय लोगों के लिए स्वीकार्य नहीं होगा, खासकर 1962 के सीमा युद्ध के बाद.
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India China Conflict: लंदन में ब्रिटिश भारतीय सॉलिसिटर सरोश जायवाला (Sarosh Zaiwalla) ने भारत और चीन के बीच चल रहे लंबे समय से सीमा विवाद पर बड़ा दावा किया है. सरोश जायवाला ने कहा है कि "चीनी सरकार 2001 में दोनों देशों के बीच लंबे समय से चले आ रहे सीमा मुद्दे पर पर्दे के पीछे की बातचीत में भारत की मांगों पर 'खुले दिमाग' से चर्चा करने को तैयार थी."
ब्रिटिश भारतीय सॉलिसिटर ने अपने संस्मरण ऑनर बाउंड (Honor Bound) में लिखा, "सीमा विवाद को सुलझाने के लिए एक वरिष्ठ स्तर पर एक व्यावहारिक समाधान खोजने के लिए चीन और भारत के राजनीतिक नेताओं के बीच एक दूसरे- चैनल, गोपनीय बैठक की स्थापना इसका उद्देश्य था."
भारत ने अवसर खोया!
जायवाला अरुणाचल प्रदेश के तवांग में भारतीय और चीनी सैनिकों के बीच हालिया लड़ाई के संदर्भ में खोए हुए अवसर के रूप में लोगों को याद दिलाना चाहते हैं. वह कहते हैं कि उन्हें किस बात का पछतावा है. उन्होंने आगे कहा कि ब्रिटेन में तत्कालीन चीनी राजदूत मा झेंगंग ने उनके साथ इस विषय पर एक नोट पर काम किया था, जिसे जायवाला ने भारत सरकार को भेज दिया था. लेकिन उस पर कभी पलटकर जवाब देते नहीं सुना.
मेनका गांधी और जसवंत सिंह का जिक्र
उन्होंने कहा कि मैंने राजदूत के साथ जो नोट तैयार किया था वह मेनका गांधी को दिया, जिन्होंने मुझे पुष्टि की थी कि उन्होंने इसे जसवंत सिंह को दे दिया था (मेनका उस वक्त मेरी मुवक्किल थीं और वाजपेयी सरकार में मंत्री रह चुकी थीं). उन्होंने अपनी किताब में लिखा है- कुछ महीने बाद जब मैं लंदन के वॉशिंगटन होटल में एक कार्यक्रम में जसवंत सिंह से मिला, तो उन्होंने मुझसे रूखेपन से कहा था कि मैंने आपका नोट अपने विभाग को विचार करने के लिए दे दिया है.
तो भारत-चीन विवाद सुलझ सकता था!
सरोश जायवाला ने आगे कहा, "अगर भारत सरकार ने इसे गंभीरता से लिया होता, तो चीन को जवाब देना पड़ता और वह इस मामले को सुलझा सकते थे. चीन उन दिनों आर्थिक विकास पर ध्यान देता था, न कि सैन्य शक्ति पर." जायवाला ने याद किया कि राजदूत मा ने बातचीत में संकेत दिया: हम चाहते हैं कि दोनों देशों के बीच एक उचित सीमा रेखा खींची जाए. चीन तिब्बत की मूल सीमा को भारत की सीमा बनाना चाहता है. ब्रिटिश राज द्वारा तिब्बत और भारत के बीच सीमा के रूप में खींची गई रेखा को उचित सीमा नहीं माना जा सकता है.
भारतीय लोगों के लिए किसी भी क्षेत्र से पीछे हटना स्वीकार्य
इस पर जायवाला ने जवाब दिया था: भारत के लिए किसी भी क्षेत्र से पीछे हटना भारतीय लोगों के लिए स्वीकार्य नहीं होगा, खासकर 1962 के सीमा युद्ध के बाद. वकील ने दावा किया कि वह राजनयिक के ध्यान में ले आए कि तथ्य यह है कि जिस समय (हेनरी) मैकमोहन (ब्रिटिश शासित भारत के तत्कालीन विदेश सचिव) द्वारा खींची गई सीमा पर तिब्बत और भारत द्वारा सहमति व्यक्त की गई थी, उस समय तिब्बत की सरकार थी. इसलिए, सीमा के स्थान की तिब्बत और भारत द्वारा कानूनी और बाध्यकारी स्वीकृति थी.
मैकमोहन ने 1914 में हस्ताक्षर किए
उन्होंने कहा कि यह बदले में चीन पर बाध्यकारी होगा. मैकमोहन ने 1914 में शिमला में तिब्बती सरकार के एक अधिकारी लोन्चेन सतरा के साथ समझौते पर हस्ताक्षर किए. चीन त्रिपक्षीय सम्मेलन का एक पक्ष था, लेकिन अंतत: संधि पर हस्ताक्षर नहीं किया. बीजिंग का दावा कि तिब्बत एक संप्रभु देश नहीं था और इस प्रकार उसके पास अंतर्राष्ट्रीय समझौते करने का अधिकार नहीं था.
चीन अपने क्षेत्र से भारत को रास्ता दे...
चीन, भारत-तिब्बत समझौते पर राजी हुआ या नहीं, यह बहस का विषय है, लेकिन चालाकी से उसने कागज पर कलम नहीं चलाई. जायवाला ने कहा: राजदूत ने स्वीकार किया कि इन सभी बिंदुओं पर चर्चा की जा सकती है. जायवाला ने खुलासा किया कि उन्होंने चीनी राजदूत को सुझाव दिया था कि चीन को अपने क्षेत्र के माध्यम से भारत को एक कॉरिडोर पट्टे पर देना चाहिए ताकि भारतीय तीर्थयात्री मानसरोवर और कैलाश में हिंदू तीर्थ स्थलों की यात्रा कर सकें.
जायवाला की यादों से- राजदूत ने संकेत दिया कि भारत द्वारा हिमालय के पहाड़ों में अपने कुछ क्षेत्रों को सौंपने के बदले में इस पर चर्चा की जा सकती है, जहां कोई नहीं रहता और किसी भी खनिज भंडार का कोई सबूत नहीं था.
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