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अफगानिस्तान पर विदेश नीति में ‘पश्तून राष्ट्रवाद’  को शामिल करे भारत - भारत के पूर्व राजदूत

किर्गिजिस्तान में भारत के पूर्व राजदूत फुनचोक शतोब्दन का कहना है कि भारत को अफगान विदेश नीति में ‘पश्तून राष्ट्रवाद’ के तत्व का समावेश करना चाहिए . ‘डूरंड रेखा’ से जुड़े आयाम को प्रमुखता देनी होगी. 

नई दिल्लीः तालिबान के कब्जे के बाद अफगानिस्तान में संशय, भय, असुरक्षा और अफरातफरी की स्थिति है, जिसके चलते कई देश अपने राजनयिकों और नागरिकों को अफगानिस्तान से निकालने में जुटे हैं. इसके साथ ही तालिबान की वापसी को दुनिया, खास तौर पर दक्षिण एशिया की भू-राजनीति में बड़े बदलाव के घटनाक्रम के रूप में देखा जा रहा है. अफगानिस्तान में बीते दो दशकों में किये गये विकास कार्यों और भारी निवेश के बीच भारत के लिए अब स्थिति अधिक मुश्किल होती दिख रही है .

अफगानिस्तान की वर्तमान स्थिति पर पेश है किर्गिजिस्तान में भारत के पूर्व राजदूत एवं सामरिक मामलों के विशेषज्ञ फुनचोक शतोब्दन से कुछ सवाल और उनके जवाब.

सवाल : अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे को लेकर आपकी क्या सोच है ?

जवाब : अफगानिस्तान में तालिबान की सत्ता आने के साथ ही दुनिया, खास तौर पर दक्षिण एशिया की भू-राजनीति में बड़ा बदलाव आ गया है. भारत के लिए भी अब स्थिति अधिक मुश्किल हो गई है. अमेरिका का जाना और तालिबान का आना अचानक ही नहीं हुआ है, इसकी तैयारी पिछले पांच वर्षों से चल रही थी. अशरफ गनी का सत्ता में आना भी अमेरिका की अफगानिस्तान से बाहर निकलने की रणनीति का ही हिस्सा माना जाता है.

पाकिस्तान के अंदर ऐसी समझ थी कि तालिबान को खत्म करने के बजाय उसका इस्तेमाल किया जाए. पाकिस्तान ने तालिबान को मजबूत औजार के रूप में इस्तेमाल किया और शायद चीन का पाकिस्तान को परोक्ष साथ मिलता रहा क्योंकि चीन की नजर अफगानिस्तान के खनिजों पर रही है और वह चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे का विस्तार भी इस देश से करना चाहता है.

सवाल : नई परिस्थिति में अफगानिस्तान में भारत के लिये कैसी चुनौती है और मध्य एशिया की उसकी नीति पर क्या प्रभाव पड़ेगा ?

जवाब : अफगानिस्तान में भारत कभी भी बड़ा खिलाड़ी नहीं रहा है, लेकिन दक्षिण एशिया के पूरे क्षेत्र में सुरक्षा और सांस्कृतिक संबंधों को आगे बढ़ाने में उसकी हमेशा से अहम भूमिका रही है.पाकिस्तान ने तालिबान के जरिये अफगानिस्तान में अपना दखल मजबूत किया है और उसकी मदद से चीन आर्थिक एवं सामरिक रूप से अफगानिस्तान में अपना प्रभाव बढ़ाना चाहता है. इस परिदृश्य में भारत अभी अफगानिस्तान के ‘खेल’ से एक तरह से बाहर है. इसका परिणाम चाबहार परियोजना से लेकर मध्य एशिया तक सम्पर्क सड़क योजना पर, आने वाले दिनों में देखने को मिल सकता है.

भारत के लिए सबसे बड़ी चुनौती यह होगी कि वह तालिबान की सरकार बनने पर उसे मान्यता दे या नहीं. अगर रूस और चीन तालिबान को मान्यता देने पर राजी हो जाते हैं, तो भारत के लिए स्थिति बेहद मुश्किल हो सकती है. हमें यह समझना होगा कि अब तालिबान का काबुल पर कब्जा हो गया है और मानवाधिकार, महिलाओं के अधिकारों की बात पर जोर देने के अलावा दुनिया के किसी भी देश ने उसका मुखर विरोध नहीं किया है. ऐसे में भारत के पास दो रास्ते हैं - या तो भारत अफगानिस्तान में बना रहे या फिर सब कुछ बंद करके 90 के दशक वाली भूमिका में आ जाए. भारत दूसरा रास्ता अपनाता है तो पिछले दो दशक में जो कुछ वहां भारत ने निवेश किया है वह सब खत्म हो जाएगा.

सवाल : अफगानिस्तान को लेकर विदेश नीति के स्तर पर क्या कमियां रहीं और आगे क्या करने की जरूरत है ?

जवाब : साल 1996 तक अफगानिस्तान को लेकर भारत की नीति यह थी कि काबुल पर जिसका शासन होता था, वह उसे मानता था. लेकिन 1996 में तालिबान के सत्ता में आने पर भारत ने उसे मान्यता नहीं दी और यहां से विदेश नीति के स्तर पर बदलाव आ गया. अफगानिस्तान को लेकर भारत की विदेश नीति ‘पाकिस्तान केंद्रित’ हो गई. अफगानिस्तान में तालिबान ने जिस तेजी से कब्जा किया, उसका हम अंदाजा ही नहीं लगा सके.

सम्राट अशोक से शुरू करें तो अफगानिस्तान पर यूनान, तुर्क, मंगोल, मुगल, ब्रिटिश ने शासन किया और बाद में सोवियत संघ, अमेरिका का भी दखल रहा. इन अनुभवों के आधार पर भारत को अपनी विदेश नीति में ‘पश्तून राष्ट्रवाद’ के तत्व का व्यापक समावेश करना होगा और ‘डूरंड रेखा’ से जुड़े आयाम को प्रमुखता देनी होगी. भारत को पूरा निवेश ‘पश्तून राष्ट्रवाद’ पर करना चाहिए.

1893 में अफगान अमीर अब्दुर रहमान खान और ब्रिटिश सरकार के बीच सीमा निर्धारण के जिस समझौते पर दस्तखत किए गए थे, उसकी अवधि सौ बरस थी. इस रेखा को डूरंड रेखा के रूप में जाना जाता है. ऐसे में यह समझौता 1992-93 में खत्म हो गया. इस विवादित सीमा की वजह से, सांस्कृतिक रूप से एक कहे जाने वाले पश्तून और बलूच समुदाय को अफगानिस्तान और पाकिस्तान में बंट कर रहना पड़ रहा है. अफगानिस्तान इस सीमा को नहीं मानता. इसे देखते हुए ही पाकिस्तान ने 1992-93 में मिशन तालिबान पर काम शुरू किया था ताकि डूरंड रेखा विवाद पर अफगानिस्तान के लोगों का ध्यान न जाए.

सवाल : आने वाले दिनों में तालिबान विरोधी नॉदर्न अलायंस की क्या भूमिका हो सकती है और क्या यह तालिबान की बढ़त पर अंकुश लगा पायेगा ?

जवाब : मेरे विचार से नॉदर्न अलायंस की भूमिका सीमित ही रह सकती है. ऐसा इसलिये क्योंकि उन्हें सामरिक सहयोग एवं हथियारों को लेकर दूसरे देशों की मदद चाहिए. ताजिकिस्तान से शायद नॉर्दन अलायंस को कुछ मदद मिल सकती है. उज्बेकिस्तान के तालिबान से सामान्य संबंध बताये जाते हैं. तुर्कमेनिस्तान का झुकाव इस मामले में किसी पक्ष की ओर नहीं है. रूस और चीन तालिबान से सम्पर्क बनाये हुए हैं. जहां तक भारत की बात है, भौगोलिक रूप से वह नॉर्दन अलायंस की प्रत्यक्ष मदद करने की स्थिति में नहीं है.

सवाल : अफगानिस्तान में भारत के लिये आगे का रास्ता क्या है ?

जवाब : हमें यह समझना होगा कि हक्कानी नेटवर्क, मुल्ला उमर के बेटे के गुट सहित तालिबान के अंदर भी कई धड़े हैं और इलाकों को लेकर इनके बीच भी संघर्ष की स्थिति है. हाल में तालिबान से भारत के बात करने संबंधी चर्चा भी थी. दूसरी ओर तालिबान के काबुल पर कब्जा कर लेने से सब कुछ नकारात्मक हो गया है, ऐसी बात भी नहीं है. अभी अफगानिस्तान में कई देश ‘राजनीतिक खेल’ खेल रहे हैं और भारत को अपने हितों को ध्यान में रखते हुए कुशलतापूर्वक खेलना चाहिए. एक ओर पश्तून राष्ट्रवाद को आगे बढ़ायें तो दूसरी ओर अमिताभ बच्चन, स्मृति ईरानी जैसे कलाकारों को सांस्कृतिक मोर्चे पर लगाएं जिनकी फिल्में और धारावाहिक वहां काफी लोकप्रिय रहे हैं.


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