Israel Hamas War: अब तक की सबसे बड़ी तबाही झेल रहे इजरायल ने हमास को पूरी तरह से खत्म करने की कसम खाई है. इसकी वजह से जितनी तबाही इजरायल में हो रही है, उससे भी ज्यादा तबाही फलस्तीन की गाजा पट्टी में हो रही है. इस पूरी तबाही-बर्बादी के लिए जिम्मेदार जो हमास है, वो फलस्तीन की नहीं बल्कि इजरायल की देन है.


ये सच है कि हमास को बनाने वाला कोई और नहीं बल्कि इजरायल और उसकी खुफिया एजेंसी मोसाद हैं, जिन्होंने फलस्तीन पर कब्जा करने और यासिर अराफात के बनाए फलस्तीन लिब्रेशन ऑर्गनाइजेशन को पूरी तरह बर्बाद करने के लिए हमास को पैसे से लेकर हथियार तक मुहैया करवाए थे, लेकिन अब वही हमास पूरे इजरायल और मोसाद के लिए नासूर बन गया है.


ये ठीक वैसा ही है, जैसा कभी अमेरिका के साथ हुआ था, जिसने अफगानिस्तान पर कब्जे के मकसद से तालिबान बनाया, उसे पैसे दिए, हथियार दिए और फिर उसी तालिबान ने अफगानिस्तान में ही अमेरिका को ऐसे नाकों चने चबवाए कि अमेरिका को वियतनाम वॉर से भी बड़ा नुकसान झेलकर चुपचाप अफगानिस्तान से बाहर निकलना पड़ा.


इजरायल-फलस्तीन की लड़ाई


इजरायल और फलस्तीन के बीच की लड़ाई तब की है, जब दुनिया ने हमास का नाम भी नहीं सुना था. ये लड़ाई है तब की जब लगभग पूरी दुनिया पर अंग्रेजों की हुकूमत थी, लेकिन दूसरे विश्वयुद्ध ने दुनिया का नक्शा ही बदल दिया.


जब लड़ाई खत्म हुई तो अरब लोगों को अंग्रेजी शासन से मुक्ति मिल गई. उन्हें अपने लिए नया देश चाहिए था. वहीं दुनिया में यहूदियों पर भी अत्याचार हुए थे. तो उन्हें भी देश चाहिए था ताकि वो शांति से रह सकें. मुसीबत तब शुरू हुई, जब दोनों ही समुदायों यानी कि मुस्लिमों और यहूदियों ने ब्रिटेन से आजाद हुए जमीन के उस बड़े टुकड़े को अपने देश के तौर पर बनाना शुरू किया.


मुस्लिम-यहूदियों के बीच शुरू हुई लड़ाई


यहीं से मुस्लिमों और यहूदियों के बीच बड़ा झगड़ा शुरू हो गया. तब तक दुनिया के देशों के बीच शांति स्थापित करने के लिए यूनाइटेड नेशंस बन चुका था. उसने 1947 में प्रस्ताव दिया कि जमीन के उस बड़े टुकड़े को दो हिस्सों में बांट दिया जाए. 14 मई,1948 को यूएन की पहल पर बंटवारा हो गया और एक नया देश इजरायल बना, जो यहूदियों का देश बना.


दुनिया का इकलौता यहूदी मुल्क. जो गैर यहूदी थे, वो दूसरे टुकड़े की तरफ आ गए. उनकी आबादी थी करीब 13 लाख. उसे फलस्तीन कहा गया. ये दो हिस्सों में बंटा था गाजा पट्टी और वेस्ट बैंक, जिसे नक्शे में आप साफ तौर पर देख सकते हैं.


दोनों धर्मों के लोगों को अपना-अपना देश मिल गया था, लेकिन दोनों में से कोई भी अपने देश के बंटवारे के लिए तैयार नहीं था. वहीं अभी तक जो ब्रिटेन इस पूरे इलाके का बादशाह था, वो धीरे से अपना बोरिया-बिस्तर समेटकर निकल चुका था.


नतीजा ये हुआ कि इनकी लड़ाई को रोकने वाला वहां कोई बचा नहीं था. मौके की नजाकत को देखते हुए अरब के कई देश जैसे कि इजिप्ट, जॉर्डन, इराक और सीरिया ने मिलकर फलस्तीन का समर्थन कर दिया और फलस्तीन का साथ देने के लिए अपनी सेना भेज दी.


जिस दिन इजरायल बना था यानी कि जिस 14 मई, 1948 को वो दुनिया के नक्शे पर नए देश के तौर पर उभरा था, उसी दिन उसपर हमला हो गया. इस संयुक्त हमले के लिए इजरायल शुरूआत में तैयार नहीं था, उसे खासा नुकसान उठाना पड़ा. 


अमेरिका ने की इजरायल की मदद


हालांकि अमेरिका ने इजरायल की मदद की. अमेरिकी से मदद पाकर इजरायल इतना ताकतवर हो गया कि उसने अरब देशों के पूरे समूह को ही इस जंग में मात दे दी. 14 मई 1948 को शुरू हुई इस जंग को पहला अरब इजरायल युद्ध कहा जाता है. युद्ध के खात्मे तक इजरायल ने संयुक्त राष्ट्र के बनाए फलस्तीन की करीब 60 फीसदी जमीन पर अपना कब्जा कर लिया.


करीब 7 लाख फलस्तीनियों को अपना घर-बार छोड़कर भागना पड़ा, क्योंकि अब उनकी जमीन पर फलस्तीन नहीं बल्कि इजरायल का कब्जा था. फलस्तीनी लोगों के इस विस्थापन को इतिहास की किताबों में नकबा या फलस्तीनियन कटैस्ट्रफी कहा जाता है.


जंग खत्म होने समझौता हुआ


1949 में जब ये जंग खत्म हुई तो एक समझौता हुआ. इसे कहा जाता है आर्मिस्टीस एग्रीमेंट. इसमें इजरायल ने इजिप्ट, लेबनान, जॉर्डन, सीरिया और इराक के साथ समझौता किया.


मोटे तौर पर इस समझौते को ऐसे समझिए कि फलस्तीन के वेस्ट बैंक पर जॉर्डन का कब्जा हुआ और गाजा पट्टी पर इजिप्ट का. इजरायल ने जीते हुए कुछ हिस्सों पर अपना कब्जा छोड़ दिया और पीछे हटने को तैयार हो गया. इस जंग के खात्मे के बाद 1956 तक स्थितियां कमोबेश ऐसी ही रहीं.


1956 में स्थितियां बदली


इजरायल और फलस्तीन आपस में लड़ते रहे, लेकिन लड़ाई इतनी बड़ी नहीं हुई कि अरब के दूसरे देशों को फलस्तीन का साथ देना पड़े, लेकिन 1956 में स्थितियां बदल गईं. तब स्वेज नहर पूरी दुनिया के व्यापारिक जहाजों के लिए बड़ा रास्ता हुआ करती थी और स्वेज नहर का कंट्रोल स्वेज कनाल कंपनी के पास था, जो फ्रांस की थी इसमें ब्रिटेन का भी शेयर था.


हालांकि ये नहर इजिप्ट में थी. इजिप्ट के तत्कालीन राष्ट्रपति गमाल अब्देल नसर ने स्वेज नहर का राष्ट्रीयकरण कर दिया और स्वेज नहर का पूरा कंट्रोल इजिप्ट के पास आ गया. इस वजह से इजरायल को स्वेज से जोड़ने वाला स्ट्रेट्स ऑफ टिरान भी बंद हो गया.


फलस्तीन में गाजा पट्टी किया था हमला


स्वेज नहर के पूरे रास्ते पर अपना नियंत्रण हासिल करने के लिए इजरायल ने इजिप्ट के सिनाई पर हमले के साथ ही फलस्तीन में गाजा पट्टी पर भी हमला कर दिया, जो आर्मिस्टीस एग्रीमेंट के तहत इजिप्ट के ही पास था. ब्रिटेन और फ्रांस ने दोनों देशों से सीज फायर करने को कहा, लेकिन इस बीच ब्रिटेन और फ्रांस दोनों के ही पैराट्रूपर्स स्वेज नहर पर उतर गए.


इजिप्ट को जब लगा कि उसकी हार तय है तो उसने एक साथ 40 जहाज नहर में डुबा दिए ताकि पूरा रास्ता ही बंद हो जाए. करीब छह महीने तक स्वेज नहर बंद रही.  यूनाइटेड नेशंस को दखल देना पड़ा. इमरजेंसी फोर्स भेजनी पड़ी.


अमेरिका और सोवियत संघ ने भी दखल दिया और तब जाकर मुसीबत खत्म हुई. स्वेज नहर फिर से शुरू हो पाई और इजरायल के लिए स्ट्रेट्स ऑफ टिरान के भी रास्ते खुल गए. लेकिन इस दरम्यान इजिप्ट और इजरायल जंग लड़ चुके थे. इसे दूसरा अरब इजरायल युद्ध कहा जाता है.


इजरायल और अरब देशों के बीच लड़ाई


1967 में अरब देशों और इजरायल के बीच बड़ी और निर्णायक लड़ाई हुई. इसकी भी वजह बना स्ट्रेट्स ऑफ टिरान. मई 1967 में इजिप्ट के राष्ट्रपति गमाल अब्देल नसर ने कहा कि वो इजरायली जहाजों के लिए स्ट्रेट्स ऑफ टिरान को फिर से बंद कर रहे हैं.


इसके लिए इजिप्ट ने अपनी सेना को इजरायल के बॉर्डर पर तैनात कर दिया और कहा कि 1956 में संयुक्त राष्ट्र संघ की जो शांति सेना बॉर्डर पर है, उसे वापस चले जाना चाहिए. नतीजा ये हुआ कि इजरायल ने जंग छेड़ दी. हवाई हमले शुरू कर दिए. इजिप्ट का साथ देने के लिए जॉर्डन औऱ सीरिया भी साथ आ गए.


20 हजार अरब नागरिक मारे गए थे


छह दिन तक चली इस जंग में करीब 20 हजार अरब नागरिक और सेना के जवान मारे गए, जबकि इजरायल को कम नुकसान उठाना पड़ा और उसके करीब 1000 लोग मारे गए. इस जंग की शुरुआत इजरायल ने ही की थी.


हमले के पीछे का तर्क देते हुए इजरायल ने कहा था कि इजिप्ट हमला कर सकता था और उसने अपने बचाव के लिए हवाई हमले शुरू किए. लेकिन जब जंग खत्म हुई तो इजरायल ने इजिप्ट के कब्जे वाले गाजा पट्टी और सिनाई प्रायद्वीप, जॉर्डन से वेस्ट बैंक और येरुशलम और सीरिया से गोलान हाईट्स तक जीत लिया.


यहीं से सारी मुसीबत शुरू हुई. क्योंकि इजरायल ने सीरिया, जॉर्डन और इजिप्ट के कब्जे वाले जिन हिस्सों पर अपना कब्जा किया था, वो सब फलस्तीन का ही था और वहां पर बड़ी आबादी मुस्लिमों की थी. लेकिन अब शासन चूंकि इजरायल के हाथ में था, तो उसने एक कोशिश की शासन चलाने की.


इस मुस्लिम नेता को बनाया गया मोहरा


इसके लिए उसने फलस्तीन में मुस्लिम ब्रदरहुड के नेता शेख अहमद यासीन को मोहरा बनाया. मुस्लिम ब्रदरहुड इजिप्ट में बना एक सुन्नी इस्लामिक संगठन था, जिसकी स्थापना साल 1928 में हुई थी. इसका विस्तार पूरे अरब देशों में था, जहां अलग-अलग लोग इस्लाम के लिए काम कर रहे थे.


फलस्तीन में इस काम की जिम्मेदारी थी शेख अहमद यासीन की. नकबा के दौरान शेख अहमद यासीन भी विस्थापित होकर गाजा पट्टी पहुंचा था. 12 साल की उम्र में एक हादसे में उसे रीढ़ की हड्डी में चोट लगी थी, जिसकी वजह से वो चल-फिर नहीं सकता था, हमेशा वील चेयर पर ही रहता था.


वह आंखों से भी वो देख नहीं पाता था, लेकिन गाजा में लोग उसकी बात सुनते थे. वो एक इस्लामिक स्कॉलर हो गया था जो धार्मिक तकरीरें करता था और फलस्तीन के लोगों की भलाई की बातें किया करता था.


इजरायल ने शेख अहमद यासीन को अपना आदमी बना लिया. अहमद यासीन को खूब पैसे दिए ताकि अहमद यासीन गाजा में स्कूल अस्पताल, मस्जिद बनवा सके और गरीबों की मदद कर सके. ऐसा इसलिए ताकि गाजा पट्टी के फलस्तीनी उसे अपना नेता मान लें और वो खुद इजरायल के इशारे पर चलता रहे, जिससे इजरायल का गाजा पर कब्जा भी रहेगा और शांति भी बनी रहेगी.


चूंकि लड़ाई में जितने पैसे खर्च होते हैं, उससे कम खर्च में ही अहमद यासीन को इजरायल अपने इशारों पर नचा सकता था. ये पूरा प्लान इजरायल की खुफिया एजेंसी मोसाद का था.


इजरायल पर किया गया हमला


तीसरे अरब युद्ध के बाद सब ठीक चल रहा था. इजरायल का गाजा पट्टी पर कब्जा था और उसका अपना आदमी अहमद यासीन मुस्लिमों का रहनुमा बना हुआ था. लेकिन वेस्ट बैंक में अब भी इजरायल के खिलाफ आग धधक रही थी. इस आग को हवा देने वाले संगठन का नाम फलस्तीन लिब्रेशन ऑर्गनाइजेशन था.


2 जून, 1964 को बने इस संगठन का मकसद था अरब समूहों की एकता और फलस्तीन की आजादी, जिसे अरब लीग यानी कि इजिप्ट, लेबनान, जॉर्डन, सीरिया, सऊदी अरब और इराक ने भी मान्यता दे रखी थी.


यासिर अराफात के नेतृत्व में इस संगठन ने 6 अक्टूबर 1973 को इजरायल पर हमला कर दिया. जैसा कि तीनों ही जंग में हुआ था, अरब देश इजरायल के खिलाफ पीएलओ के साथ आ गए. इतिहास की किताब में इस जंग को कहा जाता है चौथा अरब इजरायल युद्ध. अमेरिकी मदद से इस बार भी इजरायल ने जंग जीत ली.


हर बार भले ही जीत इजरायल की हो रही थी, लेकिन उसे आर्थिक तौर पर बड़ा नुकसान उठाना पड़ रहा था. ऐसे में उसने अमेरिकी मदद से स्थाई समाधान तलाश करने की कोशिश की. तब तक अमेरिका में जिमी कॉर्टर राष्ट्रपति बन गए थे और मिस्र में भी सत्ता अनवर सादात के हाथ में आ चुकी थी.


अनवर सादात को भी समझ में आ गया था कि फलस्तीन के चक्कर में सबसे ज्यादा नुकसान उनके ही मुल्क मिस्र को उठाना पड़ रहा है, जिसकी वजह से आर्थिक हालात खराब हो रहे हैं. ऐसे में जिमी कार्टर की पहल पर अनवर सादात इजरायल के प्रधानमंत्री मेनाकेम बेगिन से बात करने को तैयार हो गए.


इजरायल और मिस्र के बीच शांति समझौता


दोनों की मुलाकात हुई, बात हुई और फिर दोनों देशों यानी कि इजरायल और मिस्र के बीच शांति समझौता हो गया. इसकी वजह से वेस्ट बैंक में बना फलस्तीन लिब्रेशन ऑर्गनाइजेशन अकेला पड़ गया, क्योंकि अब मिस्र उसकी मदद के लिए तैयार नहीं था. ये बात इजरायल और उसकी खुफिया एजेंसी मोसाद भी बेहतर ढंग से समझ रही थी.


इस वजह से मोसाद ने गाजा पट्टी में अपने बनाए आदमी शेख अहमद यासीन को और ज्यादा पैसे देने शुरू किए. इजरायल के कहने पर शेख अहमद यासीन ने संगठित तरीके से गाजा पट्टी में अपनी सत्ता चलाने के लिए एक संगठन बनाया. नाम दिया मुजम्मा-अल-इस्लामिया. इसका मकसद था इजरायल के पैसों से गाजा पट्टी में बसे फलस्तीनियों की मदद करना.


 हालांकि इजरायल ने सिर्फ पैसों से ही मदद नहीं की, बल्कि हथियार भी भेजे. ताकि अगर कोई छिटपुट झड़पें हों या फिर पीएलओ का दखल बढ़े तो मुजम्मा-अल-इस्लामिया खुद ही डील कर सके. अब पीएलओ गाजा में तो था नहीं तो अकेला दखल मुजम्मा-अल-इस्लामिया का ही हो गया.


1979 में खुद इजरायल ने मुजम्मा-अल-इस्लामिया को मान्यता दे दी और कहा कि ये संगठन गाजा पट्टी में मस्जिदें बनवा सकता है, स्कूल-अस्पताल बनवा सकता है, लाइब्रेरी बनवा सकता है और साथ ही गाजा में एक इस्लामिक यूनिवर्सिटी भी बनवा सकता है. कुल मिलाकर इजरायल ने एलानिया तौर पर मुजम्मा-अल-इस्लामिया का समर्थन कर दिया.


पहला इंतिफादा


दिक्कत तब शुरू हुई, जब पहला इंतिफादा हुआ. दरअसल गाजा में जबालिया नाम की जगह पर एक रिफ्यूजी कैंप था, जिसमें फलस्तीनी रहते थे. ये इजरायल की सीमा से लगी हुई जगह थी. 9 दिसंबर, 1987 को इजरायली सैनिकों के एक ट्रक ने एक कार को टक्कर मार दी.


इस हादसे में चार लोगों की मौत हो गई, जिनमें से तीन रिफ्यूजी थे तो जबालिया कैंप के थे. फलस्तीन ने आरोप लगाया कि इजरायली सैनिकों ने जानबूझकर टक्कर मारी है. इसके विरोध में पूरे फलस्तीन में विरोध प्रदर्शन शुरू हो गया.


बड़े पैमाने पर फलस्तीनियों ने इजरायली सैनिकों के ऊपर लाठी-डंडों और पत्थरों से हमला किया. तब फलस्तीन के पास हथियार के नाम पर यही हुआ करता था. इतिहास की किताबों में इस विरोध प्रदर्शन को पहले इंतिफादा के नाम से जाना जाता है.


इजरायल शेख का गाजा में हुआ विरोध


अब तक जो इजरायल शेख अहमद यासीन के जरिए गाजा पट्टी में कब्जा जमाए बैठा था, अब उसे वहां भी विरोध का सामना करना पड़ रहा था. बाकी वेस्ट बैंक में तो पीएलओ था ही, जो इजरायल के खिलाफ जंग छेड़े हुए था.


अब इजरायल को फिर से गाजा पट्टी और वेस्ट बैंक दोनों ही जगहों पर लड़ाई लड़नी थी. लेकिन चूंकि ये हथियारबंद विरोध प्रदर्शन नहीं था तो इजरायल खुलकर हथियारों का इस्तेमाल नहीं कर सकता था, क्योंकि ऐसा करने पर मामला अंतरराष्ट्रीय हो जाता. ऐसे में इजरायल ने फिर से मदद ली शेख अहमद यासीन की.


अब तक शेख अहमद यासीन के बनाए संगठन मुजम्मा-अल-इस्लामिया को इजरायल मान्यता दे ही चुका था, तो उसने इसी के जरिए इंतफादा को खत्म करने की कोशिश की. प्लान ये था कि शेख अहमद यासीन एक मिलिटेंट संगठन बनाए, वो संगठन इजरायल पर हमला करे और बदले में इजरायल गाजा नहीं बल्कि वेस्ट बैंक में हमला करके पीएलओ को पूरी तरह से बर्बाद कर दे, जिससे पूरे फलस्तीन पर उसका कब्जा हो जाए.


शेख अहमद यासीन ने बनाया संगठन


शेख अहमद यासीन इजरायल की बात को टाल ही नहीं सकते थे. उन्होंने मुजम्मा-अल-इस्लामिया का मिलिटेंट संगठन बनाया जिसका नाम दिया हरकत अल-मुक़ावमा अल-इस्लामिया. शॉर्टकट में इसे ही कहा जाता है हमास. शेख अहमद यासीन ने खुद को इस संगठन का धार्मिक नेता बना दिया, जबकि लड़ाई की कमान संभाली अब्देल अजीज अली अब्दुल माजीद अल रनतीसी ने, जिसे फलस्तीन का शेर भी कहा जाता है.


हमास ने किया हमला


इजरायल के कहे मुताबिक हमास ने पहला हमला किया 16 फरवरी 1989 को और दूसरा हमला किया 3 मई 1989 को. इन दोनों ही हमलों में हमास ने इजरायली सैनिकों को अगवा कर बेरहमी से उनका कत्ल कर दिया. इजरायल यही चाहता भी था. उसने वेस्ट बैंक में पीएलओ को खत्म करने की नीयत से हवाई हमला शुरू कर दिया.


वहीं पीएलओ के लोग गाजा पट्टी में भी थे. उनके खात्मे के लिए इजरायल ने हमास का ही सहारा लिया. इसका नतीजा ये हुआ कि पीएलओ इतना कमजोर हो गया कि जो हमास गाजा में ही ताकतवर था, उसकी ताकत वेस्ट बैंक में भी बढ़ गई. और फिर वो इतनी बढ़ती गई कि उसने न तो मोसाद की सुनी और न ही इजरायल की. और आज की तारीख में इजरायल का दुश्मन न तो पीएलओ है और न ही फलस्तीन या वेस्ट बैंक, बल्कि वही हमास है, जिसे उसने खुद बनाया था.


अब इजरायल का समर्थन करने वाले लोग हो सकता है कि इस पूरी बात को कॉन्सपिरेसी थ्योरी का नाम दे दें, कोरी कल्पना का नाम दे दें, फेक न्यूज़ का नाम दे दें, लेकिन नतीजे पर पहुंचने से पहले जरा उन लोगों की बातें तो जान ही लेनी चाहिए, जिन्होंने इजरायल की ओर से शेख अहमद यासीन और हमास के साथ डील की थी.


इजरायल की ओर से हमास के साथ हुई डील में आवनर कोहेन भी शामिल थे. ट्यूनिशिया में पैदा हुए कोहेन 1970 और 1980 के दशक में इजरायली अधिकारी थे, जिनकी तैनाती गाजा पट्टी में ही थी. उन्होंने साल 2009 में वॉल स्ट्रीट जनरल को दिए एक इंटरव्यू में कहा था, ''मुझे इस बात का पछतावा है. हमास इजरायल का ही बनाया हुआ संगठन है. जब इजरायल पीएलओ और यासिर अराफात से लड़ रहा था तो उसने इस लड़ाई में शेख अहमद यासीन की मदद की और तब भी मदद की जब शेख अहमद यासीन हमास बना रहा था.''


आवनर कोहेन ने कहा था, ''गाजा पट्टी में तैनाती के दौरान भी मैंने अपने अधिकारियों को रिपोर्ट लिखकर दी थी कि वो बांटने और राज करने की नीति बंद करें. हम इस हैवान को तोड़ने के रास्ते खोजें, लेकिन अधिकारियों ने मेरी एक भी नहीं सुनी. और नतीजा हमास हमारे सामने है.''


एंड्र्यू हिगिन्स का इंटरव्यू


एंड्र्यू हिगिन्स भी एक ऐसे ही अधिकारी थे, जो 1980 के दशक में इजरायली सेना की ओर से गाजा में तैनात किए गए थे. वॉल स्ट्रीट जनरल को ही साल 2009 में दिए गए एक इंटरव्यू में एंड्र्यू हिगिन्स ने कहा था, ''जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूं तो लगता है कि गलती हो गई. इजरायल ने ही मदद देकर इस्लामिक यूनिवर्सिटी ऑफ गाजा बनवाई, जो मिलिटेंसी का गढ़ बन गई."


उन्होंने आगे कहा, "2008-09 में जब इजरायल ने ऑपरेशन किया तो पहला हमला इसी यूनिवर्सिटी पर किया गया था. इसको ऐसे भी देखा जा सकता है कि हमास इजरायल का बनाया हुआ तालिबान है.''


गाजा में इजरायल के मिलिट्री जनरल का बयान


1980 की शुरुआत में गाजा में इजरायल के मिलिट्री जनरल थे ब्रिगेडियर जनरल येजताक सेगेव. उन्होंने भी न्यूयॉर्क टाइम्स को दिए एक इंटरव्यू में कहा था, ''मैंने फलस्तीन लिबरेशन ऑर्गनाइजेशन और यासिर अराफात के नेतृत्व वाले सेक्युलर-लेफ्टिस्ट फताह पार्टी का मुकाबला करने के लिए फलस्तीन इस्लामिक मूवमेंट हमास को पैसे दिए थे. ये पैसे इजरायली टैक्स पेयर्स के थे, जिनका इस्तेमाल हमास ने उन्हीं इजरायली लोगों को मारने में किया, जिनके वो पैसे थे.''


ब्रिगेडियर जनरल येजताक सेगेव ने भारी मन से इस बात को स्वीकार किया था कि इजरायल की सरकार ने मुझे पैसे दिए. और मिलिट्री ने वो पैसे मस्जिद को दे दिए. वहीं 1980 के दशक में गाजा में तैनात इजरायली सेना के अरब एक्सपर्ट डेविड हैचमैन ने भी कहा था कि जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूं तो लगता है कि गलती हो गई है, लेकिन उस वक्त किसी ने सोचा नहीं था कि ये भी हो सकता है.


इतना ही नहीं फलस्तीन लिबरेशन ऑर्गनाइजेश के मुखिया और फताह पार्टी को बनाने वाले यासिर अराफात हमेशा से ये कहते रहे हैं कि हमास को बनाने वाला कोई और नहीं बल्कि इजरायल ही है.


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