Israel-Palestine War: 35 एकड़ ज़मीन कितनी होती है. इतनी कि दो अलग-अलग धर्मों को मानने वाले एक दूसरे के खून के प्यासे हो जाएं. क्या इतनी कि दो देश एक दूसरे के सामने आकर लगातार जंग लड़ते रहें. क्या इतनी कि इस जमीन के टुकड़े के लिए हजारों-लाखों लोग मार दिए जाएं. सैद्धांतिक तौर पर तो कहने वाले कहेंगे नहीं. दुनिया के इतने बड़े नक्शे पर नाखून रखे जाने लायक भी जो जगह नहीं है, उसके लिए इतना खून-खराबा क्यों, लेकिन ये खून-खराबा चल रहा है. दशकों से.  


इजरायल और फलस्तीन के बीच के झगड़े और उसमें 35 एकड़ की ज़मीन के मामले को समझने के लिए चलना होगा उस दौर में जब दूसरा विश्वयुद्ध खत्म हो गया था. दूसरे विश्वयुद्ध के खात्मे के बाद ब्रिटेन ने अपने उपनिवेश समेटने शुरू किए तो अरब लोगों को मुक्ति मिली. उन्हें अपने लिए नया देश चाहिए था. वहीं, दुनिया में यहूदियों पर भी अत्याचार हुए थे. 


विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद उन्हें भी देश चाहिए था, ताकि वो शांति से रह सकें. मुसीबत तब शुरू हुई, जब दोनों ही समुदायों यानी कि मुस्लिमों और यहूदियों ने ब्रिटेन से आजाद हुए जमीन के उस बड़े टुकड़े को अपने देश के तौर पर बनाना शुरू किया और यहीं से मुस्लिमों और यहूदियों के बीच बड़ा झगड़ा शुरू हो गया.


यूनाइटेड नेशंस ने 1948 में दो हिस्सों में बांट दिया था जमीन टुकड़ा 
तब तक दुनिया के देशों के बीच शांति स्थापित करने के लिए यूनाइटेड नेशंस बन चुका था. उसने 1947 में प्रस्ताव दिया कि जमीन के उस बड़े टुकड़े को दो हिस्सों में बांट दिया जाए. 1948 में यूएन की पहल पर बंटवारा हो गया और एक नया देश बना इजरायल. यहूदियों का देश. दुनिया का इकलौता यहूदी मुल्क. जो गैर यहूदी थे, वो दूसरे टुकड़े की तरफ आ गए. उनकी आबादी थी करीब 13 लाख. उसे फलस्तीन कहा गया. 


इसी बीच इजिप्ट, जॉर्डन, इराक और सीरिया ने इजरायल पर हमला कर दिया. तर्क देने वाले तर्क देते हैं कि हमला इसलिए हुआ था, क्योंकि इजरायल ने मुस्लिमों पर अत्याचार किया था और उन्हें भागने पर मजबूर किया था. दूसरा तर्क ये भी आता है कि इजरायल को ये सभी मुस्लिम देश विदेशी शासन का नमूना मानते थे, इसलिए हमला किया था. 


1967 की जंग में वेस्ट बैंक और गाजा की जमीन पर हुआ इजरायल का कब्जा  
तर्क खैर जो भी सही हों, लेकिन नतीजा ये हुआ कि सारे देश मिलकर भी इजरायल का कुछ बिगाड़ नहीं सके. उल्टे इस लड़ाई में फलस्तीन का जेरूसलम शहर इजरायल के कब्जे में आ गया. फलस्तीन के मुस्लिमों को जगह मिली वेस्ट बैंक और गाजा में. 1967 में फिर से जंग हुई. इस जंग में इजरायल ने बची हुए वेस्ट बैंक और गाजा की जमीन पर भी अपना कब्जा कर लिया. इजरायल अब बेहद मजबूत स्थिति में था. 


नतीजा ये हुआ कि अरब देशों ने फलस्तीन को उसके हाल पर छोड़ दिया गया. इजरायल को अलग देश मान लिया गया. अब फलस्तीन को अपनी लड़ाई खुद लड़नी थी, क्योंकि उनके पास देश जैसा कुछ नहीं था. बस उनके लोग थे, जो अपने लिए अलग देश की जंग लड़ रहे थे.


जेरूसलम के टेंपल माउंट का पश्चिमी हिस्सा यहूदियों के लिए सबसे पवित्र जगह 
मुसीबत तब शुरू हुई जब दोनों ही देशों ने राजधानी के तौर पर एक ही शहर को चुना. और वो शहर है जेरूसलम. वैसे इजरायल ने जंग के दौरान इस शहर को फलस्तीन से जीत लिया था, लेकिन फलस्तीन इस पर अपना कब्जा छोड़ने को तैयार नहीं था और इसकी वजह दोनों के लिए धार्मिक है. दरअसल जेरूसलम में एक जगह है टेंपल माउंट. इस टेंपल माउंट का पश्चिमी हिस्सा यहूदियों के लिए सबसे पवित्र जगह है. 


जंग की असली वजह टेंपल माउंट और अल अक्सा मस्जिद
इस लिहाज से इजरायल इस टेंपल माउंट पर अपना कब्जा बताता है, क्योंकि ये उसके धर्म का है. इसी टेंपल माउंट के ऊपर एक मस्जिद भी बनी हुई है. इसे कहते हैं अल अक्सा मस्जिद. अब अल अक्सा जो मस्जिद है, वो इस्लाम में मक्का और मदीना के बाद तीसरी सबसे पवित्र जगह है. लिहाजा फलस्तीन के मुस्लिम इस पर अपना कब्जा बताते हैं.


इसी 35 एकड़ में बने टेंपल माउंट और उसके ऊपर बनी अल अक्सा मस्जिद इजरायल और फलस्तीन के बीच की जंग की असली वजह है, क्योंकि इजरायल को पूरी तरह टेंपल माउंट पर तो फलस्तीन को अल अक्सा मस्जिद पर पूरा कब्जा चाहिए. टेंपल माउंट और अल अक्सा पर हुआ मामूली विवाद भी चंद घंटे के अंदर इतना बड़ा हो जाता है कि इजरायल और फलस्तीन एक दूसरे पर बम और रॉकेट लॉन्चर से हमले शुरू कर देते हैं, जिसमें दोनों तरफ के हजारों निर्दोष मारे जाते हैं.


इजरायल और फलस्तीन की अलग-अलग सेना
अब रहा सवाल कि जंग तो इजरायल और फलस्तीन के बीच की है, फिर हमास का क्या काम, क्योंकि इजरायल की सेना का नाम है इजरायल डिफेंस फोर्स और फलस्तीन की सेना का नाम है नेशनल सिक्योरिटी फोर्सेस, लेकिन जब भी इजरायल जंग छेड़ता है या फिर इजरायल पर हमला होता है तो उसमें सिर्फ एक ही नाम का जिक्र होता है और वो नाम है हमास का तो अब इजरायल-फलस्तीन के झगड़े के बीच हमास कैसे आया, उसके बारे में डिटेल से बताते हैं. 


फलस्तीन गाजा पट्टी और वेस्ट बैंक के दो ​हिस्सों में बंटा 
ज़मीन के इस बड़े भूखंड में इजरायल तो साफ तौर पर दिख रहा है, लेकिन फलस्तीन दो हिस्सों में बंटा है. एक हिस्सा है गाजा पट्टी का और दूसरा है वेस्ट बैंक. वेस्ट बैंक पर काबिज है फलस्तीन लिब्रेशन ऑर्गेनाइजेशन का. इसे संयुक्त राष्ट्र संघ के 193 सदस्य देशों में से 138 देशों की मान्यता मिली है, जिसमें भारत भी है. इसी संगठन के मुखिया महमूद अब्बास फलस्तीन के राष्ट्रपति हैं. यासिर अराफात इसी संगठन से ताल्लुक रखते थे. फलस्तीन के दूसरे हिस्से यानी कि गाजा पट्टी की बात करें तो पूरे इलाके में अगर किसी एक संगठन की चलती है तो वो है हमास.


1987 में गाजा पट्टी की घटना ने इजरायल और फलस्तीन को झकझोर कर रखा 
अब हमास क्या है और कैसे इसका गठन हुआ, इसको समझने से पहले अरबी भाषा के एक और शब्द से गुजरना होगा. ये शब्द है इंतिफादा. 1987 के आखिर में गाजा पट्टी में हुई एक घटना ने पूरे इजरायल और फलस्तीन को झकझोर कर रख दिया था. हुआ ये था कि गाजा में जबालिया नाम की जगह पर एक रिफ्यूजी कैंप था, जिसमें फलस्तीनी रहते थे. ये इजरायल की सीमा से लगी हुई जगह थी. 9 दिसंबर, 1987 को इजरायली सैनिकों के एक ट्रक ने एक कार को टक्कर मार दी. इस हादसे में 4 लोगों की मौत हो गई थी, जिनमें से 3 रिफ्यूजी थे, जो जबालिया कैंप के थे. 


इंतिफादा के नाम से जाना जाता है विरोध प्रदर्शन
फलस्तीन ने आरोप लगाया कि इजरायली सैनिकों ने जानबूझकर टक्कर मारी है. इसके विरोध में पूरे फलस्तीन में विरोध प्रदर्शन शुरू हो गया. बड़े पैमाने पर फलस्तीनियों ने इजरायली सैनिकों के ऊपर लाठी-डंडों और पत्थरों से हमला किया. तब फलस्तीन के पास हथियार के नाम पर यही हुआ करता था. इतिहास की किताबों में इस विरोध प्रदर्शन को पहले इंतिफादा के नाम से जाना जाता है.


शेख अहमद यासीन ने किया था हमास संगठन बनाने का ऐलान
ये विरोध प्रदर्शन चल ही रहे थे. इसी दौरान मिस्र के मुस्लिम ब्रदरहुड की फलस्तीनी ब्रांच के शेख अहमद यासीन ने गाजा पट्टी में ही एक नया संगठन बनाने का ऐलान किया जिसका नाम था हमास. पूरा नाम हरकत अल-मुकावमा अल-इस्लामिया. अंग्रेजी में समझें तो इस्लामिक रेजिस्टेंस मूवमेंट. हिंदी में इस्लामिक प्रतिरोध वाला संगठन. इसका मकसद था वेस्ट बैंक और गाजा पट्टी को इजरायली कब्जे से मुक्त करवाना और इजरायल को पूरी तरह से तबाह करना. इसके लिए हमास ने हथियारों का सहारा लिया. 


हमास ने 1989 में इजरायली सैनिकों को अगवा कर बेरहमी से मारा 
16 फरवरी और 3 मई 1989 दो ऐसी तारीखें थीं, जब हमास ने पहली बार इजरायली सैनिकों को अगवा कर बेरहमी से उनका कत्ल कर दिया और अपनी खूनी मौजूदगी का परिचय दिया. इसके बाद वो लगातार हमले करने लगा. वो इजरायली सैनिकों को अगवा करते और उनका कत्ल कर देते थे. अक्टूबर, 1990 में अल अक्सा मस्जिद में इजरायली पुलिस की फायरिंग में 17 फलस्तीनी मारे गए. तब हमास ने कहा कि इजरायल का हर एक पुलिसवाला और सेना का हर एक जवान उसका दुश्मन है.


फलस्तीन बचाने की कोशिश में जुटा था लिब्रेशन ऑर्गेनाइजेशन 
वहीं, दूसरी तरफ फलस्तीन की आजादी के लिए लंबे समय से लड़ाई लड़ रहे यासिर अराफात और उनके संगठन फलस्तीन लिब्रेशन ऑर्गेनाइजेशन को समझ आ गया था कि अब इजरायल का खात्मा तो नहीं ही किया जा सकता. इसलिए जितना फलस्तीन बचा है, उतना ही बचा लिया जाए. इसके लिए इजरायल और फलस्तीन के बीच समझौते को लेकर बातचीत शुरू हो गई. इसके लिए स्पेन के मैड्रिड में एक कॉन्फ्रेंस हुई, जिसमें अमेरिका और रूस भी शामिल थे. साल था 1991. 


बिल क्लिंटन की मौजूदगी में 1993 में होना था दोनों के बीच समझौता
इसके बाद नार्वे के ओस्लो में दोनों देशों के प्रतिनिधियों के बीच बैठक हुई और समझौते की शर्तें तय हो गईं. इसको कहा जाता है ओस्लो अकॉर्ड्स या ओस्लो समझौता. 13 सितंबर, 1993 को अमेरिका के वॉशिंगटन डीसी में अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की मौजूदगी में इजरायल के प्रधानमंत्री इतजैक रैबिन और फलस्तीन के पीएलओ की ओर से यासिर अराफात को समझौते पर हस्ताक्षर करने थे.


समझौते के फैसले से नाराज हमास ने किया पहला आत्मघाती हमला 
इस पूरी प्रक्रिया से हमास नाराज था. उसका मकसद इजरायल की बर्बादी था और पीएलओ तो इजरायल से समझौता कर रहा था. इसे देखते हुए हमास ने अपना पहला आत्मघाती हमला किया. समझौते से करीब चार महीने पहले हमास ने इजरायल के खिलाफ सुसाइड बॉम्बर भेजकर अटैक कर दिया. हमास ने इजरायली सैनिकों को ले जा रही दो बसों के बीच एक कार ख़ड़ी कर दी, जिसमें बम था. हमास को सुसाइड बॉम्बिंग की ट्रेनिंग देने वाला संगठन था हिजबुल्लाह जो लेबनान का शिया मिलिटेंट ग्रुप था. हालांकि इस हमले के बाद भी इजरायल और पीएलओ के बीच 13 सितंबर, 1993 को समझौता हुआ.


1997 में अमेरिका ने हमास को घोषित किया था आतंकी संगठन 
समझौते के तहत फिलिस्तीन में व्यवस्था बनाए रखने के लिए फलस्तीनियन ऑथोरिटी का गठन हुआ, जो गाजा पट्टी और वेस्ट बैंक में व्यवस्था कायम करती, लेकिन हमास भी नहीं रुका. उसने लगातार इजरायल पर आत्मघाती हमले जारी रखे. नतीजा ये हुआ कि 1997 में अमेरिका ने हमास को आतंकी संगठन करार दे दिया था. इसकी वजह से अमेरिका की लगातार मुखालफत करने वाला ईरान हमास के पक्ष में आ गया. अब उसने भी हथियारों के जरिए हमास की मदद शुरू कर दी.


वहीं मुस्लिमों की मसीहाई का दंभ भरने वाले तुर्किये ने भी हमास को मदद देना शुरू कर दिया. इसके अलावा और भी मुस्लिम देशों ने कभी सामने आकर तो कभी पर्दे के पीछे से हमास को आर्थिक मदद और हथियारों की मदद देनी शुरू कर दी. जब अमेरिका सवाल करता तो मुस्लिम देश पर्दे के पीछे से मदद करते. फिर थोड़ी शांति होती तो फिर से हमास को पहले की तरह मदद मिलनी शुरू हो जाती.


साल 2000 में हमास एक बार फिर बड़ी ताकत के साथ उभर कर आया 
इजरायल हमास को खत्म करने की कोशिश करता तो ईरान और तु​र्किये हमास की ताकत को और बढ़ा देते. हमास को सबसे बड़ी ताकत मिली साल 2000 में, जब फलस्तीन में दूसरा इंतिफादा शुरू हुआ. इसके पीछे की भी एक घटना है. इजरायल के प्रधानमंत्री रहे थे एरियल शेरॉन. वो सितंबर, 2000 में पहुंच गए जेरूसलम के टेंपल माउंट.


अब इजरायल और फलस्तीन के बीच जेरूसलम, उसका टेंपल माउंट और उस पर बनी अल अक्सा मस्जिद का विवाद तो बेहद पुराना रहा है. ऐसे में एरियल शेरॉन के टेंपल माउंट पहुंचने की वजह से फलस्तीनी भड़क गए. उन्होंने विरोध प्रदर्शन शुरू किया, लेकिन इस बार उनके हाथों में हथियार थे, क्योंकि इस विरोध प्रदर्शन की कमान खुद हमास ने संभाल रखी थी. इजरायल में बम धमाके होने शुरू हो गए. आम लोगों को निशाना बनाया जाने लगा. इसमें न तो इजरायल पीछे हट रहा था और न ही फलस्तीन.


अप्रैल, 2001 में इजरायल के कासम पर दागा गया था पहला रॉकेट  
इस बीच हमास के पास रॉकेट आ गए थे, मिसाइल आ गई थीं और उसके लड़ाके खतरनाक हथियारों से लैस हो गए थे. ये सब हथियार उसे या तो दूसरे देशों से मिले थे या फिर उसने अपने यहां तैयार किए थे. उसने अप्रैल, 2001 में इजरायल के कासम पर 1 रॉकेट दाग दिया. ये हमास का इजरायल पर पहला रॉकेट हमला था, लेकिन उसकी रेंज कम थी. तब से लेकर अब तक हमास लगातार मजबूत होता गया है. अब तो उसके पास फजर फाइव जैसे रॉकेट हैं, जिनकी पहुंच इजरायल की राजधानी तेल अवीव तक है.


हमास की मजबूती का सबसे बड़ा टर्निंग पॉइंट यासिर अराफात की मौत रही. 2004 में जब तक यासिर अराफात जिंदा थे, वेस्ट बैंक पर हमास का प्रभाव कम ही था. वो गाजा पट्टी तक ही सीमित था, लेकिन जब 2004 में यासिर अराफात की मौत हो गई तो हमास ने वेस्ट बैंक पर भी प्रभाव जमाना शुरू कर दिया. वहीं,  यासिर अराफात के उत्तराधिकारी बने महमूद अब्बास, लेकिन वो यासिर अराफात जैसे करिश्माई नेता नहीं थे. लिहाजा हमास ने उनकी कमजोरी का फायदा उठाया और चुनाव में भी दखल देना शुरू कर दिया. 


फलस्तीनियन ऑथोरिटी के चुनाव में हमास की जीत 
साल 2006 में जब फलस्तीनियन ऑथोरिटी के लिए चुनाव हुए तो उसमें हमास भी शामिल हुआ और शामिल क्या हुआ, बाकायदा उसने जीत दर्ज कर ली. बहुमत हासिल किया और इस्माइल हनियाह को नया प्रधानमंत्री घोषित कर दिया. चुनाव में दूसरी प्रतिद्वंद्वी पार्टी फताह की हार हो गई. फताह वो पार्टी थी, जिसको बनाया था यासिर अराफात ने और जिसकी फलस्तीयन ऑथोरिटी में सरकार थी. 


हमास की जीत और फताह की हार के बाद दोनों में हुआ खूनी संघर्ष 
साल 2007 में हमास की जीत और फताह की हार के बाद दोनों में खूनी संघर्ष हुआ. ये संघर्ष खास तौर से गाजा पट्टी में हुआ और इसमें हमास ने पूरी गाजा पट्टी पर कब्जा कर लिया. इससे नाराज होकर फलस्तीन के राष्ट्रपति यानी फलस्तीयन ऑथोरिटी के चेयरमैन महमूद अब्बास ने हमास की सरकार और इस्माइल हनियाह दोनों को बर्खास्त कर दिया और सलाम फैयद को प्रधानमंत्री बना दिया. इसके बाद से ही वहां कभी चुनाव नहीं हुए.


वेस्ट बैंक पर फताह और गाजा पट्टी पर हमास का कब्जा  
हालांकि इसका नतीजा ये हुआ कि वेस्ट बैंक पर फताह का कब्जा हुआ और गाजा पट्टी पर हमास का. अब ये दोनों आपस में लड़ते रहते हैं. हमास का सबसे बड़ा दुश्मन इजरायल है, लेकिन गाजा पट्टी पर कब्जा बनाए रखने के लिए उसे फताह से भी लड़ना होता है. वहीं, फताह इजरायल से बातचीत का पक्षधर रहा है, जिसकी वजह से हमास से उसकी दुश्मनी और बढ़ती जाती है. इजरायल इसका फायदा उठाता रहता है. वो फताह से बातचीत करता है और हमास पर हमले करता है. 


इजरायल के पास दुनिया का सबसे घातक एयर डिफेंस सिस्टम आयरन डोम
हमास के पास भले ही रॉकेट आ गए हैं, लेकिन इजरायल के पास दुनिया का सबसे घातक एयर डिफेंस सिस्टम है आयरन डोम. इसकी वजह से हमास के रॉकेट इजरायल का कुछ खास नुकसान नहीं कर पाते हैं. वहीं, जब इजरायल एक रॉकेट दागता है तो गाजा पट्टी में तबाही मच जाती है. और इसी वजह से जब भी लड़ाई होती है, सबसे ज्यादा नुकसान फलस्तीन का ही होता है, इजरायल का नहीं.


दुनिया के तमाम मुस्लिम मुल्कों की सहानुभूति फलस्तीन के साथ होती है, क्योंकि जंग कोई भी हो...नुकसान आम आदमी का ही होता है. आम आदमी चाहें फिलिस्तीन के हों या इजरायल के, उन्हें शांति चाहिए, लेकिन हमास किसी को शांति से नहीं रहने दे रहा है. दुनिया के तमाम देश चाहे वो अमेरिका हो या फिर ब्रिटेन और न्यूजीलैंड हमास को आतंकी संगठन मानते हैं. वहीं रूस, तुर्किये, सीरिया और ईरान जैसे देश हमास को आतंकी संगठनों की लिस्ट में नहीं रखते.


हमास के इस बार के हमले के बाद समर्थकों ने भी खीचें अपने हाथ
इस बार हमास ने जो किया है, उसे देखकर हमास से थोड़ी बहुत सहानुभूति रखने वालों ने भी हाथ पीछे खींच लिए हैं. वहीं इजरायल ने भी तय कर लिया है कि ये आखिरी बार है, जब वो हमास का सामना कर रहा है. वैसे तो हमास और इजरायल की सेना के बीच कई बार जंग हुई है. हर बार भारी इजरायल ही पड़ा है, लेकिन कभी इतना भारी नहीं पड़ पाया है कि गाजा से हमास के प्रभाव को खत्म कर दे, लेकिन इस बार की लड़ाई आर-पार की है, जिसमें हमास को हमेशा के लिए खत्म करने पर इजरायल अड़ गया है.


अमेरिका और फ्रांस समेत तमाम पश्चिमी देश फिलहाल इजरायल के साथ हैं तो वहीं ईरान अब भी हमास के साथ है. जबकि लेबनान ने तो खुले तौर पर हमास को समर्थन देकर इजरायल पर हमला ही कर दिया है. ऐसे में आशंका इस बात की है इजरायल और फलस्तीन की जो जंग आपस में ही होकर हमेशा खत्म हो जाती थी, उसका दायरा इस बार और बड़ा होगा, जिसमें मध्य पूर्व एशिया के कई और भी देश चपेट में आ जाएंगे.   


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