इजरायल और हमास में चल रही जंग के बीच एक खबर आई है कि ईरान ने अपनी इमाम रज़ा मस्जिद पर काला झंडा फहरा दिया है. कहा जा रहा है कि ईरान ने अपने इतिहास में पहली बार रज़ा मस्जिद पर काला झंडा फहराया है, जिसका मतलब है कि उसने पूरे गैर इस्लामिक मुल्कों के खिलाफ ऐलान-ए-जंग कर दिया है, लेकिन क्या यही सच है. क्या सच में ईरान ने इमाम रज़ा मस्जिद पर कभी काला झंडा नहीं फहराया था. क्या इस काले झंडे को लगाने का मतलब ऐलान-ए-जंग ही है या फिर ये कहानी कुछ और है, जिसे गलत तरीके से सोशल मीडिया पर पेश किया जा रहा है, आज इसी मुद्दे पर बात करते हैं.
सबसे पहली बात तो ये है कि काला रंग शोक का प्रतीक है, लड़ाई का नहीं. मातम का प्रतीक है, ऐलान-ए-जंग का नहीं. इस्लाम धर्म में मोहर्रम का पूरा महीना ही मातम का महीना होता है. इस महीने में मुस्लिम धर्म और खास तौर से शिया मुस्लिम काले रंग के ही कपड़े पहनकर मातम करते हैं, खुद को चोट पहुंचाकर उस दर्द को महसूस करना चाहते हैं, जैसा दर्द कभी इमाम हुसैन और उनके अनुयायियों को हुआ था, जिन्हें यजीद़ ने कर्बला की जंग में तड़पाकर मार दिया था. करीब 1300 साल पहले ये जंग दक्षिणी इराक के कर्बला में हुई थी, जिसमें तब के खलीफा यज़ीद के सामने मोहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन ने घुटने टेकने से इन्कार कर दिया था. कर्बला की उस जंग में इमाम हुसैन और उनके 72 अनुयायियों की शहादत हुई थी. काला रंग उन्हीं इमाम हुसैन की शहादत का प्रतीक है और हर मोहर्रम में ईरान अपनी इमाम रज़ा मस्जिद समेत तमाम मस्जिदों पर काले झंडे फहराकर उसी शोक में शरीक होता है.
तो मस्जिद पर क्यों फहराया काला झंडा?
तो ये बात पूरी तरह से झूठ है कि ईरान ने अपने इतिहास में पहली बार इमाम रज़ा मस्जिद पर काला झंडा फहराया है. हां, ये सच है कि ईरान ने बिना मोहर्रम के पहली बार इमाम रज़ा मस्जिद पर काला झंडा फहराया है. इसकी वजह है इजरायल और हमास के बीच चल रही जंग में हजारों निर्दोषों की मौत. अभी गाजा पट्टी में अस्पताल पर जो हमला हुआ है और जिसमें करीब 500 बेगुनाहों की मौत हुई है, उसके लिए इजरायल हमास को दोषी ठहरा रहा है और हमास इजरायल को. अब दोष चाहे जिसका भी हो, मरे तो मासूम लोग हैं. ईरान उन्हीं बेगुनाहों की मौत से पसरे मातम के साथ खड़ा है और इसी वजह से उसने बिना मोहर्रम के भी इमाम रज़ा मस्जिद पर काले झंडे लगाए हैं. इस बात को यूं भी समझा जा सकता है कि इजरायल और हमास के बीच जो जंग चल रही है, उसमें तमाम इस्लामिक मुल्कों ने अपने-अपने पाले चुन लिए हैं और भले ही वो हमास के साथ खुलकर खड़े नहीं हो पा रहे हों, लेकिन वो इस्लाम और फलस्तीन के लोगों के साथ तो खुलकर खड़े ही हैं. ईरान का काला झंडा लगाना भी फलस्तीन के साथ उस इस्लामिक एकता का ही प्रतीक है.
ऐसे जंग का ऐलान करता है ईरान
अब रही बात ईरान के ऐलान-ए-जंग की, तो ईरान को जब भी जंग का ऐलान करना होता है, वो काले झंडे नहीं लगाता है बल्कि वो ईरान के कोम शहर की ऐतिहासिक जामकरन मस्जिद पर लाल झंडा फहराता है और तब किसी भी देश के खिलाफ जंग का ऐलान करता है. इस लाल रंग का मतलब ईरान के अपनों का खून होता है, जिसका बदला लेने के लिए वो लाल झंडे फहराता है. अभी पिछले दिनों जब अमेरिकी ड्रोन हमले में मेजर जनरल कासिम सुलेमानी की मौत हुई थी, तो ईरान ने लाल झंडा लगाकर अपना गुस्सा जाहिर किया था.
क्या हरा रंग इस्लाम का?
रही बात इस्लाम धर्म में रंग की, तो इस्लाम किसी भी एक खास रंग को किसी दूसरे रंग पर तवज्जो नहीं देता है. अब कहने वाले कह सकते हैं कि हरा रंग तो इस्लाम का प्रतीक है, लेकिन सच सिर्फ इतना सा ही नहीं है. दरअसल, मदीना में एक मस्जिद है, जिसका नाम है मस्जिद-ए-नबवी. ये इस्लाम धर्म को मानने वालों के लिए मक्का के बाद दूसरी सबसे पवित्र मस्जिद है. सल्तनत-ए- उस्मानिया के दौरान इस मस्जिद में गुंबद-ए-खिजरा बनवाया गया. खिजरा का मतलब होता है हरा. यानी कि मस्जिद में हरे रंग की गुंबद बनी. अब इस्लाम के दूसरे सबसे पवित्र मस्जिद की गुंबद हरी हुई तो पूरी दुनिया में इस्लाम के अनुयायियों को ये संदेश गया कि हरा रंग इस्लाम का प्रतीक है, लेकिन हकीकत यही है कि किसी रंग का कोई धर्म नहीं है और किसी धर्म का कोई रंग नहीं है.
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