Nancy Pelosi Taiwan Visit: चीन और ताइवान में रहता है जंग का माहौल और पेलोसी के दौरे को लेकर क्यों भड़का है ड्रैगन, जानिए पूरी कहानी
Indo Pacific Visit: 1992 में चीन और ताइवान के प्रतिनिधियों ने हॉन्ग-कॉन्ग में मुलाकात की थी. शांति बहाली की कोशिश की बात हुई थी. लेकिन समझौता अंतिम रूप में नहीं हो पाया. चीन ताइवान के संबंध बिगड़ते रहे.
China Taiwan Conflict: दुनिया के नक्शे पर दो चीन (China) हैं. एक बड़ा और एक छोटा. छोटे वाले को डर है कि बड़ा वाला चीन उसपर हमला कर उसे अपने में मिला लेगा. इस वजह से छोटे वाले चीन ने अपने देश के नागरिकों को आगाह कर दिया है और 28 पन्नों की बुकलेट छापकर टू डू और नॉट टू डू जैसी बातें की हैं. इस छोटे वाले चीन का नाम है रिपब्लिक ऑफ चाइना (Republic Of China), जिसे आम फहम भाषा में ताइवान (Taiwan) कहा जाता है. और बड़ा वाला चीन है पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना, जिसे आम फहम भाषा में चीन कहा जाता है. इनके बीच का झगड़ा क्या है और कैसे 1949 के बाद से ही चीन ताइवान को अपने कब्जे में लेने की कोशिश करता रहा है, इसको सिलसिलेवार ढंग से समझने की कोशिश करते हैं और कोशिश करते हैं ये समझने की कि इतना छोटा सा द्वीप पूरी दुनिया के लिए इतना अहम कैसे है कि अमेरिका जैसा देश भी इसके लिए चीन से भिड़ने को तैयार है.
इस कहानी की शुरुआत होती है साल 1945 से. 1945 में जब अमेरिका ने जापान के दो शहरों नागासाकी औऱ हिरोशिमा पर परमाणु बम गिराया, तो दूसरा विश्वयुद्ध खत्म हुआ. इसके साथ ही जापान की बादशाहत भी खत्म हो गई. और चीन एक आजाद मुल्क बन गया. उस वक्त ताइवान भी चीन का ही हिस्सा बन गया. देश का नाम हुआ रिपब्लिक ऑफ चाइना. लेकिन फिर चीन की सत्ता पर कब्जे के लिए दो पार्टियों में लड़ाई शुरू हो गई. पुरानी पार्टी थी नेशनलिस्ट पार्टी कुओमितांग, जिसके नेता सन यात सेन को चीन का पहला राष्ट्रपति माना जाता है, जो 1912 में राष्ट्रपति बने थे. और दूसरी पार्टी थी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चाइना. कुओमितांग के नेता थे चियांग काई शेक. कम्युनिस्ट पार्टी के नेता थे माओ-त्से तुंग. सत्ता के लिए इन दोनों के बीच हुई लड़ाई में जीत मिली कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चाइना के नेता माओ-त्से तुंग को. हारने के बाद कुओमितांग के नेता चियांग काई शेक चीन के पास के समुद्री इलाके ताइवान में चले गए. ताइवान जाकर चियांग काई शेक ने कहा कि हम ताइवान को आजाद घोषित कर रहे हैं और इसका नाम कर रहे हैं रिपब्लिक ऑफ चाइना. वहीं माओ-त्से तुंग के कंट्रोल वाले देश का नाम हुआ पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना.
जब चीन नहीं था इतना ताकतवर
चीन और ताइवान के बीच लड़ाई यहीं से शुरू होती है. उस वक्त भी माओ चाहते थे कि चीन का ताइवान पर कब्जा हो जाए. लेकिन ताइवान समंदर से घिरा हुआ इलाका है. और 1949 में चीन के पास ऐसी नौसेना थी नहीं कि वो समंदर के रास्ते जाकर ताइवान से जंग लड़े और उसे अपने साथ मिला ले. लेकिन छिटपुट जंग जारी रही. चीन अपनी ताकत लगातार बढ़ाता रहा. और फिर 1971 आते-आते चीन की ताकत इतनी बढ़ गई कि यूनाइटेड नेशंस में देश के तौर पर पिपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना यानी कि चीन को ही मान्यता मिली. और यहीं से ताइवान कमजोर होना शुरू हो गया, क्योंकि अब उसे यूएन की मदद मिलनी भी बंद हो गई. तब तक चीन की सत्ता में भी बदलाव हो चुका था. माओ की मौत के बाद डेंग शियाओपिंग चीन के सबसे ताकतवर नेता बन चुके थे. सुधारवादी आर्थिक नीतियों की वजह से चीन का एक बड़ा तबका डेंग शियाओपिंग के पक्ष में लामबंद हो चुका था.
चीन ने अमेरिका के साथ किया व्यापारिक समझौता
डेंग के सत्ता में आने के साथ ही चीन ने अपने बाजार दुनिया के लिए खोल दिए. 1 जनवरी, 1979 वो तारीख थी, जब चीन ने आधिकारिक तौर पर अमेरिका के साथ व्यापारिक समझौता किया. अमेरिका को भी एक बड़े बाजार की जरूरत थी. तब अमेरिकी राष्ट्रपति हुआ करते थे जिमी कार्टर. उन्होंने कहा कि डेंग शियाओपिंग के नेतृत्व वाला पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना ही असली देश है. जिमी कार्टर ने रिपब्लिक ऑफ चाइना यानी कि ताइवान में बना अपना दूतावास बंद कर दिया. अमेरिकी मदद मिली तो चीन के हौसले भी बढ़े और तब डेंग शियाओपिंग ने ताइवान को फिर से धमकी दी कि वो अपनी सेना को काबू में रखे और चीन के साथ अपना विलय कर ले.
जब डीपीपी पार्टी की हुई स्थापना
उस वक्त रिपब्लिक ऑफ चाइना या कहिए कि ताइवान के प्रीमियर हुआ करते थे चियांग चींग कुओ. वो ताइवान के प्रीमियर रह चुके चियांग काई शेक के बेटे थे. उन्होंने चीन के प्रस्ताव का कोई जवाब ही नहीं दिया. चीन ने भी कुछ नहीं कहा. बस वो अपनी ताकत में लगातार इजाफा करता रहा. वहीं ताइवान के इतिहास में 1986 वो साल था, जब एक और पार्टी की स्थापना हुई. उस पार्टी का नाम था डीपीपी. पूरा नाम डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी. मकसद था मानवाधिकारों की रक्षा करना और साथ ही ताइवानी आइडेंटिटी को कायम करना. उसने कहा कि ताइवान चीन का हिस्सा नहीं है, बल्कि एक आजाद मुल्क है. 1990-91 में ताइवान में हुए चुनाव के दौरान डीपीपी ने इस मुद्दे को जोर-शोर से उठाया. लेकिन वो चुनाव नहीं जीत पाई.
साल 2000 में डीपीपी के हाथ आई सत्ता
1992 में चीन और ताइवान के प्रतिनिधियों ने हॉन्ग-कॉन्ग में मुलाकात की थी. शांति बहाली की कोशिश की बात हुई थी. लेकिन समझौता अंतिम रूप में नहीं हो पाया. चीन और ताइवान के बीच के संबंध बनते-बिगड़ते रहे. लेकिन 2000 आते-आते सब बदल गया. ताइवान की सत्ता डीपीपी के हाथ में आ गई. और डीपीपी का साफ तौर पर कहना था कि वो चीन से अलग एक आजाद मुल्क है. इससे चीन नाराज हो गया और उसने ताइवान के खिलाफ पूरी दुनिया में लामबंदी शुरू कर दी. 2004 में ताइवान की कमान फिर से कुओमितांग के पास आ गई और लिएन झान राष्ट्रपति बन गए. चीन के राष्ट्रपति हू जिन्ताओ ने साल 2005 में ताइवान के नए-नए राष्ट्रपति लिएन झान से मुलाकात की. लेकिन कोई अंतिम समझौता नहीं हो पाया. चीन और ताइवान के बीच की लड़ाई ऐसे ही चलती रही.
ताइवान के लोग चीन से चाहते हैं आजादी
2016 के बाद से ताइवान के रुख में बड़ा बदलाव आया है. डीपीपी नेता तसाई इंग-वेन के राष्ट्रपति बनने के साथ ही ताइवान ने चीन के खिलाफ स्टैंड लेने शुरू कर दिए हैं. अब ताइवान के लोग खुलकर चीन से आजादी चाहते हैं. उसकी धमकियों को खारिज करते हैं. और यही बात चीन को बार-बार उकसाती है ताइवान पर हमले के लिए. हालांकि चीन ने अभी तक कोई हमला नहीं किया है, लेकिन चीन के हमले की दहशत बरकरार है. और इसीलिए ताइवान की सरकार ने जंग होने की स्थिति में क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, इसकी बुकलिस्ट जारी की है.
ताइवान की अहमियत की बात
रही बात कि ताइवान की अहमियत क्या है. तो आज की तारीख में भी दुनिया में महज 14 देश हैं, जो ताइवान को एक अलग स्वतंत्र देश के तौर पर मान्यता देते हैं. और ये 14 देश भी ऐसे हैं, जिन्हें नक्शे पर लेंस लगाकर खोजना पड़ता है. उदाहरण के लिए ग्वाटेमाला, होंडुरस, हैती, पराग्वे, निकारागुआ, इस्वातिनी, तुअलू, नौरू. ये सब यूनाइडेट नेशंस के सदस्य हैं और ताइवान को अलग देश के तौर पर मान्यता देते हैं. लेकिन जियोपॉलिटिक्स में इन देशों की ऐसी कोई बड़ी अहमियत या ताकत नहीं है कि इनके कहने पर दुनिया के और मुल्क ताइवान के साथ आ पाएं.
ताइवान हर देश के लिए जरूरी क्यों?
लेकिन ताइवान में जो है, उससे दुनिया का शायद ही कोई मुल्क फिलवक्त खुद को अलग कर पाए. आज की तारीख में ताइवान ऐसा मुल्क है, जिसके पास कंप्यूटर से लेकर मोबाइल और गाड़ियों तक में इस्तेमाल होने वाले चिप का आधे से ज्यादा उत्पादन होता है. ताइवान के अलावा दक्षिण कोरिया ही सिर्फ ऐसा देश है, जहां बड़ी मात्रा में चिप बनते हैं, लेकिन ताइवान के आगे दक्षिण कोरिया की उत्पादकता बेहद कम है. अब बिना कंप्यूटर, बिना मोबाइल और बिना गाड़ियों के तो वर्तमान की भी कल्पना नहीं की जा सकती, भविष्य तो छोड़ ही दीजिए. लिहाजा ताइवान दुनिया के हर मुल्क के लिए जरूरी बन गया है. और यही वजह है कि भले ही चीन के दबाव में आधिकारिक मान्यता ताइवान को नहीं मिल पा रही हो, लेकिन दुनिया के करीब 60 देश ऐसे हैं, जिन्होंने अनाधिकारिक तौर पर ताइवान से डिप्लोमेटिक रिश्ते बनाए रखे हैं और इनमें अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, रूस और भारत जैसे भी देश शामिल हैं.
अब अमेरिका भी ताइवान के साथ खड़ा
बाकी तो ताइवान तेजी से विकसित होती हुई अर्थव्यवस्था है. करीब 2 करोड़ 30 लाख की आबादी वाले इस देश ने चीन की तमाम पाबंदियों के बावजूद खुद को इतना विकसित किया है कि 70 के दशक ने जिस अमेरिका ने ताइवान की बजाय चीन को चुना था, वही अमेरिका अब ताइवान को बचाने के लिए चीन से भी लड़ने को तैयार है. अमेरिका इकलौता ऐसा ताकतवर मुल्क है, जिसने चीन की ताकत को कम करने के लिए ताइवान का खुले तौर पर समर्थन किया है. ताइवान की सेना को हथियार मुहैया करवाने से लेकर उसकी सेना के साथ डटकर खड़े रहने में अमेरिका सबसे आगे है और ये सब हुआ है कि 1979 के उस समझौते के तहत, जिसे ताइवान रिलेशनशिप ऐक्ट 1979 कहते हैं. और यही बात चीन को बिल्कुल भी नहीं सुहाती है.
इस तरह बिगड़े चीन अमेरिका के रिश्ते
अमेरिका के साथ चीन के रिश्ते तब बिगड़ने शुरू हुए जब चीन में हुए विरोध प्रदर्शन को रोकने के लिए चीन के थ्यानमेन चौक पर चीन की सेना ने अपने ही नागरिकों का नरसंहार किया था. तब अमेरिका ने चीन से अपने कारोबारी रिश्ते समेटने शुरू कर दिए. अमेरिका के बड़े-बड़े निवेशक चीन के विरोध में आ गए और उन्होंने चीन में निवेश करने से इन्कार कर दिया. अमेरिका ने भी चीन पर कई सख्त प्रतिबंध लगाने का ऐलान कर दिया. इस बीत 1991 में सोवियत यूनियन टूट गया. शीत युद्ध खत्म हो गया और अमेरिका निर्विवाद तौर पर दुनिया की महाशक्ति बन गया. लेकिन चीन भी लगातार अपनी ताकत बढ़ा रहा था और वो भी दुनिया की महाशक्ति बनने की दिशा में कदम बढ़ा चुका था. ऐसे में ताइवान में 1996 में होने वाले चुनावों को प्रभावित करने और ताइवान को डराने के लिए चीन ने ताइवान सीमा पर एक बड़ा मिसाइल परीक्षण किया. इससे अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन नाराज हो गए और उन्होंने ताइवान के समर्थन में पैसिफिक ओशन में अपनी फौज खड़ी कर दी. हालांकि तब भी बिल क्लिंटन ने ये साफ तौर पर कहा था कि वो अलग ताइवान देश को मान्यता नहीं देते हैं. वो दो चीन को भी मान्यता नहीं दे रहे हैं और वो चीन को ताइवान पर हमला करके उसे अपने में मिलाने का भी विरोध कर रहे हैं.
बराक ओबामा के राष्ट्रपति बनने के बाद रिश्ते हुए और खराब
हालांकि क्लिंटन ने चीन के साथ कारोबारी रिश्ते सुधारने की भरपूर कोशिश की. वो खुद चीन गए. वहां लोगों से मिले, नेताओं से मिले और फिर से अमेरिका-चीन कारोबार शुरू हो गया. लेकिन फिर अमेरिका से गलती हो गई. मिलिट्री इंटेलिजेंस की एक गलत रिपोर्ट के आधार पर अमेरिका ने बेलाग्रेड के चीनी दूतावास पर बमबारी कर दी, जिसमें कई चीनी पत्रकार और अधिकारी मारे गए. ये मई 1999 की घटना थी, जिसपर अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने माफी भी मांगी थी. और नतीजा ये हुआ कि कुछ महीने बीतते-बीतते फिर से अमेरिका और चीन के रिश्ते सुधरने लगे. बिल क्लिंटन के बाद जॉर्ज डब्ल्यू बुश के राष्ट्रपति रहते हुए भी अमेरिका और चीन के रिश्ते ठीक रहे. लेकिन बाराक ओबामा के राष्ट्रपति बनने के साथ ही अमेरिका और चीन के रिश्ते बिगड़ने शुरू हो गए.
ताइवान से हुए जंगी हथियार बेचने का समझौता
बाराक ओबामा भी राष्ट्रपति बनने के बाद 2009 के नवंबर में तीन दिनों के लिए चीन की यात्रा पर गए थे. लेकिन वहां से वो लौटे तो 2010 की शुरुआत में उन्होंने ताइवान को करीब साढ़े बिलियन डॉलर के जंगी हथियार बेचने का समझौता कर लिया. इससे चीन नाराज हो गया. ताइवान तो चीन की दुखती रग थी ही तो उसने अमेरिका पर प्रतिबंध लगाने का ऐलान कर दिया. बात तब और बिगड़ गई जब ओबामा ने बौद्ध धर्म गुरु दलाई लामा से मुलाकात कर ली. तिब्बत चीन की एक और कमजोर नस थी तो इसने चीन को और भी उकसा दिया.
डोनाल्ड ट्रंप के आने के चीन से दुश्मनी बढ़ी
लेकिन फिर नॉर्थ कोरिया के बढ़ते परमाणु कार्यक्रमों को रोकने के लिए चीन और अमेरिका फिर से साथ आ गए. लगा कि रिश्तों पर जमी बर्फ पूरी तरह से पिघल जाएगी. ओबामा ने तो चीन की वन चाइना पॉलिसी का समर्थन कर दिया, जिसमें ताइवान को चीन का हिस्सा माना जाता है. तिब्बत को भी ओबामा ने चीन का हिस्सा मान लिया. लेकिन फिर 2017 में ट्रंप सत्ता में आ गए. और उन्होंने ताइवान से बातचीत शुरू करके चीन को अपना दुश्मन बना लिया. 1979 के बाद ट्रंप अमेरिका के पहले ऐसे राष्ट्रपति थे, जिन्होंने ताइवान के राष्ट्रपति से बात की थी. इसने चीन को पूरी तरह से भड़का दिया. रही सही कसर चीन से निकले कोरोना ने पूरी कर दी, जिसके खिलाफ ट्रंप ने खुलकर मोर्चा लिया और चीन को अपना दुश्मन बना लिया.
दक्षिण चीन सागर पर ताइवान
और रही बात जियोपॉलिटिक्स के नजरिए से ताइवान की, तो ताइवान दक्षिणी चीन सागर में है. चीन पूरे दक्षिणी चीन सागर पर अपना कब्जा बताता है. इस पूरे इलाके में प्राकृतिक तेल और गैस के भी भंडार हैं, जिसपर दुनिया के और भी देश कब्जा चाहते हैं. लेकिन चीन उनकी राह में रोड़ा है. वहीं अमेरिका का कहना है कि चीन को दक्षिणी चीन सागर से गुजरने वाले समुद्री रास्ते को रोकने का कोई अधिकार नहीं है और दुनिया के मुल्क इस रास्ते से अपना कारोबार करने के लिए स्वतंत्र हैं. ये वो रास्ता है, जिससे पूरी दुनिया के समुद्री कारोबार का करीब-करीब एक तिहाई कारोबार होता है.
रूस-यूक्रेन जंग में चीन अमेरिका भी आमने सामने
अब चीन और अमेरिका के अपने-अपने दावे हैं और इन्हीं दावों को मज़बूत करने के लिए दोनों ही देश अपनी-अपनी सेना को इस इलाके में हर वक्त तैनात रखते हैं, जिससे लगातार युद्ध की आशंका बनी रहती है. और इसमें आग में घी का काम किया है रूस और यूक्रेन के बीच हुई जंग ने. रूस ने यूक्रेन पर जो हमला किया है, उसमें चीन सीधे तौर पर रूस के साथ खड़ा है और इसे जायज ठहरा रहा है. क्योंकि चीन को लगता है कि जैसे रूस से अलग होकर ही यूक्रेन बना था और अब रूस उसे वापस हासिल करने की कोशिश कर रहा है, वैसे ही चीन भी ताइवान को हासिल कर सकता है. रूस पहले से कहता आ रहा है कि ताइवान देश नहीं, बल्कि चीन का ही हिस्सा है और उसपर चीन का ही कब्जा होना चाहिए. और अमेरिका रूस का पुराना दुश्मन रहा है तो अमेरिका रूस के इस दावे को खारिज कर ही रहा है. चीन से अमेरिका के रिश्ते बिगड़ ही चुके हैं. ऐसे में अब ताइवान और यूक्रेन के बहाने चीन-रूस की जो दोस्ती बढ़ रही है, उससे अमेरिका परेशान है. बाकी तो बात ये भी है कि अमेरिका के नए राष्ट्रपति जो बाइडन ने भी कह ही दिया है कि अगर चीन ताइवान पर हमला करता है तो अमेरिका ताइवान की पूरी मदद करेगा और ऐसे में यूक्रेन युद्ध की वजह से दो गुटों में बंटी दुनिया के सामने ताइवान के तौर पर एक और संकट गहराता जा रहा है, जहां चीन के ताइवान पर हमला करने की सूरत में फिर से दुनिया दो गुटों में बंटेगी और ये तीसरे विश्वयुद्ध की शुरुआत जैसा हो सकता है. तो ये थी पूरी कहानी उस छोटे से देश ताइवान की, जिसे भले ही दुनिया के 14 ही देश मान्यता देते हैं लेकिन उसकी वजह से पूरी दुनिया में बड़ी जंग छिड़ सकती है.
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