म्यांमार सेना के कब्जे में रहेगा या होगी लोकतंत्र की बहाली ?
म्यांमार की भौगोलिक स्थिति इसे अवसरों के केंद्र में रखती है. इसकी पश्चिमी सीमा बंगाल की खाड़ी को छूती है और यहीं से पड़ोसी देश भारत के साथ उसका संपर्क जुड़ता है.
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नई दिल्ली: अमेरिका के प्रतिबंध लगाने और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के तमाम दबाव के बावजूद म्यांमार में तख्तापलट कर सत्ता पर काबिज हुई सेना झुकने को तैयार नहीं है. अब बड़ा सवाल यही है कि क्या वहां लोकतंत्र की बहाली होगी या फिर देश सेना के कब्ज़े में ही रहेगा? तख्तापलट के बाद से ही म्यांमार में जगह जगह पर विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं. गत एक फरवरी से जारी प्रदर्शनों में अब तक 400 से ज्यादा लोगों की जान जा चुकी है, जिसमें महिलाएं और बच्चे भी शामिल हैं.
चुनी हुई सरकार को हटाने में चीन के दखल को लेकर भी आशंका जाहिर की जा रही है, इसीलिए चीनी दूतावास के आगे भी प्रदर्शन हो रहे हैं. म्यांमार के लोग ताक़तवर पड़ोसी तक अपनी नाराज़गी पहुंचाने में संकोच नहीं कर रहे हैं. प्रदर्शनकारी चीन को संदेश दे रहे हैं, "हमसे मत उलझो. हम जानते हैं कि चीन सेना का समर्थन करता है. लोग चीन के दूतावास के आगे नारे लगा रहे हैं, चीन सुनो, हमारे देश से बाहर निकलो. हमारे वोट का सम्मान करो." प्रदर्शनकारियों का कहना है कि सेना को बैरकों में वापस चले जाना चाहिए. हालांकि, फ़िलहाल तो इसे एक महत्वाकांक्षी ख़्वाब ही कहा जा सकता है. म्यांमार में सेना ने पहली बार क़रीब छह दशक पहले देश की सत्ता पर कब्ज़ा किया था. 2015 के चुनाव में आंग सान सू ची की पार्टी की जीत के बाद भी सेना के हाथ में काफी ताक़त थी. बीते साल नवंबर में आंग सान सू ची को दोबारा जीत मिली और सेना को लगा कि सत्ता उनके हाथ से फिसल रही है.
दरअसल, वहां सेना शक्तिशाली संस्थान है, जिसे अपने बनाए संविधान से ताकत मिलती है. साल 2008 में सेना ने म्यांमार के संविधान में संशोधन किया. इसके बाद देश लोकतंत्र के रास्ते पर बढ़ा और साल 2015 में यहां चुनाव हुए. उस चुनाव में आंग सान सू ची की पार्टी ने हिस्सा लिया और जीत हासिल की. उन्हें 80 फ़ीसदी से ज़्यादा वोट हासिल हुए. संविधान के मुताबिक़ आंग सान सू ची की पार्टी सभी सीटें हासिल नहीं कर सकती थी. कुछ सीटें सेना के लिए रिजर्व थीं. आंग सू ची की पार्टी तीन अहम मंत्रालय गृह, रक्षा और सीमा मामले भी अपने पास नहीं रख सकती थी. लेकिन फिर भी आंग सान सू ची के नेतृत्व ने देश में उम्मीद के नए युग की शुरुआत हुई. उन्होंने लोगों खासकर युवाओं में विश्वास बहाल किया. लोग अब राजनीति के बारे में बात करने से डरते नहीं. जैसा डर उनके सत्ता में आने के पहले दिखता था. उन्हें लगा कि उनके पास भविष्य है और वो निर्माण प्रक्रिया का हिस्सा हैं.
साल 2020 में आंग सान सू ची का पांच साल का पहला कार्यकाल पूरा हुआ. इसके बाद चुनाव हुए और उन्हें प्रचंड बहुमत मिला. सेना की पार्टी को सिर्फ़ सात फ़ीसदी वोट मिले. चुनाव नतीजों से ये जाहिर हुआ कि सेना के जनरलों के हाथ से ताक़त फिसल रही है. उन्हें डर था कि आंग सान सू ची संविधान में बदलाव कर सकती हैं. सेना की नज़र में आंग सान सू ची ने लक्ष्मण रेखा पार कर दी. उन्हें रोकने के लिए ज़रूरी था कि देश की सत्ता पर अधिकार कर लिया जाए. इस फ़ैसले की एक और वजह मानी जाती है. म्यांमार सेना के प्रमुख राष्ट्रपति बनने का ख़्वाब देख रहे थे. लेकिन सेना को बेहद कम वोट हासिल होने के कारण उनकी उम्मीदों पर पानी फिर गया. ये भी साफ हुआ कि लोगों से सेना की पकड़ छूट रही है.
दरअसल, म्यांमार की भौगोलिक स्थिति इसे अवसरों के केंद्र में रखती है. इसकी पश्चिमी सीमा बंगाल की खाड़ी को छूती है और यहीं से पड़ोसी देश भारत के साथ उसका संपर्क जुड़ता है. म्यांमार के पूर्व में एशिया का एक और शक्तिशाली देश है, चीन. म्यांमार के अंदर भी कई तरह की संपदाएं हैं.
म्यांमार को अपनी भौगोलिक स्थिति का लाभ मिल सकता था, लेकिन म्यांमार की अर्थव्यवस्था जब-जब उड़ान भरने को तैयार दिखी, तभी सेना के जनरल आए और घड़ी की सूइयां घुमाते हुए वक़्त को पीछे ले गए.
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