इजराइल हालिया दिनों में फिलिस्तीन के साथ एक बार फिर संघर्ष को लेकर दुनियाभर में चर्चा में है. अब इस मुल्क़ की चर्चा एक और वजह से हो रही है और वो है दक्षिणपंथी विचारधारा वाले प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के युग का लगभग 12 सालों बाद खत्म होना.  दरअसल इजरायल के विपक्षी नेता येर लापिद ने राष्ट्रपति रूवेन रिवलिन से कहा कि उनके पास गठबंधन सरकार बनाने के लिए पर्याप्त समर्थन है. 


इसके साथ ही  येर लापिद ने यह भी साफ कर दिया कि अगले प्रधानमंत्री नेफ्ताली बेनेट होंगे. यानि बेंजामिन नेतन्याहू का सत्ता से बेदखल हो जाना तय है. इजराइल के प्रधानमंत्री के रूप में लगभग 12 वर्षों तक सत्ता के इस पद पर काबिज रहने वाले बेंजामिन नेतन्याहू को दो चीजों की वजह से याद किया जाएगा. एक सबसे ज्यादा वक्त तक इस पद पर रहने वाले नेता के तौर पर तो वहीं पद पर रहते हुए आपराधिक अभियोजन का सामना करने वाले नेता के तौर पर भी उन्हें याद किया जाएगा.


बता दें कि मार्च में हुए चुनाव में बेंजामिन नेतन्याहू की पार्टी बहुमत के आंकड़े को नहीं छू पाई थी. उसके बाद से ही विपक्षी पार्टियों के बीच सत्ता को लेकर घमासान चल रहा था. सबसे बड़ी पार्टी के नेता होने के नाते नेतन्याहू को प्रधनमंत्री पद की शपथ दिलाई गई थी. हालांकि, वे बहुमत साबित नहीं कर पाए थे. अब विपक्षी पार्टियों में सहमति बन जाने के कारण उनका जाना लगभग तय हो गया है.


दक्षिणपंथी लिकुड पार्टी के प्रमुख बेंजामिन नेतन्याहू को उनके समर्थक 'किंग बेबी' कहकर संबोधित करते हैं तो वहीं उनके लगातार चुनाव जीतने की वजह से उन्हें जादूगर भी कहा जाता रहा है. चुनाव में उनकी लगातार सफलता ने इजरायल के लोगों में यह विश्वास बना दिया कि केवल वही सबसे अच्छी तरह से मिडिल ईस्ट में जो 'शत्रू ताकतें' हैं उनसे इजराइल को सुरक्षित रख सकते हैं. इसकी एक और बड़ी वजह यह है कि उन्होंने किसी भी शांति समझौते के दौरान इजराइल की सुरक्षा को सर्वोपरि मानते हुए फिलिस्तीनियों के खिलाफ एक सख्त रुख अख्तियार किया.


बेंजामिन नेतन्याहू का सफर कैसा रहा


बेंजामिन नेतन्याहू का जन्म 1949 में तेल अवीव में हुआ था. 1963 में उनका परिवार अमेरिका चला गया था. उनके पिता बेंजियन जो कि एक इतिहासकार और यहूदी कार्यकर्ता थे उनको अमेरिका में अकादमिक पद पर नौकरी मिली थी.


18 साल की उम्र में बेंजामिन नेतन्याहू इजराइल लौट आए. वापस आकर उन्होंने इजराइल की सेना ज्वाइन की और पांच साल नौकरी की. इस दौरान वो एक एलीट कमांडो यूनिट में कैप्टन के रूप में सेवारत थे. उन्होंने 1968 में बेरूत के हवाई अड्डे पर छापे में हिस्सा लिया और 1973 में मध्य पूर्व युद्ध में भी लड़े. अपनी सैन्य सेवा के बाद नेतन्याहू वापस अमेरिका चले गए, जहां उन्होंने मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (एमआईटी) से बैचलर और मास्टर डिग्री हासिल की.


1976 में नेतन्याहू के भाई जोनाथन को युगांडा के एंतेबब में एक अपहृत विमान से बंधकों को बचाने के लिए छापे का नेतृत्व करते हुए मार गिराया गया था. उनकी मौत का नेतन्याहू परिवार पर गहरा असर पड़ा. इसके बाद नेतन्याहू ने अपने भाई की स्मृति में एक आतंकवाद निरोधक संस्थान की स्थापना की. वो 1982 में वाशिंगटन में इजरायल के मिशन उप प्रमुख बने. जल्द ही अमेरिकी चैनलों पर वो इजरायल का पक्ष बड़ी मजबूती से रखने लगे और उनकी पहचान बन गई. इसके बाद नेतन्याहू को 1984 में संयुक्त राष्ट्र में इजरायल का स्थायी प्रतिनिधि नियुक्त किया गया था.


इजराइल वापस आए और राजनीतिक करियर हुआ शुरू


1988 में वह इजराइल फिर लौटे और घरेलू राजनीति में शामिल हो गए. वो  Knesset (संसद) में लिकुड पार्टी के लिए एक सीट जीतने में कामयाब हुए और उप विदेश मंत्री बने. बाद में वह लिकुड पार्टी के अध्यक्ष बने और 1996 में यित्जाक राजिन की हत्या के बाद इजराइल के पहले सीधे तौर पर चुने गए प्रधानमंत्री बने. वो देश के सबसे युवा प्रधानमंत्री थे और एक मात्र जो इजराइल के 1948 में बनने के बाद पैदा हुए प्रधानमंत्री थे. अपने पहले कार्यकाल में इजराइल और फिलीस्तीनियों के बीच 1993 में हुए ओस्लो शांति समझौते की उन्होंने जमकर आलोचना की, हालांकि नेतन्याहू ने 80 प्रतिशत हेब्रोन ( दक्षिणी वेस्ट बैंक में एक फिलिस्तीनी शहर है, जो यरुशलम से 30 किमी की दूरी पर है) को फिलिस्तीनी प्राधिकरण नियंत्रण को सौंपने के समझौते पर हस्ताक्षर किए. 


इसके बाद साल 1999 में हुए चुनाव में वो अपना प्रधानमंत्री पद गवा बैठे. उनको पूर्व कमांडर और लेबर लीडर एहुद बराक से हार झेलनी पड़ी. हार के बाद नेतन्याहू ने लिकुड पार्टी से इस्तीफा दे दिया और एरियल शेरोन ने पार्टी के अध्यक्ष का पद संभाला.


2001 में फिर हुए चुनाव में लिकुड पार्टी सत्ता में लौटी और शेरोन प्रधानमंत्री चुने गए. एक बार फिर नेतन्याहू सरकार में लौटे, पहले विदेश मंत्री के रूप में और फिर वित्त मंत्री के रूप में उन्होंने काम किया.


हालांकि साल 2005 में नेतन्याहू ने फिर इस्तिफा दे दिया. वो इजराइल सरकार के इस फैसले के विरोध में थे जिसमें वो अपने कब्जे वाली गाजा पट्टी को छोड़ने को तैयार थी. साल 2005 में ही प्रधानमंत्री शेरोन कोमा में चले गए और नेतन्याहू ने लिकुड नेतृत्व को फिर हासिल किया. वो मार्च 2009 में दूसरी बार प्रधानमंत्री चुने गए.


2009 में ही उन्होंने सार्वजनिक रूप से इजराइल के साथ एक फिलिस्तीनी राज्य की अपनी सशर्त स्वीकृति की घोषणा की थी. हालांकि बाद में उन्होंने एक इजराइली रेडियो स्टेशन से कहा कि एक फिलिस्तीनी राज्य नहीं बनाया जाएगा. ऐसा कभी नहीं होगा.


भ्रष्टाचार के आरोप


नेतान्याहू पर उनके कार्यकाल में कई बार भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं. उनपर तीन अलग मामलों में रिश्वतखोरी, धोखाधड़ी और विश्वास भंग करने का आरोप लगे. नेतन्याहू पर आरोप है कि उन्होंने अमीर व्यवसायियों से रिश्वत ली. साथ ही सकारात्मक प्रेस कवरेज प्राप्त करने के लिए रिश्वत दी भी. हालांकि अपने ऊपर लगे हर आरोप को उन्होंने खारिज किया और कहा कि ये विपक्ष की चाल है. 


बता दें कि भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे नेतन्याहू इजराइल के पहले प्रधानमंत्री हैं जिन पर उनके कार्यकाल के दौरान ही मुक़दमे चले और इसके बावजूद इजराइल में पिछले दो साल में हुए चार चुनावों में खंडित जनादेश आने के बावजूद नेतन्याहू प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बने रहे हैं.


कौन हैं नेफ्ताली बेनेट जो बन सकते हैं अगले प्रधानमंत्री


अब जब लगभग यह साफ है कि नेतन्याहू की पकड़ प्रधानमंत्री की कुर्सी पर ढ़ीली पड़ गई है तो अब उनके बाद नेफ्ताली बेनेट इजराइल के अगले प्रधानमंत्री बनेंगे. दरअसल विपक्षी नेता येर लापिद ने राष्ट्रपति को बताया है कि उनके पास बहुमत है और उनके साथ येश अतीद, कहोल लावन, इजरायल बेइटिनु, लेबर, यामिना, न्यू होप, मेरेट्ज और रा’म जैसे राजनीतिक पार्टियां हैं.


अगर विपक्ष बहुमत साबित कर लेता है तो नेफ्ताली बेनेटे प्रधानमंत्री होंगे. वो एक पूर्व टेक आंत्रप्योर हैं. वो काफी पैसों वाले शख्स हैं और करोड़ों रुपये की संपत्ति के मालिक हैं. उनके माता पिता इजराइल के नहीं बल्कि अमेरिका के हैं जो इजाइयल में आकर बस गए. 


नेफ्ताली बेनेट बाद में अपनी पहचान एक राजनेता के तौर पर बनाने लगे. उनकी पहचान एक घोर दक्षिणपंथी राजनेता के तौर पर होती है. वो हमेशा से वेस्ट बैंक पर पूरी तरह कब्जा करने के पक्ष में रहे हैं. उनके राजनीतिक करियर की बात करें तो वो पहले नेतन्याहू के साथ ही सरकार में थे.  बेनेट ने नेतन्याहू के लिए 2006 और 2008 के बीच एक वरिष्ठ सहयोगी के रूप में काम किया. बाद में उनके आपसी रिश्ते खराब हो गए और उन्होंने लिकुड पार्टी को छोड़ दिया. बेनेट दक्षिणपंथी राष्ट्रीय धार्मिक ‘यहूदी होम पार्टी’ में शामिल हो गए. इसके बाद 2013 में बेनेट इसके प्रतिनिधि के रूप में संसद में पहुंचे.


क्या है बेनेट की सोच


जब बात यहूदी देश की आती है तो बेनेट नेतन्याहू से भी ज्यादा खुद को राष्ट्रवादी मानते हैं. वह वेस्ट बैंक, पूर्वी यरुशलम और गोलान हाइट्स पर यहूदियों के ऐतिहासिक और धार्मिक दावों को अपना समर्थन देते हैं.  अब आप सोच रहे होंगे कि उनका फिलिस्तीनियों को लेकर क्या रुख रहने वाला है तो बता दें कि उन्हें फिलिस्तीनी चरमपंथियों के खिलाफ सख्त रुप अपनाने के लिए जाना जाता है. उनका कहना है कि इन चरमपंथियों को मौत की सजा दी जानी चाहिए.


अगर वो इजरायल के प्रधानमंत्री बनते हैं तो भी फिलस्तीनियों की मुसीबत कम नहीं होगी. बल्कि ऐसा भी संभव है कि शांति वार्ता भी खत्म हो जाए. मगर भविष्य की तस्वीर क्या होगी ये आने वाले वक्त में पता चलेगा. बेनेट ने हाल में ही अपने एक बयान में कहा था कि वो नेतन्याहू से अधिक दक्षिणपंथी हैं लेकिन राजनीतिक रूप से आगे बढ़ने के लिए नफरत या ध्रुवीकरण का इस्तेमाल एक टूल के रूप में नहीं करेंगे.


लेकिन इसके उलट उन्होंने पहले कई ऐसे बयान दिए हैं जो फिलिस्तीन को लेकर काफी आक्रामक थे. साल 2013 में एक साक्षात्कार में बेनेट ने इजरायल और फिलीस्तीनियों के बीच शांति के लिए एकमात्र मार्ग के रूप में दो राज्यों के समाधान के लिए लंबे समय से चले आ रहे संयुक्त राष्ट्र और अरब लीग के प्रस्तावों को खारिज कर दिया था. उन्होंने कहा था कि फिलिस्तीनी राज्य का गठन इसराइल के लिए "आत्महत्या" होगा. उन्होंने 2015 में कहा था कि अगर दुनिया हम पर दबाव डालती है तो भी हम स्वेच्छा से आत्महत्या नहीं करेंगे.


बता दें कि फलस्तीनियों ने गाजा पट्टी और वेस्ट बैंक और पूर्वी यरुशलम को मिलाकर एक स्वतंत्र राज्य की मांग करते हैं जिसे इजरायल ने 1967 क युद्ध में कब्जा  में ले लिया था.