Pakistan Afghanistan relations: दक्षिण एशिया के नक्शे पर दो देश हैं. दोनों ही भारत के पड़ोसी हैं. दोनों ही कुख्यात हैं, जिसकी एक ही वजह है- आतंकवाद (Terrorism). पहला देश है पाकिस्तान, जो आतंकियों का मसीहा है और दूसरा है- अफगानिस्तान, जो आतंकियों का सबसे बड़ा ट्रेनिंग सेंटर रहा है. इसी वजह से दोनों देशों के बीच लंबे समय तक बड़े मधुर संबंध रहे हैं...रोटी-बेटी का रिश्ता रहा है...गोला-बारूद-हथियार-आतंकी, जब जिसको जिसकी जरूरत पड़ी, एक के लिए दूसरे ने उसे पूरा किया.
अफगानिस्तान (Afghanistan) को जब रूस से और फिर बाद में अमेरिका से लड़ना था तो पाकिस्तान (Pakistan) ने लड़ाके भेजे. जब पाकिस्तान को भारत के खिलाफ जंग करनी पड़ी या आतंकी हमले करवाने पड़े तो अफगानिस्तान ने आतंकी भेजे. ऐसे दोनों का रिश्ता बना रहा...लेकिन अब इस रिश्ते में दरार आ गई है. यह दरार इस कदर गहरी खाई में तब्दील हो गई है कि दोनों देश एक-दूसरे के खिलाफ जंग छेड़ने को आतुर हैं. आखिर इन दोनों देशों के बीच लंबे वक्त से चली आ रही दोस्ती इस कदर दुश्मनी में कैसे बदल गई और अफगानिस्तान के साथ ही पाकिस्तान की राजनीति में ऐसा क्या बदला कि दोनों देश एक-दूसरे के खून के प्यासे हो गए, आज इसी मुद्दे पर विश्लेषण किया जाएगा.
डूरंड लाइन, वो बॉर्डर जिससे अलग होते हैं पाक-अफगान
14 अगस्त, 1947 को जब मजहब के आधार पर भारत का बंटवारा कर पाकिस्तान को नया देश बनाया गया तो उसे विरासत में अफगानिस्तान से लगती सीमा रेखा मिली, जिसे डूरंड लाइन (Durand Line) कहा जाता है. 2670 किमी लंबी इस सीमा रेखा का एक सिरा चीन से मिलता है और दूसरा ईरान से. हालांकि, अब यही डूरंड लाइन अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच की लड़ाई की असल वजह है. इसका इतिहास करीब 130 साल पुराना है. तब भारत पर अंग्रेजों का शासन था. अपने शासन का विस्तार करने के क्रम में अंग्रेजों ने साल 1839 में अफगानिस्तान पर हमला कर दिया था. तब कहा जाता था कि अंग्रेजी राज में कभी सूरज डूबता नहीं है, लेकिन अफगानिस्तान में अंग्रेजों का सपना टूट गया. जंग में शुरुआती कामयाबी के करीब दो साल बाद अफगानी सेनाओं ने अंग्रेजी सेना को मात दे दी और अंग्रेजों को अफगानिस्तान से खाली हाथ लौटना पड़ा. मगर, अंग्रेजों ने हार नहीं मानी. पहले अंग्रेज-अफगान युद्ध में हारने के करीब 36 साल बाद अंग्रेजों ने एक और कोशिश की.
1878 में अंग्रेजों ने फिर से अफगानिस्तान पर हमला किया और इस बार अंग्रेज फतह हासिल करने में कामयाब रहे. इतिहास की किताबों में इसे दूसरे एंग्लो-अफगान वॉर के रूप में दर्ज किया गया. इस जंग को जीतने के बाद अंग्रेजों की ओर से सर लुईस कावानगरी और अफगानिस्तान की ओर से किंग मोहम्मद याकूब खान के बीच एक संधि हुई, जिसे गंदमक की संधि कहा गया. लेकिन चंद दिनों के अंदर ही मोहम्मद याकूब खान ने इस संधि को मानने से इन्कार कर दिया. उसने दोबारा पूरे अफगानिस्तान पर अपना कब्जा जमाना चाहा. नतीजा यह हुआ कि अंग्रेजों ने पलटवार किया. कंधार में जमकर जंग हुई, जिसमें अंग्रेज फिर से जीत गए. इसके बाद अंग्रेजों ने अपनी पसंद के अब्दुल रहमान खान को शासक बना दिया और नए सिरे से गंदमक की संधि की, जिसमें तय हुआ कि अब अंग्रेज अफगानिस्तान के किसी हिस्से पर हमला नहीं करेंगे.
इस संधि के बाद ब्रिटिश इंडिया की सरकार ने एक अंग्रेज अधिकारी मॉर्टिमर डूरंड को 1893 में काबुल भेजा, ताकि वहां पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कारोबार के साथ ही सांस्कृतिक, आर्थिक, मिलिट्री और राजनीति के स्तर पर अफगानिस्तान के शासक अब्दुल रहमान खान के साथ एक समझौता किया जा सके. 12 नवंबर, 1893 को ब्रिटिश इंडिया और अफगानिस्तान के बीच एक समझौता हुआ, जिसमें दोनों देशों की सीमाओं का निर्धारण किया गया. दोनों ओर के अधिकारी अफगानिस्तान के खोस्त प्रांत के पास बने पाराचिनार शहर में बैठे और दोनों देशों के बीच नक्शे पर एक लकीर खींच दी गई. इसी लाइन को कहा जाता है डूरंड लाइन. इस लाइन के जरिए एक नए प्रांत नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस को बनाया गया, जिसे आम तौर पर खैबर पख्तूनख्वा कहते हैं. ये हिस्सा ब्रिटिश इंडिया के पास आ गया. इसके अलावा फाटा यानी कि फेडरली एडमिनिस्ट्रेटेड ट्राइबल एरियाज और फ्रंटियर रिजंस भी ब्रिटिश इंडिया के ही पास आ गए, जबकि नूरिस्तान और वखान अफगानिस्तान के पास चले गए.
हालांकि, इस बंटवारे के साथ ही एक जातीय समूह का भी बंटवारा हुआ. ये समूह था पश्तून का, जो डूरंड लाइन के पास रहते थे. लाइन खींचने की वजह से आधे से ज्यादा पश्तून ब्रिटिश इंडिया में रह गए और बाकी के अफगानिस्तान में चले गए. लेकिन एक और भी जातीय समूह था जो ब्रिटिश इंडिया वाले हिस्से में था. ये समूह था पंजाबियों का. पश्तून और पंजाबी हमेशा एक दूसरे से लड़ते रहते थे, लेकिन लाइन खिंचने की वजह से पश्तून कमजोर पड़ गए, क्योंकि उनकी ताकत अफगानिस्तान में चली गई. अफगानिस्तान में गए यही पश्तून ऐसे लड़ाके बन गए, जिन्होंने ब्रिटिश इंडिया की आर्मी में बहुतायत में भर्ती हुए पंजाबियों के खिलाफ हमले शुरू कर दिए.
हालांकि बंटवारे के बाद हुआ ये कि अंग्रेजों ने तो अपने हिस्से के प्रातों को रेलवे से जोड़ना शुरू किया, वहीं अफगानिस्तान के पास जो नूरिस्तान गया था, उनके लोगों को अफगानिस्तान के शासक अब्दुल रहमान खान ने जबरन मुस्लिम बना दिया. लेकिन ब्रिटिश इंडिया और अफगान शासकों के बीच ये समझौता ज्यादा दिनों तक टिक नहीं पाया. मई 1919 में ब्रिटिश इंडिया ने अफगानिस्तान पर फिर से हमला कर दिया, जिसे इतिहास में थर्ड एंग्लो-अफगान वॉर के रूप में जाना जाता है. इस जंग को खत्म करने के लिए 8 अगस्त 1919 को ब्रिटिश साम्राज्य और अफगानिस्तान के बीच रावलपिंडी में एक समझौता हुआ. जिसमें तय हुआ कि ब्रिटिश साम्राज्य अफगानिस्तान को एक स्वतंत्र देश की मान्यता देगा, जबकि अफगानिस्तान डूरंड लाइन को अंतरराष्ट्रीय सीमा रेखा मानेगा. लेकिन 14-15 अगस्त, 1947 के बाद स्थितियां एक बार फिर से बदल गईं.
जब भारत आजाद हुआ और पाकिस्तान एक नया मुल्क बन गया. तब आजादी के साथ ही पाकिस्तान को ये डूरंड लाइन विरासत में मिल गई, जो पाकिस्तान को अफगानिस्तान से अलग करती थी. इस दौरान सबसे ज्यादा मुश्किलें आईं पश्तून लोगों को, जो अफगानिस्तान से सटी सीमा पर रहते थे. उनके साथ दिक्कत ये थी कि डूरंड लाइन खींचे जाने के वक्त ही उनके परिवार इस कदर बंट गए थे कि कुछ लोग अफगानिस्तान में चले गए थे और कुछ पाकिस्तान में रह गए थे. इसको लेकर दोनों देशों के बीच लगातार मतभेद बने रहे. इस बीच अफगानिस्तान की ओर से डूरंड लाइन के पास फायरिंग कर दी गई. नए-नवेले बने पाकिस्तान ने इस फायरिंग का जवाब एयरफोर्स को भेजकर दिया और पाकिस्तानी एयरफोर्स ने डूरंड लाइन के पास बने अफगानिस्तान के एक गांव पर हवाई हमला कर दिया. 26 जुलाई, 1949 को हुए इस हमले के बाद अफगानिस्तान ने ऐलान कर दिया कि वो डूरंड लाइन को नहीं मानता है. लेकिन फिर ब्रिटेन ने हस्तक्षेप किया.
जून 1950 में ब्रिटेन की ओर से साफ कर दिया गया कि पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच की सीमा रेखा तो डूरंड लाइन ही होगी. लेकिन ये मसला कभी सुलझ नहीं सका. पाकिस्तान और अफगानिस्तान इस मुद्दे पर अक्सर भिड़ते ही रहे. फिर 1976 में अफगानिस्तान के शासक सरदार मोहम्मद दाऊद खान पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद के आधिकारिक दौरे पर गए. वहां उन्होंने कहा कि अफगानिस्तान डूरंड लाइन को अंतरराष्ट्रीय सीमा रेखा के तौर पर मान्यता देता है. उसके बाद पाकिस्तान-अफगानिस्तान के रिश्ते सुलझ गए. दोनों के बीच दोस्ती हो गई और वो इतनी गाढ़ी हुई कि जब सोवियत संघ ने अफगानिस्तान में अपनी सेनाएं भेजीं तो सोवियत सेनाओं से लड़ने के लिए पाकिस्तान ने अपने लड़ाकों को अफगानिस्तान की सीमा पर तैनात कर दिया.
पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई ने भी अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए की शह पर मुजाहिदिनों को लड़ने के लिए अफगानिस्तान भेज दिया. फिर जब अफगानिस्तान में थोड़ी शांति बहाली हुई और अमेरिका-रूस के वहां से निकलने के बाद जंग की नौबत नहीं रही तो अफगानिस्तान के मुजाहिदीन भारत के खिलाफ पाकिस्तान की भी मदद करने आ गए. लेकिन जब 1996 में अफगानिस्तान पर तालिबान का कब्जा हुआ तो तालिबान ने फिर से डूरंड लाइन का विरोध कर दिया. तालिबान का कहना था कि दो इस्लामिक देशों के बीच में किसी सीमा रेखा की जरूरत ही नहीं है. जो मामला करीब 20 साल से शांत था, वो अचानक से फिर से तूल पकड़ने लगा. इतना ही नहीं, जब अमेरिका ने अफगानिस्तान को तालिबान के कब्जे से छुड़ाया और हामिद करजई को नया राष्ट्रपति बनाया तो हामिद करजई ने भी इस डूरंड लाइन को मानने से इन्कार कर दिया, क्योंकि हामिद करजई खुद भी एक पश्तून हैं.
हामिद करजई ने कहा था कि ये डूरंड लाइन दो भाइयों के बीच नफरत की दीवार है. हामिद करजई के अफगानिस्तान की सत्ता से बेदखल होने के बाद फिर से अफगानिस्तान पर तालिबान का कब्जा है. और तालिबान अपने पुराने रवैये पर कायम है कि वो डूरंड लाइन को मानता ही नहीं है. नतीजा ये है कि पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच तल्खी बढ़ती जा रही है.
अगर दुनिया की सबसे खतरनाक जगहों की लिस्ट बनाई जाती है तो अफगानिस्तान-पाकिस्तान के बीच खींची ये डूरंड लाइन हमेशा उस लिस्ट का हिस्सा होती है. क्योंकि यहां पर कब क्या हो जाए, कब बम धमाके शुरू हो जाएं, कब गोली-बारी होने लगे, किसी को नहीं पता है. डूरंड लाइन के पास रहने वालों की ये नियति है कि उन्हें हमेशा मौत के खौफ के बीच ज़िंदगी की तलाश करनी होती है. इस खौफ को कम करने और अफगानिस्तान के हमलों से खुद को बचाने के लिए पाकिस्तान ने साल 2017 में इस डूरंड लाइन पर फेंसिंग करनी शुरू की थी, जो अब लगभग पूरी होने वाली है. लेकिन अफगानिस्तान और खास तौर से अफगानिस्तान में बॉर्डर इलाके में रहने वाले पश्तून ने पाकिस्तान की इस फेंसिंग का हमेशा से विरोध किया है. 15 अगस्त 2021 को जब से तालिबान ने अफगानिस्तान की सत्ता दोबारा हासिल की है, इस डूरंड लाइन को लेकर दोनों देशों के बीच का टकराव और बढ़ गया.
अब अफगानिस्तान की फौज और पाकिस्तान की फौज के बीच बॉर्डर इलाके में लगातार गोलीबारी होती आ रही है और दोनों ही देशों के बीच जंग जैसे हालात बनते जा रहे हैं. लेकिन हाल में स्थितियां तब बिगड़ गईं जब अफगानिस्तान के तालिबान के ही पाकिस्तानी वर्जन तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान ने पाकिस्तान के खैबर पख्तूनखवा में स्थित बन्नू काउंटर टेररिज्म सेंटर पर कब्जा कर लिया और कई लोगों को बंधक बना लिया. तीन दिनों तक चली सैन्य कार्रवाई के बाद पाकिस्तानी सेना ने टीटीपी के सभी आतंकियों को मार गिराया और बंधकों को रिहा करवा लिया. लेकिन इसने फिर से पाकिस्तान-अफगानिस्तान के बीच सुलग रहे रिश्तों में घी डालने का काम कर दिया.
यूं तो अफगानिस्तान का तालिबान इस टीटीपी को पाकिस्तान का आंतरिक मामला मानता रहा है, लेकिन हकीकत यही है कि टीटीपी को शह अफगानिस्तानी तालिबान से मिलती रही है. क्योंकि पाकिस्तान के खिलाफ दोनों की भाषा और दोनों का मकसद एक है. अफगानी तालिबान भी यही कहता है कि डूरंड लाइन गलत है और पाकिस्तान पश्तून लोगों पर अपनी हुकूमत चला रहा है. टीटीपी का भी कार्यक्षेत्र डूरंड लाइन के पास वाला ही इलाका है और वो भी यही कहता है कि डूरंड लाइन के पास खैबर पख्तूनख्वा में उसका शासन चलेगा और पाकिस्तानी आर्मी को यहां से हटना होगा.
कुल मिलाकर जब बात सिर्फ इस्लाम की आती है तो ये दोनों देश और इनके आतंकी भले ही दुनिया के खिलाफ एक दिखते हैं और दुनिया के तमाम देशों के खिलाफ एकजुट होकर आतंकी गतिविधियों को अंजाम देते हैं, लेकिन बात जब खुद की आती है तो ये दोनों देश और इनके शासक असल में एक दूसरे के खिलाफ ही रहते हैं, जिसके मूल में अंग्रेजों के जमाने की खींची गई वो लाइन है, जिसे डूरंड लाइन कहते हैं. पाकिस्तान-अफगानिस्तान और आतंकियों के बीच बनते-बिगड़ते रिश्तों की ये पूरी कहानी है.
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