क्या सच में कंगाल होगा पाकिस्तान या है सिर्फ अनुमान? बिखरते मुल्क के 'इतिहास' से मिला जवाब
पाकिस्तान में महंगाई अपने चरम पर है, विदेशी मुद्रा भंडार लगभग खत्म होने के कगार पर है. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या सच में पाकिस्तान दिवालिया होने की कगार पर है?
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साल 1947 में भारत की आजादी के साथ नए देश पाकिस्तान का जन्म हुआ. जिसके बाद दोनों देशों ने नए सिरे शुरुआत की थी. आज 75 साल बाद जहां एक तरफ भारत 5 बड़े इकोनॉमी वाले देश की लिस्ट में शामिल हो गया है, तो वहीं दूसरी तरफ पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था पिछले कुछ समय से बेहद ही मुश्किल दौर से गुज़र रही है. पाकिस्तान के लिए साल 2022 अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर काफी विनाशकारी रहा है.
इसी साल के अप्रैल महीने में इमरान ख़ान को सत्ता से हटाया गया था. उनके हटने के बाद देश में इतनी सियासी उठापटक हुई की यहां कि बिगड़ती अर्थव्यवस्था पर आर्थिक संकट और भी ज्यादा बढ़ गया. अब यह देश अपनी डगमगाती अर्थव्यवस्था को दोबारा पटरी पर लाने की पूरी कोशिश कर रहा है. यही कारण है पाकिस्तान पिछले कई महीनों से अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) से बेलआउट पैकेज की लगातार मांग कर रहा है. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या आने वाले कुछ समय में पाकिस्तान सच में दिवालिया हो सकता है?
आर्थिक मंदी की तरफ बढ़ रहा पाकिस्तान
पाकिस्तान में फिलहाल जो स्थिति है उसका एक कारण राजनीतिक घटनाक्रम भी माना जाता है. इस देश में पिछले साल से चल रहे राजनीतिक उथल-पुथल ने आर्थिक संकट को और बढ़ा दिया है.
एशियाई विकास बैंक (एडीबी) की एक रिपोर्ट की मानें तो साल 2022 में इमरान ख़ान को सत्ता से हटाने तक इस देश की जीडीपी 6 फीसदी थी. जबकि चालू वित्त वर्ष में जीडीपी वृद्धि दर घटकर 0.6 फीसदी तक रहने का अनुमान है. इसके अलावा पिछले साल आई भयंकर बाढ़ ने भी पाकिस्तान की मौजूदा हालात को और गंभीर बना दिया.
हाल ही में पाकिस्तान के 'स्टेट बैंक ऑफ़ पाकिस्तान' ने जानकारी दी कि इस देश का विदेशी मुद्रा भंडार घटकर 4.19 अरब डॉलर रह गया है. किसी देश को चलाने के लिए ये राशि इतनी कम है कि इससे मुश्किल से एक महीने का आयात ही हो पाएगा.
इसके अलावा पाकिस्तान के वित्त मंत्री इशाक डार ने पिछले दिनों इशारा दिया था कि जून महीने के 30 तारीख तक आईएमएफ प्रोग्राम भी बिना आगे बढ़े खत्म हो सकता है.
इस देश की खराब होती अर्थव्यवस्था ने न सिर्फ राजनीतिक दलों बल्कि आम जनता के बीच भी दहशत स्थिति पैदा कर दी है. पाकिस्तानी रुपया अमेरिकी डॉलर के मुक़ाबले लगातार गिर रहा है.
साल 2022 में इमरान खान के सत्ता से हटने तक पाकिस्तान के एक डॉलर की कीमत 182 पाकिस्तानी रुपयों के बराबर थी. जो कि पिछले एक साल के अंदर गिरकर 310 पाकिस्तानी रुपयों के बराबर हो गई थी.
क्या दिवालिया हो सकता है पाकिस्तान?
पाकिस्तान के ऊपर लगातार कर्ज बढ़ रहा है लेकिन रेटिंग एजेंसियों ने उसकी अर्थव्यवस्था में उम्मीद भी जगाई है. बीबीसी की एक रिपोर्ट में इस सवाल के जवाब देते हुए अर्थशास्त्री अशफ़ाक हसन कहते हैं कि पाकिस्तान ने साल 1998 में परमाणु परीक्षणों के बाद इससे भी बुरे हालात देखे हैं. इसके अलावा कोरोना महामारी के बाद इस देश की अर्थव्यवस्था पटरी पर लौट गई थी. अगर ऐसे वक्त में जब यह देश ने खुद को दिवालिया होने से बचा सकता है तो अब भी बचा सकता है.
अशफ़ाक आगे कहते हैं, ''स्टेट बैंक ने अपने आयात बिल को सख़्त कर दिया है. ऐसे में अगर इसकी लगातार निगरानी की जाती है तो इस देश का विदेशी मुद्रा भंडार 5 अरब डॉलर के आसपास बना रहेगा. जिसका मतलब है कि यह देश क़र्ज़ की किश्तों के चुकाते रहने में सक्षम होगा.''
बीबीसी की एक रिपोर्ट में अर्थशास्त्री शब्बर जैदी कहते हैं कि डिफ़ॉल्ट हो या न लेकिन इस देश की अर्थव्यवस्था पूरी तरह चरमरा चुकी है और सरकार के पास इससे निपटने की क्षमता भी नहीं है. इस साल यानी 2023 के अप्रैल के महीने में पाकिस्तान में रिकॉर्ड 36.4 फीसदी मुद्रा स्फ़ीति दर्ज की गई थी. इसकी सबसे बड़ी वजह खाद्य कीमतों में आया उछाल था. यह दक्षिण एशिया में सबसे ज्यादा मुद्रा स्फीति है, जबकि खाद्य मुद्रा स्फ़ीति 48.1 फीसदी तक पहुंच चुकी है.
साल 1998 में दिवालिया होने से कैसे बचा पाकिस्तान
साल 1998 के अंत में पाकिस्तान को बेहद ही बुरे दौर से गुजरना पड़ा था. दरअसल मई 1998 के पाकिस्तान-भारत परमाणु परीक्षणों के बाद इस देश आर्थिक स्थिति बहुत बिगड़ गई. परमाणु परीक्षण के कारण G8 समूह में शामिल देशों ने पाकिस्तान पर कई तरह की व्यापारिक पाबंदियां लगा दी थी. जिसके कारण पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था को काफी तगड़ा झटका लगा था.
साल 1998 में पाकिस्तान का जीडीपी विकास दर महज 2.55 प्रतिशत रह गया था. पाकिस्तान की हालत काफी खराब थी. 1998 के नवंबर महीने तक इस देश का विदेशी मुद्रा भंडार 400 मिलियन डॉलर तक गिर गया था. सरकार मुश्किल से अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों (आईएफआई) को न्यूनतम आवश्यक ऋण सेवा भुगतान कर पा रही थी. इस देश के निजी निवेशकों का भरोसा और सॉवरेन क्रेडिट रेटिंग दोनों ही दुनिया के सबसे निचले स्तर पर आ गया था.
बाकी बची खुची कसर कारगिल युद्ध ने पूरी कर दी. लेकिन अमेरिका में फिर कुछ ऐसा हुआ, जिसने पाकिस्तान को फिर से संजीवनी दे दी. वो घटना थी 9/11 का आतंकी हमला.
उस वक्त अमेरिका को आतंकवाद के खिलाफ लड़ने के लिए पाकिस्तान की ज़रूरत पड़ी और पाकिस्तान की किस्मत फिर से चमक उठी. पाकिस्तान में फिर से पैसा मिलने लगा. साल 2001 से लेकर साल 2007 के बीच पाकिस्तान में विदेशी निवेश 17 प्रतिशत तक बढ़कर जीडीपी का 23 फीसदी हो गया था.
इसके अलावा पाकिस्तान का घरेलू कर्ज भी जीडीपी का 17.8 फीसदी से कम होकर 16.1 फीसदी रह गया था. साल 2002 में अमेरिका ने 11 बिलियन डॉलर पाकिस्तान को भेजे थे. जबकि साल 2003 से 2007 के बीच पाकिस्तान की जीडीपी लगातार 5 प्रतिशत से ज्यादा की दर से बढ़ रही थी.
उस दौर में पाकिस्तान ने तरक्की तो की, लेकिन कोई दीर्घकालीन नीति नहीं होने के कारण इस देश का ये अच्छा दौर भी खत्म हो गया. साल 2007 से लेकर 2008 में इस देश का विकास दर पिछले साल की तुलना में 37 प्रतिशत तक नीचे आ गया. जिसके चलते यूसुफ़ रज़ा गिलानी की सरकार ने IMF से 7.6 बिलियन डॉलर का कर्ज लिया.
भारत से भी अच्छी थी इकोनॉमी
एक वक्त ऐसा भी था जब पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था भारत से भी अच्छी स्थिति में थी. पाकिस्तान की प्रति व्यक्ति आय भारत से ज्यादा था और यह देश कृषि क्षेत्र में भी भारत से बेहतर था. साल 1960 में पाकिस्तान की पर कैपिटा जीडीपी 83.33 डॉलर थी जबकि उस वक्त भारत की पर कैपिटा जीडीपी 82.2 डॉलर थी. साल 1990 तक भी पाकिस्तान की जीडीपी लगभग भारत के बराबर रही. यानी दोनों देशों की जीडीपी 370 डॉलर पर पर्सन थी. इतना ही नहीं कई सोशियो-इकनॉमिक इंडीकेटर्स पर पाकिस्तान भारत से बेहतर स्थिति में था.
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