Verdict on Zulfikar Case: जिया उल हक के लिए जरूरी थी जुल्फिकार की फांसी, PAK सुप्रीम कोर्ट ने कहा, नहीं तो...
Pakistan: पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री जुल्फिकार भुट्टो को फांसी दिए जाने के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने नया फैसला सुनाया है. इसमें बताया गया है कि उस समय देश कैसे एक व्यक्ति के हाथ में चला गया था.
Verdict on Zulfikar Case: पाकिस्तान के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति रहे जुल्फिकार अली भुट्टो को फांसी दिए जाने के 44 साल बाद सुप्रीप कोर्ट ने उस आदेश को गलत माना है, जिसके तहत उनकों फांसी पर लटकाया गया था. कोर्ट ने कहा कि उस समय सत्ता तानाशाह के हाथ में थी, जब कोई जज तानाशाह के लिये सपथ ले लेता है तो अदालतें लोगों के लिये नहीं रह जाती है. कोर्ट के इस फैसले में कहा गया है कि उस समय फौजी शासन के सामने अदालते नतमस्तक थीं.
दरअसल, जुल्फिकार अली भुट्टो के दामाद और पाकिस्तान के प्रेसीडेंट आसिफ जरदारी ने करीब 10 साल पहले सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की थी. इसपर सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुना दिया है. जरदारी ने याचिका में भुट्टो के मुदकमे में कमियों की बात कहते हुए पूछा था कि क्या सुप्रीम कोर्ट 1979 के उस फैसले पर पुनर्विचार कर सकता है, जिसके तहत भुट्टो को फांसी की सजा सुनाई गई थी. पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि जुल्फिकार भुट्टो को साफ सुथरा ट्रायल नहीं मिला था.
सुप्रीम कोर्ट ने 48 पेज का दिया जजमेंट
पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को 48 पेज का आदेश जारी किया है. इसमें कहा गया है कि जिया उल हक को हड़पी गई सत्ता पर काबिज रहने के लिए जुल्फिकार दोषी ठहराया जाना आवश्यक था. जुल्फिकार अली भुट्टो न सिर्फ देश के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति रहे, बल्कि वह पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के संस्थापक भी थे. भुट्टो को एक हत्या के मामले में फांसी की सजा दी गई थी.
जिया उल हक की इच्छा ही देश का कानून- सुप्रीम कोर्ट
पाकिस्तान के चीफ जस्टिस काजी फैज ईसा ने अपने आदेश में कहा है कि भुट्टो को दोषी ठहराने वाले ट्रायल कोर्ट और अपीलीय अदालत उस समय काम कर रहे थे, जब देश में संवैधानिक शासन नहीं था. उस समय एक व्यक्ति (जिया उल हक) की इच्छा ही देश का कानून था. जज ने कहा कोर्ट के दिए पूर्व फैसले के एक मात्र जिया उल हक लाभार्थी थे, यदि भुट्टो को बरी कर दिया जाता तो वे जनरल जिया उल हक पर राजद्रोह के अपराध का मुकदमा चला सकते थे. आदेश में यह भी कहा गया है कि उस समय ट्रायल और अपीलीय अदालतें संविधान के तहत सच्ची अदालतें नहीं थीं, देश मार्शल लॉ का गुलाम था.
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